2016-12-08 11:36:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय, स्तोत्र ग्रन्थ 78 वाँ भजन (भाग-07)


श्रोताओ, पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"यह सुनकर प्रभु क्रुद्ध हुआ – याकूब के विरुद्ध अग्नि धधकने लगी इस्राएल के विरुद्ध क्रोध भड़क उठा; क्योंकि वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे, उन्हें उनकी सहायता का भरोसा नहीं था।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 78 वें भजन के 21 वें एवं 22 वें पदों के शब्द जिनकी व्याख्या  हमने विगत सप्ताह पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत की थी। इन शब्दों में भजनकार ने अपने मन की व्यथा को व्यक्त किया है। वह व्यथित है, दुःखी है क्योंकि ईश प्रजा का खिताब पानेवाले इस्राएली लोग ईश्वर के कार्यों को भूल गये थे। भजनकार मानवीय दृष्टि से अपने मन की बात कहता है। उसका कहना था कि जिस तरह मनुष्य क्रुद्ध होता है उसी प्रकार ईश्वर भी क्रुद्ध होते हैं जबकि ऐसा नहीं है। ईश्वर कभी भी क्रोध नहीं करते। वस्तुतः भजनकार चाहता था कि लोग ईश्वर के महान कार्यों को देखें उनका अनुभव प्राप्त करें और उनके लिये ईश्वर की स्तुति करें, उनका गुणगान करें तथा उनके प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया करें।

आगे के पदों में भजनकार यह भी दर्शाता है कि इतनी अधिक कृतघ्नता के बाद भी ईश्वर ने मिस्र की गुलामी से छूटी इस्राएली जाति के लोगों के लिये भोजन का प्रबन्ध किया था। 23 से लेकर 29 तक के पदों में लिखा हैः "प्रभु ने आकाश के बादलों को आदेश दिया, उसने आकाश के द्वार खोल दिये, उसने उनके भोजन के लिये मन्ना बरसाया और उन्हें स्वर्ग की रोटी दी। हर एक ने स्वर्गदूतों की रोटी खायी; प्रभु ने उन्हें भरपूर भोजन दिया। उसने आकाश में पुरवाई चलायी; उसने अपने सामर्थ्य द्वारा दक्खिनी हवा बहायी। उसने उनके लिये धूल की तरह भरपूर मांस और समुद्र के बालू की तरह असंख्य पक्षियों को बरसाया। उसने उनको उनके शिविरों के बीचोंबीच और उनके तम्बुओं के चारों ओर गिराया। वे खाकर तृप्त हो गये, ईश्वर ने उन्हें उनकी रुचि का भोजन दिया था।"  

श्रोताओ, यहाँ मन्ना, स्वर्ग की रोटी, धूल की तरह भरपूर मांस और समुद्र के बालू की तरह पक्षियों का बरसना आदि अभिव्यक्तियाँ दृष्टान्तिक भाषा शैली है। पहले ही हमने आपको बता दिया था कि 78 वें भजन का रचयिता दृष्टान्तों में या उदाहरण दे-देकर शिक्षा प्रदान कर रहा था। प्रभु ईश्वर ने उन्हें रोटी खिलाई और वे खाकर तृप्त हुए किन्तु इन प्रकाशनाओं के बावजूद वे अन्धे बने रहे और प्रभु के प्रेम को नहीं समझ पाये क्योंकि, 22 वें पद के अनुसार, "वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे, उन्हें उनकी सहायता का भरोसा नहीं था।"

