2016-10-03 15:49:00

संत पापा फाँसिस द्वारा शांति और एकता का आहृवान


वाटिकन रेडियो, सोमवार, 3 अक्तूबर 2016(सेदोक) संत पापा फ्राँसिस ने जोर्जिया और अजरबैजान की प्रेरितिक यात्रा के तीसरे और अंतिम दिन बाकू के हैदर अलीयेव मस्जिद में अन्तरधार्मिक मिलन के दौरान विभिन्न संप्रदाय के नेताओं से मुलाकात की और उन्हें संबोधित किया।  

संत पापा ने कहा कि हमारा एक साथ मिलना ईश्वर की कृपा है। मैं काकेशस के मुसलमानों की परिषद के अध्यक्ष का उनके आतिथ्य सत्कार हेतु धन्यवाद अदा करता हूँ। मैं रूस के स्थानीय आर्थोडोक्स कलीसिया के नेता और यहूदी समुदाय के नेताओं का भी शुक्रगुजार हूँ। हमारा एक दूसरे से इस प्रार्थना स्थल में मिलना भ्रातृत्व की एक शक्तिशाली निशानी है। मैं स्थानीय काथलीक आर्थोडोक्स समुदाय के साथ प्रेमपूर्ण संबंध जो हम सभों के लिए एक उदाहरण है साथ ही यहूदी समुदाय के साथ मित्रता भावना की भी सराहना करता हूँ।

यदि हम व्यक्तिगत संबंधों और जो धर्मों के प्रति उत्तरदायी हैं उसकी ख्याति का ख्याल रखते तो धर्म हमें एक साथ संयुक्त कर सकता है। इस सौहार्दपूर्ण संबंध का अनुभव पूरे अजरबैजान में किया जा सकता है जो कि एक विशिष्ट देश है जो अपने अतिथि सेवा और उपहारों द्वारा अपने को अनूठा बनाता है जिसका अनुभव मैंने किया है। संत पापा ने कहा कि मैं आप सबों के प्रति सचमुच अति कृतज्ञ हूँ। यहाँ धर्म की अस्मिता को बचाने की एक अद्भुत चाह है यद्यपि यहाँ एक गहरा और फलदायक खुलापन भी है। उदाहरण स्वरूप काथलीक कलीसिया यहाँ अपने में एक स्थान पाती है जहाँ वह दूसरे धर्मों के साथ अपनी एकता में निवास करती है जो कि जनसंख्या की दृष्टि कोण से बड़े हैं। यह एक ठोस उदाहरण है जहाँ हम विरोध नहीं वरन सहयोग की भावना को देखते हैं जो एक अच्छे और शांतिमय समाज के निर्माण में सहायक है। हमारा एक साथ यहाँ होना हमारी एकता की निरंतरता, अन्तरधार्मिक वार्ता और बहु-संस्कृति को बढ़ावा देने की बात बयाँ करती है। दूसरों के स्वागर्ताथ और आपसी समन्वयन हेतु अपने द्वारों को खोलना अपने हृदय को आशा में सबों के लिए खोलने की निशानी है। मैं विश्वास करता हूँ यह देश “जो पूर्व और पश्चिम का द्वार है” अपने को शांति व्यवस्था और मानवता के समुचित विकास हेतु सदैव खुला रखेगा।

हम जो अपने में भ्रातृत्व की भावना को कायम रखने की चाह रखते हैं उनके लिए अप्रशंसनीय  होंगे जो हमारे बीच विभाजन, तनाव लाने की चाह रखते हैं क्योंकि वे इसके द्वारा अपने स्वार्थ सिद्धि की कमाना करते हैं। इसके विपरीत भाईचारा और अपनी समझौता की चाह वे रखते हैं जो सभों की भलाई चाहते और उससे भी बढ़कर ईश्वर को जो करुणामय और दयालु हैं उन्हें प्रेम करते हैं क्योंकि वह अपने पुत्र-पुत्रियों को एक मानव परिवार की तरह शांति, एकता और सदैव वार्ता में बने रहने का आहृवान करते हैं। इस देश के एक महान कवि ने लिखा है, “यदि आप मनुष्य हैं तो मनुष्यों से मिले क्योंकि मनुष्य एक दूसरे के साथ मेल मिलाप में रहते हैं।” अपने को एक दूसरे के लिए खोलना हमें निर्धन नहीं वरन् धनी बनाता है क्योंकि यह हमें और अधिक मानवीय बनने में सहायता करता है। इस तरह हम अपने को एक दूसरे के लिए एक उपहार-सा देते और मानवता के विकास हेतु कार्य करते हैं।

