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कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन
मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य
भाग - 20
30 नवम्बर, 2010
‘सिनॉद ऑफ बिशप्स’ - नयी पूजनविधि


पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हमने कलीसियाई दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल ईस्टः कम्यूनियन एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य ’ कहा गया है।
संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों की एक विशेष सभा बुलायी थी जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिडल ईस्ट’ के नाम से जाना गया । इस विशेष सभा का आयोजन इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया गया था। काथलिक कलीसिया इस प्रकार की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती है।
परंपरागत रूप से मध्य-पूर्वी क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान, तेहरान, कुवैत, मिश्र, जोर्डन, बहरिन, साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब एमीरेत, एमेन, पश्चिम किनारा, इस्राएल, गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम अपने श्रोताओं को यह भी बता दें कि विश्व के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई और यहूदी धर्म की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम स्थल में ही ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं।
वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय के पूर्व भी आयोजित की जाती रही पर सन् 1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित और स्थायी हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया है। मध्यपूर्वी देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन 24 महासभाओं में 13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और दिशाओं की ओर केन्द्रित थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों के लिये विशेष सभा का आयोजन सन् 1998 ईस्वी में हुआ था।
पिछले अनुभव बताते हैं कि महासभाओं के निर्णयों से काथलिक कलीसिया की दिशा और गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है। इन सभाओं से काथलिक कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं में काथलिक कलीसिया से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय गंभीर समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र की शांति और लोगों की प्रगति को प्रभावित करता रहा है।
एक पखवारे तक चले इस महत्त्वपूर्ण महासभा के बारे में हम चाहते हैं कि अपने प्रिय पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में उठे मुद्दों और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों से आपको परिचित करा दें।
पाठको, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले अंक में हमने सुना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित ‘वर्णित मध्यपूर्व ईसाइयों की धर्मशिक्षा व पूजन विधि के बारे में कलीसियाई धर्मशिक्षा बारे में । आज हम सुनेंगे परंपरागत नयी पूजन पद्धति के बारे में।
71. पाठको, पूजन पद्धति के बारे में आम लोगों के जो विचार सामने आये हैं वे इस बात की ओर इंगित करते हैं कि मध्यपूर्व राष्ट्रों की कलीसिया को पूजन पद्धति का नवीनीकरण करना चाहिये। उनका यह भी मानना है पूजन पद्धति का नवीनीकरण के साथ-साथ इस बात का ध्यान दिया जाना चाहिये कि लोगों की जड़ परंपरागत विश्वास में गहरी हो। इसके साथ ही वे आधुनिक दुनिया के प्रति संवेदनशील हों और लोगों की आध्यात्मिक और दैनिक ज़रूरतों को ध्यान दें। कुछ अन्य विचार जो लोगों की ओर से मिलें ह उन में इन बातों का ज़िक्र है कि चर्च पूजन पद्धति समितियों का निर्माण करे ताकि नवीनीकरण के लिये उचित और सटीक कदम उठाया जा सके।
71. इस दिशा में सबसे बड़ी बात तो यह है कि पूजन पद्धति के क़िताबों और भक्ति गीतों का स्थानीय भाषा में अनुवाद किया जा चुका है विशेष करके अरबी भाषा में। ऐसा होने से स्थानीय कलीसिया को एक लाभ हुआ है कि लोग पूजन पद्धतियों अधिक अर्थपूर्ण तरीके से भाग ले पा रहे हैं और कलीसिया के विश्वास के विभिन्न रहस्यों को समझने का प्रयास कर रहे हैं। इस संबंध में अधिकतर लोगों ने बात पर बल दिया है कि पूजन पद्धति स्थानीय भाषा में ही हो।
73. लोगों ने अपने विचार इस संबंध में भी दिये हैं कि पूजन पद्धति के मूल विषयों को युवाओं और बच्चों के लिये सरल किये जायें। इस संदर्भ में लोगों ने कहा है कि पूजन पद्धति में व्यवहार किये जाने वाले ग्रंथों को इस तरह से सरल किया जाये कि वहाँ के स्थानीय लोगों को पूजन-विधियों में व्यवहार किये जानेवाले प्रतीकों और शब्दों को समझने में आसानी हो। इसके साथ ही स्थानीय कलीसिया का यह विचार है कि ग्रंथों का सिर्फ़ अनुवाद न किया जाय वरन् इस बात पर भी ध्यान दिया जाये कि इन शब्दों से लोगों को प्रेरणा मिले और जो मूल परंपरागत विषयवस्तु है उसे न तोड़-मरोड़ दे।
5यह अनुवाद परंपरागत मूल विषय के अर्थ को सुरक्षित तो रखे ही इसके साथ आधुनिकता के साथ भी संवेदनशील रहे। नयी पूजन पद्धति के संबंध में लोगों के कई विचार ऐसे भी रहे जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि जब भी पूजन-विधि और पद्धति को नये रूप देने की आवश्यकता पड़े तो इसमें कलीसिया के विभिन्न धड़ों से मदद लिया जाना चाहिये। इस कार्य के लिये जिनकी सहायता ली जानी चाहिये वे ईशशास्त्र विशेषज्ञ पूजनविधि के जानकार समाजशास्त्री पल्ली पुरोहित और इस संबंध में जानकारी रखने वाले लोकधर्मी भी हो सकते हैं।
74. पाठको अब आइये हम इस बात की ओर भी ध्यान दें कि जब पूजन विधि के नवीनीकरण की बात आती है तो इस बाद को हम नहीं भूल सकते कि आम लोगों की जो लोकप्रिय धार्मिकता रही है उसका भी नवीनीकरण हो। अगर लोगों के जो विचार आये हैं उन्हें बारीकी से देखें तो हम पाते हैं कि लोगों ने इस बात की ओर बल दिया है कि परंपरागत भक्तिपूर्ण प्रार्थना में भी बाईबल के उद्धरण डाले जाने चाहिये। यहाँ इस बात को भी बताया जाना उचित हो कि लैटिन कलीसिया के उदाहरण का अनुसरण किया जाना चाहिये।
75. अंततः यह बात कही जा सकती है कि पूजन पद्धति का नवीनीकरण कोई भी करे इसमें अंतरकलीसियाई पक्षों को अवश्य ही शामिल करना चाहिये। इस संबंध में लोगों के जो विचार प्राप्त हुए हैं वे इस बात की ओर इंगित करते हैं कि वस्तुतः पूजन विधि ख्रीस्तीय जीवन का एक ऐसा पहलु बन सकता है जिसमें काथलिक और ऑर्थोडॉक्स दोनों मिल कर आपसी सहयोग का एक आदर्श प्रस्तुत कर सकते हैं। यहाँ पर एक विशेष बात की चर्चा करना उचित होगा कि काथलिक कलीसिया कोम्युनिकात्सो इन साक्रिस अर्थात् सामुहिक पूजा आराधना और सामुहिक संस्कारीय समारोह को प्रोत्साहन नहीं देता है। इस संबंध में भी कई लोगों का विचार है कि इसके लिये एक समिति की स्थापना हो जिसमें दोनों कलीसियाओं के सदस्य हों और कलीसियाई नियमों का समाधान करते हुए उन सारी समस्याओं का समाधान खोजें जिससे दोनों पक्षों को लाभ हो सके।
पाठको, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम के अन्तर्गत आज में हमने सुना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित ‘वर्णित मध्यपूर्व ईसाइयों की परंपरागत नयी पूजन पद्धति के बारे में। अगले सप्ताह हम सुनेंगे अन्तरकलीसियाई वार्ता के बारे में।








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