2017-01-25 16:17:00

हम ईश्वर पर अपना विश्वास बनाये रखें


वाटिकन सिटी, बुधवार, 25 जनवरी 2017 (सेदोक) संत पापा फ्राँसिस ने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर संत पापा पौल षष्टम के सभागार में जमा हुए हज़ारों विश्वासियों और तीर्थयात्रियों को आशा पर अपनी धर्म शिक्षा को आगे बढ़ाते हुए कहा,

प्रिय भाइयो एवं बहनो

बाईबल का प्रचीन व्यवस्थान हमारे लिए कई साहसिक नारियों का जिक्र करता है उनके में से एक यूदीत जिसकी चर्चा हम आज करेंगे, अपने लोगों के लिए एक मिसाल है। धर्मग्रंथ बाईबल हमें उसके साहसिक कार्य के बारे में बतलाता है जिसे उन्होंने राजा नबूकदनेजोर के सिपाहियों के विरुद्ध किया जिसने अपने राज्य का विस्तार करते हुए निनावे को अपने अधिकार में कर लिया और लोगों को अपना गुलाम बनाया।

राजा नबूकदनेजोर के सेनापति होलोफेरनिस ने यूदा के बेतूलिया शहर को अपने अधिकार में कर लिया और जल की आपूर्ति पर रोक लगाते हुए जनता के विद्रोह को खत्म करने का प्रयास किया।

यह हमारे लिए एक नाटकीय स्थिति को प्रस्तुत करती है जहाँ जनता शहर के बुजुर्गों के पास आकर समर्पण हेतु निवेदन करते हैं। वे निरुत्साह स्वर में कहते हैं, “ऐसा कोई नहीं है जो हमारी सहायता कर सकता है क्योंकि ईश्वर ने हमें शत्रुओं के हाथों में दे दिया है, हम प्यास और विपत्ति के शिकार बन कर उसके सामने पड़े हुए हैं। अब होलीफेरनिस को बुला कर सारे नगर को उसकी सेना की लूट का शिकार होने दिया जाये।” (युदि.7.25-26) इन शब्दों में लोगों की निराशा और ईश्वर पर विश्वास करने की थकाना झलकती है।

निराशा की इस परिस्थिति में जनता के नेता ईश्वर पर आशा बनाये रखने हेतु निर्देश देते हैं। शहर के बुजुर्ग पाँच दिनों के अन्दर ईश्वरीय हस्तक्षेप की कामना करते हुए कहते हैं, “यदि इस अवधि में हमें सहायता प्राप्त नहीं होगी तो मैं तुम्हारा कहना मानूंगा।” (यूदि.7.31) ये पाँच दिन ईश्वर के बचाव पूर्ण कार्य हेतु निर्धारित किये गये और पाँच दिनों तक ईश्वर की चुनी हुई प्रजा आशा में बनी रही।

इस परिस्थिति में यूदीत, एक सुन्दर और विवेकी विधवा प्रकट होती है जो लोगों के साथ विश्वास की भाषा में वार्ता करती है। “तुम ईश्वर की परीक्षा लेना चाहते हो...नहीं, भाइयों, आप ईश्वर की परीक्षा न लें। यदि वे इन पाँच दिनों में हमारी सहायता नहीं करते हैं तो वह जितनी दिन चाहें, हमारी रक्षा करें अथवा हमारे शत्रुओं द्वारा हमारा विनाश करवाने में समर्थ हैं। इसलिए हम रक्षा हेतु धैर्यपूर्वक उसकी प्रतीक्षा करें और अपनी सहायता के लिए उन से प्रार्थना करें।”  (यूदि.8.13,14-15,17)