धर्म का एक बृहद कार्य है, उसे स्त्री और पुरुषों को जीवन का मर्म समझने में मदद करना है। उन्हें यह समझने में मदद करना है कि उनकी क्षमाताएँ सीमित हैं और चीज़ें ईश्वर का स्थान नहीं ले सकती हैं। कवि निजामी के वचनों को उद्धत करते हुए संत पापा ने कहा, “आप अपनी शक्ति पर इतना विश्वास न करें की स्वर्ग में आप को आराम करने की जगह न मिले। इस दुनिया के फल अनश्वर नहीं हैं, आप उसकी पूजा न करे जो नश्वर है।” धर्म का लक्ष्य मानव को इस तथ्य को समझाने में मदद करना है कि प्रत्येक व्यक्ति का केन्द्र बिन्दु अपने से बाहर है हमारा जीवन सर्वशक्तिमान ईश्वर और अपने पड़ोसियों में उन्मुख है। इस तरह मानव जीवन का लक्ष्य पूर्ण प्रेम की प्राप्ति है क्योंकि कवि कहते हैं “यह प्रेम है जो कभी नहीं बदलता जो कभी खत्म नहीं होता है।”

मानवता यदि अपनी लक्ष्य तक पहुँचना चाहता तो उसके धर्म की आवश्यकता है। धर्म हमें अच्छाई की ओर अग्रसर करता और बुराई से दूर रखता है जो हमेशा एक व्यक्ति के दिल के दरवाजे में छिपा हुआ है। धर्म का कार्य हमें शिक्षा देना है जिससे हम उत्तम काम कर सके। हमारा सबों का एक बड़ा दायित्व है कि हम अपने भाई-बहनों को सही रास्ता दिखलायें जो दुनिया की दुविधा भरे भांवर जाल में पड़े हुए हैं। आज हम बहुत में ऐसे लोगों को देखते हैं जो किसी पर विश्वास नहीं करते लेकिन अपनी ही सुविधाजनक जिन्दगी और लाभ में खोये हुए हैं क्योंकि वे इस कथन के आदी हो गये हैं, “यदि ईश्वर नहीं हैं तो सारी चीजें जायज हैं।” दूसरी ओर हम कट्टरवाद को बढ़ता हुआ देखते हैं जहाँ लोग अपने हिंसक शब्दों और कर्मों के द्वारा अपने कट्टर विचारों अपने मनोभावों को दूसरों पर थोपने में लगे हैं।

धर्म इसके विपरीत हमें अच्छाई को पहचानने और इसे अपने जीवन के कामों, प्रार्थनाओं और अपने व्यक्तिगत जीवन में लागू करने में मदद करता है जिससे हम शांतिमय और आपसी मिलन की संस्कृति को स्थापित कर सके क्योंकि इसके द्वारा धैर्य, समझ और नम्रता जैसे गुणों का विकास होता है। इनके द्वारा मानवीय समाज की सेवा उचित रुप में होती है। समाज को धार्मिक तत्वों के लाभ से बचने की जरूर है। धर्म को कभी भी लड़ाई-झगड़े और आपसी असहमति का अंग नहीं होना चाहिए।

