2009-03-19 13:23:31

कॉन्डोम पर पूछा गया प्रश्न एवं सन्त पापा का उत्तर


सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें द्वारा यह कहे जाने पर कि कॉन्डोम का वितरण एड्स समस्या का समाधान नहीं है समाचारों में तरह तरह की बातें की गई तथा कई पश्चिमी देशों में इसकी आलोचना हुई। इस स्थिति के उत्पन्न होने का एक कारण यह भी रहा कि सन्त पापा द्वारा कहे गये वकतव्य के दो तीन शब्दों को ही मीडिया में तूल दी गई जबकि उनके शेष वकतव्य को जानने की भी कोशिश नहीं की गई। इसी के मद्देनज़र हम पत्रकार के प्रश्न एवं सन्त पापा के उत्तर को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहे हैं -

प्रश्नः सन्त पापा, अनेक पीड़ाओं से ग्रस्त अफ्रीका, विशेष रूप से, एड्स महामारी की पीड़ा से ग्रस्त है। एड्स के विरुद्ध संघर्ष में काथलिक कलीसिया की स्थिति प्रायः अवास्तविक एवं प्रभावहीन समझी जाती रही है। क्या आप अपनी यात्रा के दौरान इस विषय को उठायेंगे? सन्त पापा, सम्भव हो तो कृपया फेंच में बोलें?

उत्तरः आप इताली भाषा अच्छी तरह बोलते हैं ................. मैं तो कहूँगा कि इसके बिल्कुल विपरीत। मेरे विचार से एड्स महामारी के विरुद्ध संघर्ष में सबसे प्रभावशाली वास्तविकता, सबसे अधिक उपस्थित तथा सबसे शक्तिशाली वास्तविकता, अपने विभिन्न आन्दोलनों एवं अपनी विभिन्न वास्तविकताओं सहित, काथलिक कलीसिया ही है। इस समय, मैं सन्त इजिदियो समुदाय के बारे में सोच रहा हूँ जिसने इस क्षेत्र में काफी कुछ किया है। इसी प्रकार काम्मिलियन धर्मसमाजी हैं, अन्य कई लोग जैसे धर्मबहनें हैं जो रोगियों के उपचार में लगी हैं तथा दृश्य या अदृश्य तरीके से - एड्स के खिलाफ संघर्षरत हैं। मैं कहूँगा कि एड्स की समस्या केवल पैसे से सुलझाई नहीं जा सकती। पैसा, जरूरी है किन्तु यदि इसके सदुपयोग का अभाव है तो यह कोई मदद नहीं कर सकता; यह समस्या कंडोम बांटने से पार नहीं हो सकती, इसके विपरीत, यह समस्या बढ़ जाती है। इसका समाधान दुहरा हैः पहला, यौनाचार का मानवीयकरण अर्थात अन्य लोगों के साथ व्यवहार का नया तरीका अपनाकर आध्यात्मिक और मानवीय नवीकरण की आवश्यकता और दूसरी बात, यथार्थ मित्रता, विशेष रूप से, पीड़ितों के साथ दोस्ताना व्यवहार अपनाना, पीड़ितों के संग रहने के लिये बलिदानों एवं परित्यागों सहित खुद को उपलभ्य बनाना आवश्यक है। ये सब घटक मददगार होते हैं तथा अपने आप में यथार्थ एवं दृश्यमान प्रगति को लिये रहते हैं। अस्तु, मैं कह सकता हूँ कि मानव व्यक्ति को उसके अन्तर में नवीकृत करने की हमारी दोहरी कोशिश आवश्यक है, उसे अपने शरीर के प्रति और अन्यों के प्रति, उचित आचार व्यवहार के लिये आध्यात्मिक एवं मानवीय शक्ति प्रदान करना, पीड़ितों की पीड़ा में शामिल होने की क्षमता उत्पन्न करना तथा परीक्षा की घड़ियों में उपस्थित रहने की शक्ति प्रदान करना ही सही उत्तर है, और कलीसिया यही कर रही है। ऐसा कर वह अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। उन सबके लिये हम धन्यवाद ज्ञापित करें जो इस कार्य में लगे हैं।








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