2010-08-24 19:29:33

कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन
मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य
भाग - 6
24 अगस्त, 2010
सिनॉद ऑफ बिशप्स - ‘इनसत्रुमेन्तुम लबोरिस’ की प्रस्तावना


पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हम एक नया कलीसियाई दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल ईस्टः कम्यूनियन एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य ’ कहा गया है।
संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों की एक विशेष सभा बुलायी है जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिडल ईस्ट’ के नाम से जाना जायेगा । इस विशेष सभा का आयोजन इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया जायेगा। काथलिक कलीसिया इस प्रकार की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती है।
परंपरागत रूप से मध्य-पूर्वी क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान, तेहरान, कुवैत, मिश्र, जोर्डन, बहरिन, साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब एमीरेत, एमेन, पश्चिम किनारा, इस्राएल, गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम अपने श्रोताओं को यह भी बता दें कि विश्व के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई और यहूदी धर्म की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम स्थल में ही ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं।
वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय के पूर्व भी आयोजित की जाती रही पर सन् 1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित और स्थायी हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया है। मध्यपूर्वी देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन 24 महासभाओं में 13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और दिशाओं की ओर केन्द्रित थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों के लिये विशेष सभा का आयोजन सन् 1998 ईस्वी में हुआ था।
पिछले अनुभव बताते हैं कि महासभाओं के निर्णयों से काथलिक कलीसिया की दिशा और गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है। इन सभाओं से काथलिक कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं में काथलिक कलीसिया से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय गंभीर समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र की शांति और लोगों की प्रगति को प्रभावित करता रहा है।
एक पखवारे तक चलने वाले इस महत्त्वपूर्ण महासभा के पूर्व हम चाहते हैं कि अपने प्रिय पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में उठने वाले मुद्दों और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों से आपको परिचित करा दें।
श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले अंक में हमने सुना ‘सिनॉद की प्रक्रिया के बार में। आज हम सुनेंगे ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ की प्रस्तावना के बारे में।
1.श्रोताओ, आप को हम बता दें कि पिछले वर्ष संत पापा ने 8 से 15 मई तक पवित्र भूमि येरूसालेम की यात्रा के निर्णय के अनुसार 19 सितंबर को पूर्वी पैट्रियार्कों और मुख्य धर्माध्ययक्षों की एक सभा बुलायी थी। इस सभा में उन्होंने यह घोषणा की थी कि मध्य-पूर्वी बिशपों के सिनॉद की विशेष सभा 10 से 24 अक्तूबर तक सम्पन्न होगी। उन्होंने कहा था कि इस विशेष सभा की पहल करने के पीछे संत पीटर के उत्तराधिकारी की पूरी कलीसिया के लिये “ चिन्ता “ है विशेष करके मध्यपूर्वी कलीसिया की। यह पहल इस बात को प्रदर्शित करता है कि पूरी सार्वभौमिक कलीसिया भी अन्य कलीसियाओं से सहानुभूति रखती है और विशेष रूप से मध्यपूर्व की कलीसिया से। अगर हम संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें की की जॉर्डन, इस्राएल और पलेस्तीन की यात्रा के बारे में विचार करें जिसे संत पापा ने 28 नवम्बर से 1 दिसंबर 2006 में पूर्ण किया था तो उनके प्रभाषणों में उन बातों को पाते हैं जो हमें दुनिया में हो रही घटनाओं को समझने में मदद दे सकती हैं। इसके साथ उन पर चिन्तन करने से कलीसिया के कार्यों और मिशन को एक निश्चित दिशा देने में मदद मिलेगी।
इतनी बातों को जानने के बाद अब आइये हमें मध्यपूर्वी कलीसिया के लिये बुलायी गयी धर्माध्यक्षों की विशेष सभा के लक्ष्य के बारे में जानकारी प्राप्त करें।