संत पापा ने अजरबैजान की कलात्मक खिड़की का उल्लेख करते हुए कहा कि मैं इस देश के एक अति प्रिय कलाकृति की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा जो कि खिड़की और रंगीन काँच (शेबेके) है। उन्होंने कहा कि परम पारंगत विधि में बने इस कलाकृति में कील और गोंद का उपयोग नहीं किया गया है वरन लकड़ी और काँच को एक दूसरे के बीच डाला गया है जो कि मेहनत, समय लेने वाला और सावधानी पूर्ण कार्य है। इस प्रकार लकड़ी काँच को सहारा प्रदान करती है और कांच के द्वारा रोशनी प्रवेश करती है। संत पापा ने कहा ठीक उसी तरह समाज को धर्म की सहायता करनी है जो जीवन जीने हेतु प्रकाश को हमारे अन्दर प्रवेश करने देता है। इसके लिए हमें प्रभावकारी और सच्ची स्वतंत्रता की जरूरत है। अप्राकृतिक गोंद का उपयोग नहीं किया जा सकता है जो लोगों को विश्वास करने में विवश करता और उन्हें चुनाव करने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करता है, न ही मानव को कोई वाह्य ताकत और पैसा रूपी कील की जरूरत है। ईश्वर व्यक्तिगत स्वार्थ और अपने इच्छा की पूर्ति हेतु उपयोग नहीं किये जा सकते। हम उनका उपयोग किसी भी तरह के कट्टरवाद, साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद को प्रमाणित करने हेतु नहीं कर सकते हैं। इस पवित्र प्रतीकात्मक स्थल से, हृदय की गहराई से एक आवाज उठती है कि ईश्वर के नाम पर और कोई हिंसा न हो। हमें उनके नाम की महिमा करनी है न की उनके नाम को मानवीय घृणा और विरोध द्वारा नापाक करना है।

हम दैवीय करुणा को जिसे ईश्वर ने हमें दिया है अपने परिश्रमी प्रार्थना और सच्ची वार्ता द्वारा “दुनिया में आवश्यक शांति की स्थिति हेतु तैयार करें”, जो हम सबों का कर्तव्य है। प्रार्थना और कर्म एक दूसरे से जुड़े हैं जो हमारे खुले हृदयों से प्रवाहित होते और दूसरों को प्रेरित करते हुए उन्हें धनी बनाते हैं। कथलीक कलीसिया द्वितीय महासभा में अपने पुत्र-पुत्रियों का आहृवान करते हुए कहती है कि वे दूसरे सम्प्रदाय के विश्वासियों के साथ आपसी वार्ता और सहयोग की भावना रखते हुए अपने विश्वास और जीवन के द्वारा ईश्वर के प्रेम का साक्ष्य दें जिससे आध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गुणों तथा मूल्यों का विस्तार हो सके। हम प्रेम और क्षमा के द्वारा एक दूसरे को स्वीकार करें जिससे हम शांति के प्रवर्तक बन सकें।

एक सच्ची शांति आपसी सम्मान, मिलन और अपने जीवन को एक दूसरे के साथ साझा करने में निहित है। आज हमारे सामने यह चुनौती है कि हम हिंसा का त्याग कर, एक दूसरों को क्षमा प्रदान करते हुए धैर्यपूर्वक तथा एक साथ मिलकर दुनिया में शांति की स्थापना हेतु कार्य करें। आज हमारे समक्ष यह सवाल है कि हम अपने आने वाली पीढ़ी हेतु कैसे एक अच्छी दुनिया छोड़ सकते हैं जिसे ईश्वर ने हमें दिया है। ईश्वर हम से यही सवाल करेंगे, हमारी आने वाली पीढ़ी हमसे यही सवाल करेगी कि हमने शांति व्यवस्था हेतु अपनी ओर से कितनी मेहनत की है।

संत पापा ने कहा कि युद्ध के इस समय में हमारे धर्म शांति की एक सुबह, वार्ता, मेल-मिलाप और आपसी मिलन के बीज बने जहाँ अधिकारिक मध्यस्थता धूमिल होती नजर आती है। काकेशस के इस विशेष स्थल पर जहाँ की तीर्थयात्रा मेरी एक तीव्र अभिलाषा थी और जहाँ मैं शांति के तीर्थ की तरह आया, हमारे धर्म बीते दिनों के घटनाओं और तनावों को दूर करने हेतु एक क्रियाशील माध्यम बने। इस देश के चिरस्थायी मूल्य, गुण, विवेक, संस्कृति और धर्म जो विश्व और विशेष कर यूरोपीय संस्कृति हेतु उदाहरण है जिसका परित्याग हम कभी नहीं कर सकते हैं। 








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