2008-09-01 12:38:46

देवदूत प्रार्थना से पूर्व दिया गया सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें का सन्देश


श्रोताओ, रविवार 31 अगस्त को, रोम शहर के परिसर में कास्तेल गोन्दोल्फो स्थित प्रेरितिक प्रासाद के झरोखे से, सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने, प्राँगण में एकत्र तीर्थयात्रियों को दर्शन दिये तथा उनके साथ देवदूत प्रार्थना का पाठ किया। इस प्रार्थना से पूर्व अपने सम्बोधन में सन्त पापा ने, पूजन विधि पंचांग के 22 वें रविवार के लिये निर्धारित धर्मग्रन्थ पाठों पर चिन्तन करते हुए कहाः

“अति प्रिय भाइयो एवं बहनो,
आज भी, सुसमाचार, मुख्यतः प्रेरितवर सन्त पेत्रुस की चर्चा करते हैं। किन्तु, जहाँ एक ओर विगत रविवार को हमने, उनके द्वारा उदघोषित मसीह एवं ईश्वर के पुत्र, येसु में उनके दृढ़ विश्वास को सराहा था वहीं दूसरी ओर इस घटना के तुरन्त बाद की घटना में हम उनके अपरिपक्व तथा इस संसार के अनुकूल विश्वास को देखते हैं। जब येसु, येरूसालेम में उनके लिये प्रतीक्षित नियति के विषय में बोलते हैं कि उन्हें नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों की ओर से बहुत दुःख उठाना, मार डाला जाना और तीसरे दिन जी उठना होगा तब पेत्रुस इसका विरोध करते हुए कहते हैं - "ईश्वर ऐसा न करे। प्रभु, यह आप पर कभी नहीं बीतेगी।" सन्त पापा ने कहा कि इससे यह स्पष्ट है कि प्रभु एवं उनके शिष्य के विचार करने का ढंग अलग अलग था। मानवीय तर्कणा के आधार पर, पेत्रुस, को विश्वास था कि ईश्वर कभी भी ऐसा नहीं होने देंगे कि उनके पुत्र का मिशन क्रूसमरण से समाप्त हो जाये। इसके बिल्कुल विपरीत, येसु, जानते हैं कि पिता ईश्वर ने, मनुष्यों के प्रति अपने असीम प्रेम के कारण, उन्हें अपना जीवन मनुष्यों के लिये अर्पित करने भेजा है और यदि ऐसा करने का अर्थ है दुःख उठाना एवं क्रूस पर मरना तो ऐसा ही उचित है। दूसरी ओर वे जानते हैं कि अन्ततः वे जी उठेंगे। पेत्रुस का विरोध, यद्यपि, अच्छे मन से व्यक्त किया गया तथा अपने गुरु और प्रभु के प्रति प्रेम के ख़ातिर व्यक्त किया गया, तथापि, येसु को एक प्रलोभन के सदृश प्रतीत हुआ, उन्हें लगा मानों पेत्रुस उन्हें बचने का रास्ता दिखा रहे थे जबकि अपना जीवन खोकर ही वे हम सब के लिये नवजीवन एवं अनन्त जीवन प्राप्त कर सकते थे।"

सन्त पापा ने आगे कहाः "यदि हमारी मुक्ति के लिये ईश पुत्र को दुःख उठाना पड़ा तथा क्रूस पर मरना पडा तो इसे स्वर्गिक पिता की क्रूर योजना कदापि नहीं माना जाना चाहिये। इसका कारण वह गम्भीर रोग है जिससे हमें चंगा किया जाना आवश्यक था, एक ऐसी गम्भीर महामारी जिसके उपचार में उनका सारा रक्त बहा दिया गया। वस्तुतः अपनी मृत्यु एवं अपने पुनःरुत्थान द्वारा ही येसु ने पाप और मृत्यु को पराजित किया तथा ईश्वर के प्रभुत्व को पुनःप्रतिष्ठित किया। तथापि, संघर्ष अभी भी खत्म नहीं हुआ है। बुराई हर पीढ़ी में अपना अस्तित्व बनाये रखती है, हमारे अपने युग एवं दिनों में भी। युद्ध की भयावहता क्या है, निर्दोषों के विरुद्ध हिंसा, दरिद्रता, तथा दुर्बलों द्वारा सहा जानेवाला अन्याय क्या है? क्या यह ईश राज्य के विरुद्ध बुराई का युद्ध नहीं? इतनी अधिक दुष्टता का प्रत्युत्तर आख़िर कैसे दिया जा सकता है? इसका प्रत्युत्तर केवल निरस्त्र प्रेम की शक्ति से दिया जा सकता है जो घृणा पर विजयी होती, इसका प्रत्युत्तर जीवन की शक्ति से दिया जाता है जो मृत्यु से भय नहीं खाती। यह वह रहस्यमय शक्ति है जिसे येसु ने, अपने ही लोगों द्वारा न समझे जाने तथा परित्यक्त हो जाने के मोल पर, प्रयुक्त किया।"

