2018-04-17 09:45:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय- स्तोत्र ग्रन्थ, भजन 95-96


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें।

"तुम्हारे पूर्वजों ने मुझे वहाँ चुनौती दी, मेरे कार्य देखकर भी उन्होंने मेरी परीक्षा ली। वह पीढ़ी मुझे चालीस वर्षों तक अप्रसन्न करती रही और मैंने कहा, उनका हृदय भटकता रहा है, वे मेरे मार्ग नहीं जानते"। तब मैंने क्रुद्ध होकर यह शपथ खायीः वे मेरे विश्राम स्थान में प्रवेश नहीं करेंगे।" श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 95 वें भजन के अन्तिम तीन पद। इन्हीं पदों की व्याख्या से हमने पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम का विगत प्रसारण समाप्त किया था। इन पदों में भी भजनकार मरीबा और मस्सा के लोगों के बारे में बताकर ईश्वर की वाणी को दुहराता है और हम सबसे आग्रह करता है कि हम विनती करते समय अपना हृदय उस प्रकार कठोर न करें जिस प्रकार मरुभूमि से गुज़रते लोगों ने किया था।

इस तथ्य के प्रति हमने आपका ध्यान आकर्षित कराया था कि मरीबा और मस्सा की मरूभूमि से गुज़रनेवाले लोग वही लोग थे जिन्हें मिस्र की दासता से छुड़ाकर प्रभु ने प्रतिज्ञात देश जाने का आदेश दिया था। वही लोग जिन्होंने प्रभु ईश्वर द्वारा मिस्र पर भेजी गयी आपत्तियों को यानि ईश्वर के चमत्कारों को देख लेने के बाद भी ईश्वर के अस्तित्व पर आशंका जताई थी। मिस्र की गुलामी से मुक्त इसराएली प्रजा चालीस वर्षों तक उजाड़ प्रदेश में भ्रमण करती रही थी, उस दौरान उन्हें अनगिनत कष्ट सहने पड़े थे किन्तु पग-पग पर प्रभु ईश्वर उनकी रक्षा करते रहे थे। हालांकि, ईश्वर के चमत्कारी कार्यों को देख लेने के बाद भी उनका विश्वास कमज़ोर रहा था और इसीलिये नबियों के मुख प्रभु ईश्वर को उन्हें चेतावनी देनी पड़ी थी। इसी विषय में 95 वें भजन में ईश्वर की वाणी को दुहराते हुए भजनकार कहता है, "वह पीढ़ी मुझे चालीस वर्षों तक अप्रसन्न करती रही और मैंने कहा, उनका हृदय भटकता रहा है, वे मेरे मार्ग नहीं जानते"। वास्तव में इस उपदेश का अभिप्राय यह कि यदि ईश्वर में हमारा विश्वास कमज़ोर है या फिर यदि हम ईश्वर के अस्तित्व पर ही शक करने लग जाते हैं तो हम कैसे उनके समक्ष मन्दिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में अथवा गिरजाघर में प्रवेश कर सकते हैं। यदि हम ईश्वर के मार्गों को नहीं जानते या नहीं जानना चाहते तो कैसे हम उनकी आराधना अथवा स्तुति का दावा कर सकते हैं? 95 वें भजन का रचयिता हमसे आग्रह करता है कि हम तन मन से प्रभु ईश्वर की शरण जायें और सच्चे हृदय से उनसे प्रार्थना करें। प्रार्थना करते समय केवल हमारी जिव्हा ही प्रार्थना नहीं करे अपितु हमारा मनो-मस्तिष्क एवं हमारी आत्मा उस प्रार्थना में लीन रहे। मन, हृदय और आत्मा से प्रार्थना का अर्थ प्रभु येसु ख्रीस्त हमें समझाते हैं। वस्तुतः, इसका अर्थ है भाई और पड़ोसी को क्षमा करना और सदैव पुनर्मिलन के लिये तत्पर रहना। सन्त मत्ती रचित सुसमाचार के पाँचवें अध्याय के 23 वें और 24 वें पदों में हम प्रभु येसु मसीह के शब्दों को इस प्रकार पढ़ते हैं, "जब तुम वेदी पर अपनी भेंट चढ़ा रहे हो और तुम्हें वहाँ याद आये कि मेरे भाई को मुझसे कोई शिकायत है, तो अपनी भेंट वहीं वेदी के सामने छोड़ कर पहले अपने भाई से मेल करने जाओ और तब आकर अपनी भेंट चढ़ाओ।"