यूदीत एक नबी की भाँति ईश्वर में लोगों में आशा को जाग्रति करती है। वह लोगों से कहती है कि ईश्वर निश्चित रूप से अपने लोगों के लिए कार्य करेंगे लेकिन पाँच दिन की अवधि उनकी परीक्षा लेने और उनकी इच्छा से भागने के समान है। ईश्वर मुक्तिदाता है। वे हमें शत्रुओं से हाथों से मुक्त कर जीवन देते या हमें उनके हाथों में मृत्यु के द्वारा मुक्ति प्रदान करते, यह उनकी योजना है।

संत पापा ने कहा कि हमें ईश्वर के सामने कभी शर्त नहीं बल्कि अपने भय पर विजय होने हेतु उन पर आशा बनाये रखना चाहिए। ईश्वर पर आशा बनाये रखने का अर्थ बिना किसी चीज की माँग किये ईश्वर की योजना को अपने जीवन में स्वीकारना है। यह हमें इस बात हेतु खुला रखे कि उनकी मुक्ति हमारी सोच के विपरीत किसी भी रुप में आये हम उसे सहज स्वीकार करने को तैयार हो। हम ईश्वर से जीवन, स्वास्थ्य और खुशी की माँग करते हैं जो हमारे लिए उचित है लेकिन हमें यह भी अनुभव करने का जरूरत है कि वे हमारी मृत्यु में भी हमारे लिए जीवन लेकर आते हैं जैसे की हमारी बीमारी, आंसुओं और अकेलेपन में हमें उनकी शांति और सुख की अनुभूति होती है। हम ईश्वर को निर्देशित नहीं कर सकते हैं कि उन्हें हमारे लिए क्या करना चाहिए, नहीं। वे हमारी ज़रूरतों को जानते क्योंकि उनके सोच-विचार और करने के तरीके हम से भिन्न हैं।

यूदीत हमारे लिए विश्वास, शांति, प्रार्थना और आज्ञाकारिता के राह का वर्णन करती है। यह हमारे लिए आशा की राह है। वह हमें जीवन में अपने कार्यों को करते हुए ईश्वरीय योजना में आधारित रहने को कहती है। वह स्वयं प्रार्थना करती और लोगों से बातें करती तथा साहस पूर्व सेनापति के पास पहुँच उसका सिर, उसके गले को काट देती है। यह विश्वास में साहसिक कार्य है जो ईश्वर में बने रहने के द्वारा पूरा होता है। वह अपनी योजना को ईश्वर में विश्वास के साथ पूरा करती और लोगों के लिए विजय ले कर आती है।

इस तरह एक नारी पूर्ण विश्वास और साहस में लोगों के लिए नई शक्ति का कारण बनती है और हमें आशा में बने रहने हेतु प्रेरित करती है। संत पापा ने कहा कि हमने अपने जीवन में कितनी बार विवेक, साहस, नम्रता, नारियों का सम्मान जैसे बातों को सुना है जो हमारे लिए ईश्वर के द्वारा दिया गया ज्ञान है। हमारे नाना-नानियों की विवेक पूर्ण बातें कि हमें कैसे आशा के सही शब्दों को उच्चारित करना है क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में बहुत सारे दुःख, कठिनाइयों का सामना किया है, उन्हें जीवन का अनुभव है जहाँ वे अपने को ईश्वर के निकट लाते और ईश्वर उन्हें अपनी आशा से भर देते हैं। इस तरह हम येसु की प्रार्थना को अपने जीवन का अंग बनाते हैं, “हे पिता यदि हो सके तो यह प्याला मुझ से टल जाये लेकिन मेरी इच्छा नहीं बल्कि तेरी इच्छा पूरी हो।” (लूका. 22.42) क्योंकि यह विवेक, विश्वास और आशा की प्रार्थना है। 

इतना कहने के बाद संत पापा ने अपनी धर्म शिक्षा माला समाप्त की और सभी तीर्थयात्रियों और विश्वासियों का अभिवादन किया और उन्हें शुभकामनाएँ अर्पित करते हुए अपना प्रेरितिक आशीर्वाद दिया।








All the contents on this site are copyrighted ©.