2018-04-10 10:21:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय- स्तोत्र ग्रन्थ, भजन 95 (भाग-2)


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें।

"वह पृथ्वी की गहराइयों को अपने हाथ से सम्भालता है, पर्वतों के शिखर उसी के हैं। समुद्र और पृथ्वी, जल और थल सब उसके बनाये हुए हैं और उसी के हैं। आओ! हम दण्डवत कर प्रभु की आराधना करें, अपने सृष्टिकर्त्ता के सामने घुटने टेकें; क्योंकि वही हमारा ईश्वर है और हम हैं - उसके चरागाह की प्रजा, उसकी अपनी भेड़ें।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 95 वें भजन के चार से लेकर आठ तक के पद। इन्हीं पदों की व्याख्या से हमने पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम का विगत प्रसारण समाप्त किया था। यह भजन एक इब्रानी गीत है जिसमें भक्तों को ईश्वर की आराधना के लिये आमंत्रित किया गया है। उक्त पदों में भजनकार ईश्वर के अद्भुत कार्यों का बखान करते हुए लोगों से उनके प्रति अभिमुख होने का आग्रह करता है। उसका कहना था कि हम केवल कुछ मांगने के लिये ही ईश्वर के समक्ष उपस्थित नहीं होवें बल्कि उनके चमत्कारी कार्यों के लिये उनकी आराधना और उनकी स्तुति करें इसलिये कि जल, थल, नभ, सागर और पर्वत सब के सब प्रभु ईश्वर की सृष्टि है। वे सबके सब प्रभु के ही हैं।

वस्तुतः भजनकार का अनुरोध है कि हम ईश्वर की वाणी के प्रति अपने हृदयों को कठोर न करे बल्कि विनम्रतापूर्वक उनकी आवाज़ सुने और उसी के अनुकूल जीवन यापन करे। आगे आठवें पद में कहता है, "ओह! यदि तुम आज उसकी यह वाणी सुनो, अपना हृदय कठोर न कर लो, जैसा कि पहले मरीबा में, जैसा कि मस्सा की मरूभूमि में हुआ था।" इन पदों में भजनकार ईश्वर को मेषपाल और मनुष्यों को उसके चरागाह की प्रजा कहकर पुकारता है, कहने का तात्पर्य यह कि ईश्वर ही हैं जो हमें सम्भालते हैं और हमारी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार मेषपाल अपनी भेड़ों की रक्षा करता है। वह कहता है कि हम मरीबा और मस्सा की मरूभूमि में जो हुआ था उसे नहीं दुहराये। मरूभूमि में लोगों ने ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया था। जब वहाँ पीने के लिये पानी नहीं मिला तब वे ईश्वर के विरुद्ध बड़बड़ाने लगे थे और ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्न कर बैठे थे। हम भी प्रार्थना करते हैं, ईश्वर से बहुत कुछ मांगते हैं किन्तु कई बार ऐसा भी होता है कि हमारी प्रार्थना अनसुनी रह जाती है और हम ईश्वर के विरुद्ध बड़बड़ाने लग जाते हैं, क्रुद्ध होते हैं कि हमने ईश्वर को पुकारा और उन्होंने हमारी नहीं सुनी। ऐसा हम इसलिये करते हैं क्योंकि हमारा विश्वास पक्का नहीं होता। हमारा विश्वास कमज़ोर होता है। सतत् प्रार्थना द्वारा हम ईश्वर में अपने विश्वास को सुदृढ़ करें, और जो कुछ भी हमारे जीने के लिये आवश्यक है, जिसकी हमें ज़रूरत है वह यों ही हमें मिल जायेगा।  

श्रोताओ, 95 वें भजन के नवें और दसवें पदों में भी भजनकार मरीबा और मस्सा के लोगों के बारे में बताता है। ईश्वर की वाणी को दुहराते हुए कहता है, "तुम्हारे पूर्वजों ने मुझे वहाँ चुनौती दी, मेरे कार्य देखकर भी उन्होंने मेरी परीक्षा ली। वह पीढ़ी मुझे चालीस वर्षों तक अप्रसन्न करती रही और मैंने कहा, उनका हृदय भटकता रहा है, वे मेरे मार्ग नहीं जानते"। तब मैंने क्रुद्ध होकर यह शपथ खायीः वे मेरे विश्राम स्थान में प्रवेश नहीं करेंगे।"