2. मध्यपूर्वी कलीसिया के लिये बुलायी गयी विशेष सभा के दो मुख्य लक्ष्य हैं। पहला कि ईशवचन और ख्रीस्तीय संस्कारों के द्वारा मध्यपूर्वी कलीसिया की पहचान और ताकत को मजबूत करना। दूसरा अंतर कलीसियाई एकता को सुदृढ़ करना ताकि वे सहर्ष और प्रभावपूर्ण तरीके से सच्चे ख्रीस्तीय जीवन का साक्ष्य दे सकें।
हम आपको यह भी बता दें कि मध्यपूर्व में न केवल काथलिक कलीसिया निवास करती है पर ऑर्थोडॉक्स कलीसिया और प्रोटेस्टंट चर्च भी वर्षों से एक-साथ रहते आये हैं। इन तीनों कलीसियाओं की एकता इसलिये अति ज़रूरी है क्योंकि उनकी एकता से ही ख्रीस्तीय साक्ष्य विश्वसनीय और प्रभावपूर्ण हो पायेगा। उनकी एकता को ही देख लोग ईसा मसीह पर विश्वास कर पायेंगे।
3. इस प्रकार यह कहा जाना चाहिये कि ईसाइयों की एकता हर दृष्टिकोण से ससक्त होनी चाहिये। एक ओर तो काथलिक कलीसिया को मजबूत और स्थिर होने की आवश्यकता है दूसरी ओर इस क्षेत्र में जो भी काथलिक हैं उनकी भी एकता ज़रूरी है। इस क्षेत्र के काथलिक अपने आप में मजबूत होंगे तो वे इस क्षेत्र में निवास करने वाली अन्य कलीसियाओं के साथ भी अपने संबंध मजबूत कर पायेंगे। मध्यपूर्वी क्षेत्र की कलीसिया का एक यह भी कार्य है कि यह दूसरे धर्मावलंबियों के सदस्यों, जैसे यहूदियों, मुसलमानों और अन्य लोगों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करें।
4.धर्माध्यक्षों की महासभा न केवल धार्मिक परिस्थतियों का अवलोकन व मूल्यांकन करती है पर सामाजिक समस्याओं एवं परिस्थितियों के मूल्यांकन का भी अवसर देती है। धार्मिक एवं सामाजिक हालातों को जानने से ईसाइयों को इस बात का पता चल पायेगा कि मुस्लिम बहुल देशों विशेषकर के अरब, इस्राएल तुर्की और ईरान में उनकी क्या भूमिका और मिशन है। इन सभी बातों की जानकारी प्राप्त करने के बाद ईसाई समुदाय को इस तरह से अपने को तैयार करने की आवश्यकता है कि वे येसु के जीवन का साक्ष्य दे सकें। मध्यपूर्वी राष्ट्रों की स्थिति के बारे में चिन्तन करने का अर्थ है इस क्षेत्र की समस्याओं को जानना, इस क्षेत्र की सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता को समझना।
5. हम हम इस बात की जानकारी प्राप्त करें कि धर्माध्यक्षों की सभा में जो भी बात-विचार किये जायेंगे वे पवित्र धर्मग्रंथ के आधार ही होंगे। स्मरण रहे कि पवित्र धर्मग्रंथ बाईबल मध्यपूर्व के राष्ट्रों की भाषाओं- इब्रानी और अरामइक या ग्रीक में लिखे गये थे। साथ ही यह इसलिये भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि बाईबल लिखने के जो संदर्भ थे वे मध्यपूर्वी राष्ट्रों के संदर्भ ही थे। आज जो धर्मग्रंथ हमारे हाथ में हैं यह मध्यपूर्व में रहने वाले ख्रीस्तीय समुदायों के द्वारा ही हमारे समुदायों तक पहुँचे हैं। इसी लिये यदि हम बाईबल को भली-भाँति समझना चाहते हैं तो हमें मध्यपूर्वी राष्ट्रों के इतिहास और संस्कृति को समझना आवश्यक होगा।
6. आज ईशवचन हमें आमंत्रित करती है कि हम इस बात पर विचार करें कि वर्त्तमान परिस्थिति से अवगत हों। आज इस बात को जानने की आवश्यकता है कि वर्त्तमान परिस्थिति ईश्वर हमें क्या बताता चाहते हैं।
7. अतः यह विशेष महासभा हमें इस बात के लिये आमंत्रित करती है कि धर्माध्यक्ष ईशवचन के आधार पर चिन्तन करते हुए इस बात को खोजें की ईश्वर आज की परिस्थिति में हमसे क्या चाहते हैं। इस समय धर्माध्यक्षों की महासभा के सदस्य न केवल इस बात पर चिन्तन करते है कि ईश्वर ने हमारे पूर्वजों से क्या कहा, पर इस बात की भी खोज करते हैं कि ईश्वर उन्हीं शब्दों के द्वारा हमसे क्या कहना चाहते हैं ठीक वैसा ही जैसे कि येसु ने एम्माउस के शिष्यों को अपने क्रूस पर मारे जाने और तीसरे दिन जी उठने का अर्थ समझाया था। इस प्रकार की आन्तरिक प्रज्ञा के लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति बाईबल पर व्यक्तिगत और सामूदायिक स्तर पर गहन चिन्तन करे। बाईबल के गहन अध्ययन तब ही सफल माना जायेगा जब यह चिन्तन मनुष्य को व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन के संबंध में सही निर्णयों लेने में मदद करे।
श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम में हमने सुना ‘सिनॉद की प्रक्रिया के बारे में। अगले सप्ताह हम सुनेंगे ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित बाईबल पर आधारित चिन्तन के बारे में।








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