2016-10-06 11:55:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय, 77 वाँ भजन भाग दो


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"मैं ऊँचे स्वर से ईश्वर को पुकारता हूँ। वह मेरी सुनेगा। अपने संकट के दिन में मैं प्रभु को खोजता हूँ। दिन-रात बिना थके उसके आगे हाथ पसारता हूँ। मेरी आत्मा सान्तवना अस्वीकार करती है। मैं ईश्वर को याद करते हुए विलाप करता हूँ। मनन करते–करते मेरी आत्मा शिथिल हो जाती है। तू मेरी आँख लगने नहीं देता। मैं व्याकुल हूँ और नहीं जानता कि क्या कहूँ।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 77 वें भजन के प्रथम पाँच पद जिनकी व्याख्या हमने विगत सप्ताह पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत आरम्भ की थी। 77 वाँ भजन इस्राएल के इतिहास पर विचार करता तथा हमें प्रार्थना करना सिखाता है। भजन के इन शब्दों में हम संकट में पड़े मानव मन की व्यथा को पाते हैं। मनुष्य का संकट जब गहरा जाता है तब वह ईश्वर को ऊँचे स्वर में पुकारने लगता है। श्रोताओ, ऊँचे स्वर में हम तब ही पुकारने या चिल्लाने लगते हैं जब हमें और कोई रास्ता नहीं सूझता। इससे स्पष्ट है कि 77 वें भजन के प्रार्थी को भी कोई और रास्ता नहीं सूझा। उसके लिये एकमात्र रास्ता था ईश्वर को पुकारने का और उनमें अपने विश्वास को सुदृढ़ करते हुए ईश्वर के आगे हाथ पसारने का।

77 वें भजन के उक्त शब्दों से स्पष्ट पता चलता है कि ईश्वर को पुकारनेवाला व्याकुल हो उठा था और अपनी व्याकुलता में उसे यह नहीं मालूम पड़ रहा था कि वह क्या कहे। श्रोताओ, प्रायः ऐसा हमारे साथ भी होता है। संकट की घड़ियों में हम ईश्वर के समक्ष खड़े तो हो जाते हैं किन्तु हमें यह नहीं मालूम होता कि हम क्या कहें। अपनी व्यथा के बारे में ईश्वर से क्या कहें, उनसे क्या मांगें? इस प्रकार हम देखते हैं कि स्तोत्र ग्रन्थ का 77 वाँ भजन एक अकेले और साधारण व्यक्ति की प्रार्थना है। सृष्टिकर्त्ता में अपने विश्वास के कारण ही आपत्ति आने पर वह ईश्वर को पुकारता है। वह ईश्वर द्वारा आदि मानव से की गई प्रतिज्ञा को याद करता और अपनी रक्षा की आशा करता है। जीवन में यत्र-तत्र शांति और सुरक्षा ढूँढ़ने के बाद उसकी समझ में आ जाता है कि ईश्वर का नाम लेकर, उनसे प्रार्थना कर ही वह शांति और सुरक्षा में जीवन यापन कर सकता था।  

श्रोताओ, विगत सप्ताह बाईबिल पंडितों का हवाला देकर हमने इस तथ्य की ओर आपका ध्यान आकर्षित कराया था कि 77 वें भजन के प्रार्थी ने उस समय ईश्वर को पुकारा होगा जब उसे अन्य इस्राएलियों के संग-संग वर्ष 587 ई. पूर्व. बाबुल निष्कासित कर दिया गया था। परिणामस्वरूप, उसे खो जाने, अपने घर-परिवार और जीवन यापन के साधनों को खो देने और स्वयं ईश्वर को खो देने का कटु अनुभव प्राप्त हुआ था। वह केवल सान्तवना से सन्तुष्ट नहीं होता है और चाहता है कि प्रभु उसे तुरन्त संकट से बाहर निकाले। इसीलिये आगे 77 वें भजन के छठवें, सातवें और आठवें पदों में कहता है, "मैं अतीत के दिनों पर, बहुत पहले बीते वर्षों पर विचार करता हूँ।" रात को मुझे अपना भजन याद आता है। मेरा हृदय इस पर विचार करता है और मेरी आत्मा यह पूछती हैः "क्या प्रभु सदा के लिये त्यागता है?"

