2017-07-06 11:23:00

पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय स्तोत्र ग्रन्थ भजन (86 भाग-3)


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं।

स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। हम स्तोत्र ग्रंथ के छियासिवें भजन की व्याख्या में संलग्न हैं छियासिवां भजन राजा दाउद के द्वारा लिखी गई विपत्ति से उबरने हेतु प्रार्थना थी। दाऊद के हृदय से निकली जीवन के हताश और निराश घड़ी की उस प्रभु से प्रार्थना थी जिसे वह अच्छी तरह जानता था। राजा दाउद ने प्रभु से उसकी विनय सुनने और पूरा करने की गुहार लगाई थी।

 राजा दाऊद के इस विनय प्रार्थना में हम हमारे आध्यात्मिक जीवन में उठने वाले सवालों और उनके जवाब पाते हैं। वे सवाल हैं 1. हमें क्यों प्रार्थना करनी चाहिए। हमें प्रार्थना करनी चाहिए क्योंकि हमें प्रार्थना की बहुत आवश्यकता है।

2.हमें किससे प्रार्थना करनी चाहिए? विगत सप्ताह हमने इसी प्रश्न पर गौर किया था। हमें सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी दयालु, कृपावान, सबके रक्षक और प्रेमी ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए।

दाऊद ने प्रभु से अपनी रक्षा अर्थात अपनी आत्मा की रक्षा हेतु इस प्रकार प्रार्थना की। ″प्रभु, मेरी रक्षा कर, मैं तेरा भक्त हूँ।″ इसका अर्थ यह नहीं है कि ईश्वर में भक्ति के आधार पर दाऊद ईश्वर को अपनी रक्षा करने के लिए बाध्य कर सकता है। जैसा कि सामूएल के दूसरे ग्रंथ को अध्याय 11 और 12 में हम पाते हैं कि राजा दाउद ने अनेक पाप किये थे। व्याभिचार किया तथा हत्या तक कर डाली। (2 सामूएल 11-12) अपनी सेना के एक अधिकारी उरिया की पत्नी बतशेबा को हासिल करने के लिए उसने ऊरिया को युद्ध के जंग में मारवा डाला। इतना कुछ होते हुए भी दाऊद पाखंडी नहीं था बल्कि सचमुच में वह प्रभु के लिए प्रतिबद्ध था।  ईश्वर द्वारा प्रेषित नबी नाथान उसके कुकर्मों के प्रति एहसास दिलाया और दाऊद ने अपना पाप स्वीकार किया तथा पश्चाताप कर क्षमा की याचना की और वह प्रभु का भक्त बना रहा। श्रोताओ, हम भी कई तरह से पाप करते हैं लेकिन यदि हम ईश्वर से ईमानदारी पूर्वक क्षमा की याचना करते हैं तो वह निश्चय ही हमें क्षमा कर देता है। मुश्किल तब होती है जब हम भ्रष्ट हो जाते हैं क्योंकि ऐसे समय में हमें क्षमा की आवश्यकता का अनुभव ही नहीं होता। हमें ईश्वर की आवश्यकता महसूस नहीं होती। और ऐसे ही समय में भी ईश्वर हमारे पास नाथान जैसे नबी को हमारे जीवन में भेजता है और हमें पुनः अपने पास वापस ले आता है। पाप के पहाड़ भी प्रभु के प्रेम के सामने नगण्य हो जाते हैं, क्योंकि प्रभु दयालु और करुणामय ईश्वर है।

 अब तीसरे प्रश्न पर गौर करते हैं हमें कैसे प्रार्थना करनी चहिए?  भजन में हम पाते हैं कि हमें ईमानदारी से, लगातार, कृतज्ञतापूर्वक, नम्रता और विश्वास के साथ प्रार्थना करनी चाहिए।

ईमानदारी से प्रार्थना करना- ईश्वर के साथ दाऊद के करीबी रिश्ते को हम पूरे भजन में पाते हैं। जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं कि दाऊद ईश्वर को व्यक्तिगत रुप से और अच्छी तरह से जानता था इसलिए वह अपने दिल की हर बात को प्रभु के सामने प्रकट करने में स्वतंत्र महसूस करता था। दाऊद ने इस प्रार्थना को पूरी ईमानदारी के साथ की है। उसने प्रभु से प्रार्थना करने की आवश्यकता महसूस की थी। दाऊद को पता था कि अगर उसका प्रभु उसकी प्रार्थना का उत्तर नहीं देगा तब तो वह बर्बाद ही हो जाएगा। अतः वह प्रभु से सच्चे हृदय से अपने शत्रुओं के हाथों बचाने की अर्जी करता है।