तदोपरान्त उन्होंने कहाः "अति प्रिय भाइयो एवं बहनो, मुक्ति के कार्य की परिपूर्णता के लिये, मुक्तिदाता अभी भी स्त्री-पुरुषों को उनके तथा उनके मिशन के साथ क्रूस उठाकर उनका अनुसरण करने के लिये बुलाते हैं। जैसा कि वह ख्रीस्त के लिये था, ख्रीस्तीयों के लिये क्रूस उठाना कोई विकल्प नहीं है अपितु एक ऐसा मिशन है जिसका, प्रेम के ख़ातिर, आलिंगन किया जाना चाहिये। आज के विश्व में, जहाँ विभाजित करनेवाली विनाशक शक्तियाँ राज करती प्रतीत होती हैं, ख्रीस्त अपना आमंत्रण देना बन्द नहीं करते, उनका स्पष्ट आमंत्रण सबके प्रति अभिमुख हैः जो मेरा शिष्य होना चाहे वह अपने अहंकार का बहिष्कार करे तथा मेरे साथ क्रूस उठाकर चले।"

अन्त में सन्त पापा ने कहाः............"पवित्र कुँवारी मरियम से हम सहायता की याचना करें जिन्होंने सबसे पहले तथा अन्त तक क्रूस के मार्ग पर येसु का अनुसरण किया। दृढ़तापूर्वक येसु के पीछे हो लेने में वे ही हमारी मदद करें ताकि हम अभी से ही पुनःरुत्थान की महिमा का अनुभव प्राप्त कर सकें।"

इतना कहकर सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने उपस्थित तीर्थयात्रियों के साथ देवदूत प्रार्थना का पाठ किया तथा सब पर प्रभु की शांति का आह्वान कर सबको अपना प्रेरितिक आर्शीवाद प्रदान किया --------------------------------------

देवदूत प्रार्थना के बाद सन्त पापा ने अवैध आप्रवास के मुद्दे को उठाया तथा राजनीतिज्ञों को उनकी ज़िम्मेदारियों का स्मरण दिलाते हुए कहाः "विगत कुछेक सप्ताहों के दौरान, प्रकाशित समाचारों में अफ्रीका से आनेवाले आप्रवासियों की संख्यी बढ़ती चली गई है। प्रायः, भूमध्यसागर से, आशा एवं कठिन परिस्थितियों से पलायन के विकल्प रूप में चुने जाने वाले, यूरोपीय महाद्वीप की ओर प्रवास दुखद त्रासदी में समाप्त हो जाता है। अभी हाल की घटना, पहले की सभी घटनाओं से बदत्तर सिद्ध हुई जिसमें कई व्यक्तियों के प्राण चले गये। वस्तुतः, आप्रवास मानव इतिहास के प्रारम्भ से ही होता चला आया है तथा लोगों एवं देशों के बीच सम्बन्धों का एक महत्वपूर्ण घटक रहा है। आज आप्रवास ने एक आपात रूप धारण कर लिया है इसलिये इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। एक ओर एकात्मता दर्शाई जाने की आवश्यकता है तो दूसरी ओर उपयुक्त राजनैतिक समाधानों की भी आवश्यकता है। मैं जानता हूँ कि प्रान्तीय, राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक अवैध आप्रवास की समस्या का समाधान ढूँढ़ने में लगे हैं। उनके प्रयासों की मैं सराहना करता हूँ तथा आशा करता हूँ कि वे अपना काम ज़िम्मेदारीपूर्वक तथा मानवीय भावनाओं से ओत् प्रोत् होकर करेंगे। आप्रवास करनेवाले देशों को भी अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभानी चाहिये, केवल इसलिये नहीं कि आप्रवासी उनके देशों के नागरिक हैं बल्कि इसलिये भी कि अवैध आप्रवास से जुड़ी सभी अपराधिक गतिविधियों को जड़ से समाप्त किया जा सके। अपनी ओर से यूरोपीय देशों द्वारा, कम से उन देशों द्वारा जहाँ आप्रवासी आते हैं, संयुक्त पहलों का विकास किया जाना चाहिये तथा ऐसी संयुक्त संरचनाओं का निर्माण किया जाना चाहिये जो अनियमित आप्रवासियों की ज़रूरतों को पूरा करें। अनियमित आप्रवासियों को जीवन के मूल्यों से भी अवगत कराया जाना चाहिये, उन्हें उन ख़तरों से अवगत कराया जाना चाहिये जो वे अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये उठाते हैं। साथ ही उन्हें स्मरण दिलाया जाना चाहिये कि देश विशेष के कानून का अनुपालन अनिवार्य है। सबके पिता होने के नाते मैं इस समस्या के प्रति सचेत होने के लिये सबको याद दिलाना अपना दायित्व मानता हूँ तथा व्यक्तियों एवं संस्थाओं से इस समस्या का सामना करने तथा उसका समाधान ढूँढ़ने के लिये उदार सहयोग का आव्हान करता हूँ। प्रभु हमारे साथ रहें तथा हमारे प्रयासों को फलप्रद बनायें।"










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