श्रोताओ, प्राचीन व्यवस्थान के निर्गमन ग्रन्थ में लिखे शब्दों से हमें ज्ञात होता है कि प्रतिज्ञात देश की ओर बढ़ती इस्राएली जाति को प्रभु ईश्वर ने आदेश दिया था कि वह केवल एक ईश्वर की आराधना करें और उनके सिवा किसी की पूजा न करें किन्तु इस्राएलियों ने ठीक इसके विपरीत किया। उन्होंने इस आदेश का उल्लंघन किया। निर्गमन ग्रन्थ के 23 वें अध्याय के 24 वें पद में हम प्रभु ईश्वर के शब्दों को इस तरह पढ़ते हैं: "तु म न तो देवी देवताओं की वन्दना करोगे और न उनके कार्यों का अनुसरण करोगे..." जबकि इस्राएलियों ने इसके विपरीत कार्य किया। उन्होंने सोने का बछड़ा बनाया और उसकी पूजा की, इस विषय में निर्गमन गन्थ के 32 वें अध्याय के पहले पद में लिखा हैः "इधर जब लोगों ने देखा कि मूसा पर्वत पर से उतरने में विलम्ब कर रहा है, तब वे हारून का विरोध करने के लिये एकत्र हो गये और उनसे कहने लगे, "अब हमारे लिये ऐसे देवता बनाओ, जो हमारे पथ प्रदर्शक हों..." और उन्होंने मिलकर सोने का बछड़ा बनाया और नाच गान के साथ उसकी पूजा की।"

स्तोत्र ग्रन्थ के 78 वें भजन के आगे के पदों में यानि 30 से लेकर 32 तक के पदों में इसी स्थिति पर दुःख व्यक्त करते हुए भजनकार कहता हैः "वे अपनी लालसा को शान्त नहीं कर पाये थे, उनका भोजन अभी उनके मुँह में ही था कि ईश्वर का क्रोध उनपर भड़क उठा। उसने उनके शूरवीरों को मारा, उसने इस्राएल के युवकों को भूमि पर बिछा डाला। यह सब होने पर भी वे पाप करते रहे, उन्हें ईश्वर के चमत्कारों पर विश्वास नहीं था।"

श्रोताओ, इन पदों द्वारा भजनकार ने कहाना चाहा है कि मुसीबतें आने पर मनुष्य ईश्वर की ओर अभिमुख होता है, उनसे दुआ करता है किन्तु प्रार्थना करना तो दूर इस्राएली लोग अपने संकटों के लिये ईश्वर को ही ज़िम्मेदार मानते रहे और उनके नियमों की अवहेलना करते रहे। सिनई पर्वत से निकलनेवाली धधकती अग्नि को उन्होंने ईश्वर के प्रेम की ज्वाला समझने के बजाय विनाशकारी आग समझा। उक्त पदों के, "ईश्वर का क्रोध उनपर भड़क उठा। उसने उनके शूरवीरों को मारा, उसने इस्राएल के युवकों को भूमि पर बिछा डाला" आदि अभिव्यक्तियों में भले ही भजनकार कहता है कि ईश्वर का क्रोध उनपर भड़का और उन्होंने उनके शूरवीरों को मारा, तथापि, इन शब्दों से  पता चलता है कि प्रतिज्ञात देश की ओर यात्रा ख़तरों से खाली नहीं थी। लोगों को उजाड़ प्रदेशों से बिना जल और बग़ैर भोजन के आगे बढ़ते रहना पड़ा। उन्हें जंगली जानवरों एवं ज़हरीले सर्पों का सामना करना पड़ा और इसी के दौरान कई शूरवीरों की मौत भी हो गई। इसी सन्दर्भ में भजनकार कहता है कि ईश्वर ने उनके शूरवीरों को मारा। ईश्वर को ही वे अपने संकटों के लिये ज़िम्मेदार ठहराते रहे क्योंकि ऐसा करना उन्हें सरल लगा और इसीलिये उनका विश्वास डाँवाडोल हुआ।       

श्रोताओ, किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अपने पथ से हट जाना या भटक जाना विश्वास की कमी का परिणाम है। विश्वास और भरोसे के अभाव में ही मनुष्य वह करता है जो उसे नहीं करना चाहिये। क्षण भर के लिये उसे प्रतीत होता है कि जो कुछ वह कर रहा होता है वही उचित है क्योंकि सरल भी है किन्तु क्या वह कार्य सही है? भलाई करना या सत्मार्ग पर चलना सदैव कठिन रहा है, यह मार्ग सदा से ही टेड़ा रहा है, इस पर मानों सदैव काँटें बिछे रहते हैं किन्तु यही मार्ग सही है, यही है वह मार्ग जिसका निर्माण सत्य यानि ईश्वर की ठोस एवं सुदृढ़ नींव पर होता है।








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