श्रोताओ, मरीबा और मस्सा की मरूभूमि से गुज़रनेवाले लोग वही लोग थे जिन्हें मिस्र की दासता से छुड़ाकर प्रभु ने प्रतिज्ञात देश जाने का आदेश दिया था। वही लोग जिन्होंने प्रभु ईश्वर द्वारा मिस्र पर भेजी गयी आपत्तियों को यानि ईश्वर के चमत्कारों को देख लेने के बाद भी ईश्वर के अस्तित्व पर आशंका जताई थी। ऐसे ही कृतघ्न लोगों के लिये ईश्वर को फटकार बतानी पड़ी थी। वस्तुतः, श्रोताओ, स्तोत्र ग्रन्थ के रचयिता ने इस भजन में प्राचीन व्यवस्थान के गणना ग्रन्थ में निहित प्रभु ईश्वर की वाणी का सन्दर्भ देकर उक्त बातें कही हैं। इस ग्रन्थ के 14 वें अध्याय के 33 वें और 34 वें पदों में इसराएली प्रजा के चालीस वर्षों तक उजाड़ प्रदेश में भ्रमण तथा उस दौरान प्रभु ईश्वर की चेतावनी के बारे में लिखा है, "तुम्हारे पुत्र चरवाहे होकर चालीस वर्ष तक उजाड़प्रदेश में मारे-मारे फिरेंगे और इस प्रकार तुम्हारे विश्वासघात का फल तब तक भुगतेंगे, जब तक तुम्हारे शरीर उजाड़-खण्ड में ढेर न हो जायें। तुम लोगों ने चालीस दिन तक उस देश का निरीक्षण किया। उनका हर दिन एक वर्ष गिना जायेगा। उसके अनुसार तुम्हें चालीस वर्ष तक अपने अपराधों का फल भुगतना पड़ेगा और तुम जान जाओगे कि मेरा विरोध करने का फल क्या होता है?"

श्रोताओ, इस उपदेश का अभिप्राय वास्तव में यह है कि यदि ईश्वर में हमारा विश्वास कमज़ोर है या फिर यदि हम ईश्वर के अस्तित्व पर ही शक करने लग जाते हैं तो हम कैसे उनके समक्ष मन्दिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में अथवा गिरजाघर में प्रवेश कर सकते हैं। यदि हम ईश्वर के मार्गों को नहीं जानते या नहीं जानना चाहते तो कैसे हम उनकी आराधना अथवा स्तुति का दावा कर सकते हैं? 95 वें भजन का रचयिता हमसे आग्रह करता है कि हम तन मन से प्रभु ईश्वर की शरण जायें और सच्चे हृदय से उनसे प्रार्थना करें। प्रार्थना करते समय केवल हमारी जिव्हा ही प्रार्थना नहीं करे अपितु हमारा मनो-मस्तिष्क एवं हमारी आत्मा उस प्रार्थना में लीन रहे। प्रश्न उठता है कि मन, हृदय और आत्मा से प्रार्थना का अर्थ है क्या? इसका अर्थ प्रभु येसु ख्रीस्त हमें समझाते हैं। येसु कहते हैं कि ईश्वर के प्राँगण में, या ईश्वर के राजदरबार में तुम तब तक प्रवेश नहीं कर सकते जब तक तुम अपने भाई और पड़ोसी को क्षमा नहीं कर दो, जब तक तुम उनसे प्रेम करना न सीख जाओ। सन्त मत्ती रचित सुसमाचार के पाँचवें अध्याय के 23 वें और 24 वें पदों में हम प्रभु येसु मसीह के शब्दों को इस प्रकार पढ़ते हैं, "जब तुम वेदी पर अपनी भेंट चढ़ा रहे हो और तुम्हें वहाँ याद आये कि मेरे भाई को मुझसे कोई शिकायत है, तो अपनी भेंट वहीं वेदी के सामने छोड़ कर पहले अपने भाई से मेल करने जाओ और तब आकर अपनी भेंट चढ़ाओ।"








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