अब आइये स्तोत्र ग्रन्थ के 96 वें भजन पर दृष्टिपात करें। इस भजन में प्रभु ईश्वर को राजा एवं न्यायकर्त्ता घोषित कर उनके आदर में गीत गाने का हमसे आग्रह किया गया है। इसके प्रथम चार पद इस प्रकार हैं, "प्रभु के आदर में नया गीत गाओ। समस्त पृथ्वी प्रभु का भजन सुनाओ, भजन गाते हुए प्रभु का नाम धन्य कहो। दिन-प्रतिदिन उसका मुक्ति विधान घोषित करो। सभी राष्ट्रों में उसकी महिमा का बखान करो। सभी लोगों को उसके अपूर्व कार्यों का गीत सुनाओ, क्योंकि प्रभु महान और अत्यन्त प्रशंसनीय है। वह सब देवताओं में परम श्रद्धेय है।"

श्रोताओ, ईश्वर, ईश्वर हैं जो सबकुछ को नया कर देते हैं, इसीलिये इसराएली प्रजा उन्हें पुकारने तथा उनके आदर में नया गीत गाने के लिये बाध्य हुई। बाईबिल धर्मग्रन्थ के नवीन व्यवस्थान के प्रकाशना ग्रन्थ के पाँचवे, 14 वें एवं 21 वें अध्यायों में भी ईश्वर के आदर में नये गीत गाने की चर्चा की गई है। वस्तुतः, ईश्वर के आदर में इसलिये नया गीत क्योंकि ईश्वर सृष्टिकर्त्ता हैं, उनका कार्य सृष्टि की रचना के बाद समाप्त नहीं हो गया अपितु अनवरत जारी रहा करता है। ईश्वर पृथ्वी को अनवरत नया करते रहते हैं। स्तोत्र ग्रन्थ का 96 वें वाँ भजन गुलामी की लम्बी अवधि के उपरान्त इसराएली प्रजा को दिये गये नवोदय, नवयुग, नये आरम्भ, नवीन अवसर की चर्चा करता है। इस नवीन युग का महोत्सव मनाने के लिये भजनकार सम्पूर्ण पृथ्वी से आग्रह करता है कि वह ईश्वर के आदर में नया गीत गाये और सभी राष्ट्रों के समक्ष उनके मुक्ति कार्यों की घोषणा करे। इसराएली प्रजा ने प्रभु के कार्यों को देखा, उनका अनुभव पाया किन्तु उनका विश्वास डगमगा गया। अब भजनकार चाहता है कि भूमण्डल का प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर के अपूर्व कार्यों को जाने और उनके आदर में नया गीत गाये, "क्योंकि प्रभु महान और अत्यन्त प्रशंसनीय है। वह सब देवताओं में परम श्रद्धेय है।"  

फिर, 96 वें भजन के अग्रिम तीन पदों यानि छठवें, सातवें एवं आठवें पदों में भजनकार कहता है, "अन्य राष्ट्रों के सब देवता निस्सार हैं, किन्तु प्रभु ने आकाश का निर्माण किया है। वह महिमामय और ऐश्वर्यशाली है। उसका मन्दिर वैभवपूर्ण और भव्य है। पृथ्वी के सभी राष्ट्रो! प्रभु की महिमा और सामर्थ्य का बखान करो।" श्रोताओ, स्तोत्र ग्रन्थ के 96 वें भजन के पाँचवे पद में भजनकार कहता है, "अन्य राष्ट्रों के सब देवता निस्सार हैं" यहाँ मनुष्य को ईश्वर के आदेशों का स्मरण  दिलाया गया है कि वह फूलों, वृक्षों अथवा पत्थरों की पूजा करने के बजाय अपने सृष्टिकर्त्ता ईश्वर की आराधना करे। वस्तुतः, उक्त शब्दों को हम प्राचीन व्यवस्थान में निहित पहले इतिहास ग्रन्थ के 16 वें अध्याय के 23 से लेकर 33 तक के पदों में भी पाते हैं। इतिहास ग्रन्थ में इस भजन का उपयोग मन्दिर में आराधना के सन्दर्भ किया गया है। इस भजन से स्पष्ट है कि सभी लोगों तक प्रभु ईश्वर के मुक्ति विधान की घोषणा की जानी चाहिये ताकि सभी लोग ईश्वर के कार्यों को जानें तथा उनकी स्तुति कर सकें। सच तो यह है कि स्तोत्र ग्रन्थ का 96 वें भजन एक मिशनरी भजन है जिसका लक्ष्य प्रभु की महिमा का बखान करने के लिये पृथ्वी के समस्त लोगों को प्रोत्साहन देना है। 








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