 निरंतर प्रार्थना करना- दाउद कहता है, प्रभु तू ही मेरा ईश्वर है। मुझ पर दया कर। मैं दिन भर तुझे पुकारता हूँ। प्रार्थना की अति आवश्यक्ता के प्रति गहन जागरुकता उसे लगातार प्रार्थना करने के लिए प्रेरित करता है। थेसलनीकियों के पहले पत्र को अध्याय 5, पद संख्या 17 में संत पौलुस हमें बताते हैं, ″निरंतर प्रार्थना करते रहें।″  इसका यह मतलब नहीं कि हम अपना काम धाम छोड़कर, प्रार्थनालय में दिनभर बैठकर,बाईबिल हाथ में लिए non-stop बिना रुके लगातार प्रार्थना करते रहें, बल्कि जिस तरह सैन्य बल कुछ समय के अंतराल में हमलों को दुहराता है उसी प्रकार  बार-बार प्रार्थना के लिए प्रभु के पास वापस आना चाहिए।

कृतज्ञतापूर्वक या कहें धन्यवादी हृदय से प्रार्थना करना- इस छियासिवें भजन में दाऊद ने प्रभु को सिर्फ दो बार ईश्वर कह कर पुकारा है पहली बार जब वह पीड़ा में विलाप कर रहा था पद संख्या 3, प्रभु, तू ही मेरा ईश्वर है मुझपर दया कर। और दूसरी बार जब वह महिमा के गीत गाता है पद संख्या 12,  मेरे प्रभु ईश्वर, मैं सारे हृदय से तुझे धन्यवाद दूँगा, मैं सदा तेरे नाम की महिमा करुँगा। संत पौलुस भी निरंतर प्रार्थना करते रहें, कहने के तुरंत बाद कहते हैं, सब बातों में ईश्वर को धन्यवाद दें, क्योंकि ईसा मसीह के अनुसार आप लोगों के विषय में ईश्वर की ईच्छा यही है।(1थेसल. 5: 18) ईश्वर की ईच्छा है कि उसकी सर्वश्रेष्ट रचना मनुष्यजाति उसकी आराधना और हर बातों में धन्यवाद करे। मनुष्य तभी महिमा और धन्यवाद के गीत गा सकता है जब उसे इस बात का ज्ञान और आभास हो कि प्रभु ही उसका ईश्वर है उसका स्वामी, तो दिल की गहराई से वह अपने ईश्वर की महिमागान करते न थकेगा।  हम ईश्वर का दिल से धन्यवाद नहीं दे सकते, जब तक कि हम अपनी हर परिस्थिति में प्रभु की अधीनता स्वीकार नहीं करते और हम विश्वास करते हैं कि प्रभु हमारी भलाई के लिए ही हमारी परीक्षा भी लेते हैं। जिसतरह ईश्वर हमें अपना आशीर्वाद देते कभी नहीं थकते उसी तरह हमें भी उसके कृपादानों के लिए धन्यवाद देने से कभी नहीं थकना चाहिए।

दीनहीन, नम्रता के साथ प्रार्थना करना- दाऊद प्रभु के सामने विनम्र भाव से प्रार्थना करता है। वह इस तथ्य के आधार पर कि वह ईश्वर द्वारा चुना हुआ राजा है,  प्रभु से कभी भी बेहतर जीवन, शक्ति सामर्थ्य की मांग नहीं करता है। बल्कि वह प्रभु से इस तरह प्रार्थना करता है ″प्रभु, तू ही मेरा ईश्वर है मुझपर दया कर।″  पद 16 में हम पाते है कि दाउद ने अपने आप को प्रभु का दास तथा दासी का पुत्र कहा। दाऊद इस प्रकार प्रार्थना करता है, ″मेरी सुधि ले मुझपर दया कर। अपने दास को बल प्रदान कर, अपनी दासी के पुत्र को बचा।″  दाऊद का कहना है कि उसका परिवार उसकी माता शुरु से ही मालिक की दासी है दासी का जब पुत्र होता है तो वह जन्म से ही मालिक का दास बन जाता है मालिक का पूरा अधिकार उसपर रहता है अतः दास की देखभाल का भी पूरा उत्तरदायित्व मालिक पर रहता है। वह बहुत ही खुश है उसके लिए जीवन भर दास बनकर प्रभु की सेवा करने से सुखद बात और क्या हो सकती है। वह कहता है प्रभु मुझपर तो तेरा अधिकार जन्म से ही है अतः तेरा भी फर्ज बनता है कि अपने दास को बल प्रदान कर और उसकी सुधि ले।

दाऊद अपने पापों को याद करता है ऐसे पाप जो उसे अधोलोक में ले जाने के लिए काफी था पर दाउद ने पापों के दलदल में दीनता के साथ प्रभु को पुकारा उनसे बचाने के लिए अनुनय विनय की और प्रभु ने अपने दास की विनय प्रार्थना सुनी और उसे अधोलोक से उपर उठाया। प्रभु ने दाउद की आत्मा को बचाया।








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