2008-08-18 09:35:45

देवदूत प्रार्थना से पूर्व दिया गया सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें का सन्देश


श्रोताओ, रविवार दस अगस्त को, इटली के आल्तो आजिदे प्रान्त के पर्वतीय नगर ब्रेसानोन में अपने ग्रीष्म अवकाश के अन्तिम दिन, सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने, ब्रेसानोन के काथलिक महागिरजाघर के प्राँगण में एकत्र तीर्थयात्रियों को दर्शन दिये तथा उनके साथ देवदूत प्रार्थना का पाठ किया। इससे पूर्व अपने सम्बोधन में सन्त पापा ने कहाः

“अति प्रिय भाइयो एवं बहनो,
सन्त मत्ती रचित सुसमाचार में एक ऐसा बिन्दु है जहाँ सुसमाचार लेखक बताते हैं कि तनावों से भरे दिनों के बाद, प्रभु ने अपने शिष्यों से कहाः "मेरे साथ आओ, और मैं तुम्हें एक शान्तिमय स्थान पर ले जाऊँगा, ताकि तुम कुछ विश्राम कर सको।" और चूँकि, ख्रीस्त के शब्द, उनके द्वारा उच्चरित क्षण के लिये ही नहीं हैं, मैंने शिष्यों को दिये प्रभु के इस निमंत्रण को मुझे दिया गया निमंत्रण माना और इस सुन्दर एवं प्रशान्त जगह पर कुछ विश्राम करने आया। धर्माध्यक्ष एगर, उनके सहयोगियों, सम्पूर्ण ब्रेसानोन नगर एवं प्रान्त के प्रति मैं शुक्रगुज़ार हूँ क्योंकि आपने मेरे लिये इस प्रशान्त स्थल को तैयार किया जहाँ मैं विगत दों सप्ताहों के दौरान विश्राम कर सका, ईश्वर पर एवं मानव पर चिन्तन कर सका तथा नव ऊर्जा प्राप्त कर सका। ईश्वर इसका श्रेय आपको दें। वैसे तो मुझे प्रत्येक को व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद देना चाहिये किन्तु मैं सरल सा एक तरीका अपना रहा हूँ – आप सबपर मैं प्रभु ईश्वर की आशीष की याचना करता हूँ, प्रभु आप में से प्रत्येक को उसके नाम से जानते हैं तथा उनका अनुग्रह हरएक का स्पर्श करेगा। हृदय की अतल गहराई से मैं यह याचना करता हूँ, और यही आप सबके लिये मेरा धन्यवाद ज्ञापन है।

सन्त पापा ने आगे कहाः......"इस रविवार के लिये निर्धारित सुसमाचार पाठ हमें विश्राम के इस स्थल से दैनिक जीवन की ओर ले जाता हैः यह सुसमाचार बताता है कि किस प्रकार, रोटियों के गुणन के बाद, प्रभु, पिता के साथ अकेले रहने के लिये, पर्वत पर जाते हैं। इस बीच, शिष्य झील पर रहते हैं तथा अपनी फटी पुरानी नाव में विपरीत दिशा में चलती वायु के बावजूद अपना सिर ऊँचा रखने का व्यर्थ प्रयास करते हैं। ऐसा सम्भव है कि सुसमाचार लेखक को उस समय यह उस युग की कलीसिया की छवि रूप में दिखा हो मानों उस काल की कलीसिया भी शिष्यों की जर्जर नाव के सदृश थी जो इतिहास से विपरीत दिशा में चलती वायु से संघर्ष कर रही थी मानों प्रभु ईश्वर ने उसे भुला दिया था। इसी प्रकार, हम भी अपने युग की कलीसिया की छवि तैयार कर सकते हैं जो धरती के अनेक भागों में विपरीत हवा के बावजूद आगे बढ़ने का प्रयास कर रही है और ऐसा प्रतीत होता है कि प्रभु उससे बहुत दूर हैं। परन्तु सुसमाचार हमें उत्तर, सान्तवना और साहस प्रदान करते हैं और साथ ही हमारा मार्गदर्शन करते हैं। वास्तव में सुसमाचार हमसे कहते हैं – जी हाँ, यह सच है, प्रभु ईश्वर आपके पास हैं और इसीलिये वे दूर, बहुत दूर नहीं हैं बल्कि हममें से प्रत्येक को देखते हैं, क्योंकि जो ईश्वर के पास है वह कभी दूर नहीं जाता अपितु सदैव पड़ोसी के पास रहता है। वस्तुतः ईश्वर की दृष्टि उनपर लगी रहती है तथा उचित क्षण में वे उनकी रक्षा करते हैं। जब प्रभु के निकट पहुँचने के लिये प्रयासरत पेत्रुस झील में डूबने के जोखिम में पड़ते हैं, प्रभु उनका हाथ थाम लेते हैं और उन्हें नाव पर लाकर उनकी रक्षा करते हैं। हमारी ओर भी निरन्तर प्रभु अपना हाथ बढ़ाते हैं – ऐसा वे रविवार के दिन करते हैं, किसी भव्य धर्म विधि के दौरान करते हैं, उनके प्रति अभिमुख हमारी हर प्रार्थना में वे ऐसा करते हैं, ईश वचन में वे ऐसा करते हैं ...... ऐसा वे हमारे दैनिक जीवन का अनगिनत परिस्थितियों में करते हैं – हमारी ओर वे अपना हाथ निरन्तर बढ़ाते रहते हैं। यदि हम प्रभु का हाथ थामेंगे, यदि हम उनके मार्गदर्शन में चलने को तैयार हो जायेंगे, तब, और तब ही हमारा मार्ग सीधा और सरल बन पायेगा। इस मनोरथ के लिये हम प्रार्थना करें ताकि सदैव उनका हाथ थाम सकें यानि उनसे मदद प्राप्त कर सकें, इसके साथ साथ इस प्रार्थना में यह आमंत्रण भी निहित है कि हम प्रभु के नाम पर अन्यों की मदद के लिये स्वयं अपना हाथ आगे बढ़ायें, उन लोगों के आगे जिन्हें हमारी ज़रूरत है ताकि उन्हें भी हम अपने इतिहास के संजीवन जल तक ले जा सकें।"

