2018-02-05 16:53:00

धर्माध्यक्षों को दलितों के अधिकारों और गरिमा के लिए खड़ा होना चाहिए: समाजिक कार्यकर्ता


बैंगलोर,  सोमवार 5 जनवरी 2018 (मैटर्स इंडिया ) : दो विद्वानों और समाजिक कार्यकर्ताओं ने भारतीय धर्माध्यक्षों से दलितों के अधिकार और गरिमा के लिए खड़ा होने का आग्रह किया।

3 फऱवरी को बैंगलोर में संत जॉन मेडिकल कॉलेज की सभागार में भारतीय काथलिक धर्माध्यक्षीय सम्मेलन (सीबीसीआई) की 33वीं आम सभा को फादर मरिया अरुल राजा (येसु समाजी) और सिस्टर उर्मिला (आईसीएम) ने संत मत्ती रचित सुसमाचार के वाक्य 'तुमने मेरे इन भाइयों में से किसी एक के लिए, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया वह तुमने मेरे लिए किया,' से प्रेरित विषयः दलितों के उत्थान हेतु भारतीय काथलिक कलीसिया' पर संबोधित किया।

सिस्टर उर्मिला ने कहा कि बाइबिल और काथलिक कलीसिया की सामाजिक शिक्षा के 'गरीबों के लिए विकल्प' के सिद्धांत के आधार पर, भारत में दलितों की मुक्ति और सशक्तिकरण हेतु काम करने की जिम्मेदारी भारतीय कलीसिया की है। वे 1988 से ही बिहार, तमिलनाडु और भारत के अन्य हिस्सों में हाशिये पर जीवन यापन करने वालों और दलितों के साथ काम कर रही है।

सिस्टर उर्मिला ने जोर देकर कहा कि भारत में दलितों की स्थिति खराब से बदतर होती जा रही है, क्योंकि उनका शोषण हो रहा है, उन्हें हाशिए पर रखा गया है और उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है। कलीसिया के एजेंडा में दलितों को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

फादर राजा ने अपने भाषण में इस बात को दोहराया कि दलितों को समाज और कलीसिया में अपने अधिकारों के सम्मान की पुष्टि के साथ सामाजिक समावेश की आवश्यकता है।

फादर राजा एक ईशशास्त्र के प्रोफेसर और विद्वान हैं। उनका कहना है कि दलितों का मुद्दा एक लंबा सफर तय किया है, लेकिन इस मुद्दे पर बहुत कुछ करना बाकी है। भारत में कलीसिया को दलितों के लिए निरंतर काम करना चाहिए।

दलित का अर्थ संस्कृत में "कुचला हुआ" है और भारत की बहुसंख्यक जाति व्यवस्था में अछूत के रूप में जाना जाता है। भारत के खीस्तीयों में कम से कम आधे अनुमानित 25 मिलियन खीस्तीय दलित मूल से हैं।

सरकार ने 1956 में हिंदू दलितों के लिए अपनी सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए मुफ्त शिक्षा और सरकारी नौकरियों में कोटा प्रदान किया था। हालांकि वैधानिक अधिकारों को बाद में बौद्ध और सिख दलितों के लिए बढ़ा दिया गया था, लेकिन ख्रीस्तीय दलितों के समान अधिकारों की मांग को भारत की सरकारों ने अस्वीकार कर दिया है।

दलित अक्सर हिंसा और उत्पीड़न का शिकार बनते हैं। 1950 के एक राष्ट्रपति के आदेश ने दलितों की उन्नति के लिए बनाये गये सरकारी लाभों, जैसे सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में कोटा को  इस आधार पर मना कर दिया गया कि ख्रीस्तीय धर्म और इस्लाम धर्म जाति व्यवस्था को नहीं मानते हैं।

सीबीसीआई बैठक में दलित मुद्दे पर चर्चा करने हेतु धर्माध्यक्षों द्वारा आमंत्रित किये गये भारतीय ख्रीस्तीय संध के महासचिव और भारत सरकार की राष्ट्रीय एकता परिषद के सदस्य जॉन दयाल ने मैटर्स इंडिया को बताया कि भारतीय धर्माध्यक्षों को दक्षिण एशिया में ब्राह्मणिक धर्म जाति दृष्टिकोण तथा "जाति और संवैधानिक परिवर्तन को समाप्त के लिए अभियान करने की आवश्यकता है।"

एक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता जॉन दयाल ने कहा कि धर्माध्यक्ष जो कलीसिया के नेता होने का दावा करते हैं, वे यह सुनिश्चित करें कि "पश्चिम और दक्षिण पूर्व के खीस्तीयों में कोई जाति नहीं है। धर्माध्यक्षों का मिशन दलित मुद्दों के प्रति मानव के रूप में समानता के लिए संघर्ष में उनकी प्रतिबद्धता के अनुरूप जनता के साथ रहना चाहिए।"

 पश्चिम बंगाल के जेसुइट समाज केंद्र ‘उदयानी’ के निदेशक इरुदया ज्योति  ने कहा, "सीबीसीआई में दलित नीति है भारत के हर धर्मप्रांत में इस नीति को लागू करने का प्रयास किया जाना चाहिए। कई धर्माध्यक्ष दलित मुद्दे को समझना और स्वीकार करना नहीं चाहते हैं क्योंकि अधिकांश धर्माध्यक्ष दलित परिवारों से नहीं हैं। इससे कलीसिया में गैर-दलित और दलित उत्पीड़न की प्रबलता का भी पता चलता है।"

उन्होंने कहा,"आज कलीसिया को हर स्तर पर दलित सशक्तिकरण को बढ़ावा देना चाहिए। दलित ख्रीस्तीयों को अनुसूचित जाति (एससी) सूची में शामिल करने की आवश्यकता है और अन्य अनुसूचित जातियों के समुदायों के समान उन्हें आरक्षण दिया जाना चाहिए, लेकिन यह हमें कलीसिया के हर क्षेत्र में शुरू करना होगा।"








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