77 वें भजन का प्रार्थी उन बीते वर्षों की याद करता है जब प्रभु ईश्वर ने इस्राएल का उद्धार किया था तथा उसे दमनकारी मिस्रियों के हाथों से छुड़ाया था। वह जैरूसालेम में व्यतीत अपने अच्छे दिनों की याद करता है और निष्कासित जीवन पर विलाप कर मानों अपनी स्थिति के लिये ईश्वर को ही दोषी ठहराता है। उसे लगता है कि वह अपने शहर और अपने देश से ही निष्कासित नहीं किया जा रहा था अपितु ईश्वर से भी दूर किया जा रहा था। प्रश्न करता हैः "क्या प्रभु सदा के लिये त्यागता है?" उसे विश्वास नहीं होता कि प्रभु ईश्वर भक्त का कभी परित्याग भी कर सकते हैं। इस बात को स्वीकार करने के लिये वह तैयार नहीं है क्योंकि जैसा कि 73 वें भजन में हमने पढ़ा, प्रभु ईश्वर नबी मूसा के द्वारा अपनी प्रजा से स्वयं कहते हैं "मैं तुम्हारे साथ हूँ।" उसके मन में यह प्रश्न बारम्बार उठता है कि क्या प्रभु ईश्वर नबी मूसा और उसके लोगों से की गई संधि को भूल गये हैं? क्या उन्होंने अपने असीम प्यार के प्रण को वापस ले लिया है? वह मन ही मन प्रश्न करता है कि क्या ईश्वर, इसायाह के ग्रन्थ के 49 वें अध्याय के 15 वें पद में निहित अपने मातृ सुलभ प्रेम को भूल गये थे? जिसमें लिखा हैः "क्या स्त्री अपना दुधमुँहा बच्चा भुला सकती है? क्या वह अपनी गोद के पुत्र पर तरस नहीं खायेगी? यदि वह भुला भी दे तो भी मैं तुम्हें नहीं भुलाऊँगा।"

आगे नौ से लेकर 11 तक के पदों में भी इसी प्रकार के सवालों के माध्यम से भजनकार मनुष्यों को प्रभु के अपूर्व कार्यों का स्मरण दिलाता है, कहता हैः "क्या उसकी सत्यप्रतिज्ञता लुप्त हो गयी है? क्या उसकी वाणी युगों तक मौन रहेगी? क्या प्रभु दया करना भूल गया है? क्या उसने क्रुद्ध होकर अपना हृदय द्वार बन्द किया है? मैं कहता हूँ, "मेरी यन्त्रणा का कारण यह है कि सर्वोच्च प्रभु ने अपना दाहिना हाथ खींच लिया।"  

श्रोताओ, 77 वें भजन के उक्त पदों के शब्दों में भजनकार इस तथ्य को महसूस करता है कि जो कुछ वह प्रार्थना में कह रहा था वह उसके आत्मविचार नहीं थे बल्कि प्रभु ईश्वर की प्रेरणा से प्रेरित होकर ही वह प्रार्थना कर पा रहा था। अस्तु, हम भी जब प्रार्थना करते हैं तब यह न सोचें कि जो कुछ हम बोल रहे हैं, जो विचार हमारे मन में उठ रहे हैं वे हमारी अपनी बुद्धि की उपज है अपितु यह स्वीकार करें कि प्रभु ईश्वर की प्रेरणा के बग़ैर हम प्रार्थना करने में सक्षम नहीं हो सकते। प्रभु ईश्वर के महान कार्यों को दृष्टिगोचर कर लेने के बाद, उनके अनुपम कार्यों के आनन्द को महसूस कर लेने के बाद ही प्रार्थना में हम इस प्रकार के शब्दों का उच्चार कर सकते हैं। यह सदैव याद रखें कि यदि हमारे मन से इस प्रकार की प्रार्थना उठती है तो हमारा मनपरिवर्तन हुआ है और मनपरिवर्तन के फलस्वरूप ही हम यह जानने का विवेक पा सके कि जिस सृष्टिकर्त्ता प्रभु ईश्वर ने हमें रचा, वे ही हमारे संरक्षक और हमारे उद्धारकर्त्ता हैं इसीलिये हम उनसे ही प्रार्थना किया करें तथा संकट के क्षणों में उन्हीं को ऊँचे स्वर से पुकारें।








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