तदोपरान्त सन्त पापा ने कहाः ............"इन दिनों, प्रिय मित्रो, मैंने सिडनी में प्राप्त अनुभव पर भी मनन किया जहां मेरा साक्षात्कार विश्व के प्रत्येक भाग से वहाँ उपस्थित युवक युवतियों के हर्षित चेहरों से हुआ था। युवा ऑस्ट्रेलियाई देश के उस महानगर में वे युवा वास्तव में यथार्थ आनन्द का चिन्ह बने, कोलाहल से पूर्ण तथापि शान्तिपूर्ण एवं रचनात्मक। यद्यपि वे असंख्य थे तथापि उन्होनें व्यवस्था को कभी भंग नहीं किया और न ही महानगर को किसी तरह का नुकसान ही पहुँचाया। हर्षित या आनन्दमग्न होने के लिये उन्हें हिंसक तरीकों एवं शराब या मादक पदार्थों की शरण जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। उनमें एक दूसरे से मिलने का और एक साथ मिलकर एक नये विश्व की पुनर्खोज का आनन्द समाहित था। इन युवाओं की तुलना में इनके हमउम्र अन्य युवा भी हैं जो भ्रान्तियों में पड़कर मिथ्या सुख की खोज करते हैं तथा भ्रष्ट एवं विकृत नकारात्मक अनुभव पाते जिनका परिणाम प्रायः त्रासदिक होता है। यह, आज के कथित फलते फूलते वर्तमान समाज की विशेष उपज है जो ऊबाई से भरे, आन्तरिक खोखलेपन को दूर करने के लिये लोगों को नये, और अधिक उग्र एवं उत्तेजनापूर्ण अनुभवों को प्राप्त करने के लिये उकसाता है। अवकाश के दिनों में भी व्यर्थ की बातों में लगने तथा मिथ्या सुख की मरीचिका के पीछे भागने का ख़तरा बना रहता है। परन्तु इस प्रकार आत्मा कभी विश्राम नहीं पाती, हृदय आनन्द विभोर नहीं होता और शान्ति नहीं पाता है, अपितु, पहले से भी अधिक थका एवं दुःखी हो जाता है। मैंने आपके समक्ष युवाओं का सन्दर्भ दिया क्योंकि युवा जन ही जीवन एवं नवीन अनुभवों के अधिक प्यासे होते हैं और इसीलिये उन्हीं पर इस प्रकार का ख़तरा अधिक बना होता है। तथापि यह चिन्तन सब पर लागू होता हैः केवल ईश्वर के साथ सम्बन्ध रखकर ही मानव व्यक्ति नवजीवन प्राप्त कर सकता है, वह अपने अन्तरमन के मौन में रहकर उनकी आवाज़ को सुनता है तथा उनसे साक्षात्कार के लिये तैयार होता है।

अन्त में सन्त पापा ने कहाः............ "हम प्रार्थना करें ताकि निरन्तर भागते आज के समाज में, अवकाश के दिन यथार्थ पसार के दिन हों जिनके दौरान व्यक्ति मनन चिन्तन एवं प्रार्थना के लिये भी समय निकाल पाये जो स्वतः को एवं अन्यों को गहन रूप से पहचानने के लिये अपरिहार्य हैं। पवित्रतम कुँवारी मरियम, मौन एवं श्रवण की माता, की मध्यस्थता से हम इसके लिये आर्त याचना करें।" ....................

इस प्रार्थना के बाद सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने उपस्थित तीर्थयात्रियों के साथ देवदूत प्रार्थना का पाठ किया तथा सब पर प्रभु की शांति का आह्वान कर सबको अपना प्रेरितिक आर्शीवाद प्रदान किया --------------------------------------

 







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