वॉशिंगटन, सोमवार, 12 सितम्बर 2016 (सीएनए): वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुई आतंकी हमलों की15वीं वर्षगाँठ पर विशेषज्ञों ने कहा है कि मध्यपूर्व के ख्रीस्तीयों को, अमरीका में 11 सितम्बर के बाद की विदेश नीति के अनपेक्षित परिणाम से किस तरह नुकसान उठाना पड़ा है उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
अमरीका के काथलिक विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के प्राचार्य मेरियन्न कुसिमनो ने कहा, ″अमरीका के काथलिक धर्माध्यक्षों ने 11 सितम्बर के हमले के बाद अपने वक्तव्य में स्पष्ट किया था कि प्रत्युत्तर वह होना चाहिए जो सभी के लिए शांति ला सके न कि केवल अमरीका के शहरों में सुरक्षा।″
उन्होंने सीएनए से कहा, ″अमरीका के काथलिकों को अपने आपको विश्वव्यापी कलीसिया का हिस्सा तथा शांति के राजकुमार ख्रीस्त के चेले मानना चाहिए, जो सभी के लिए शांति लेकर आये न कि कुछ सीमित लोगों के लिए।″
11 सितम्बर 2001 को अमरीका के वल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले में करीब 3,000 लोगों की मृत्यु हो गयी थी। जिसके प्रत्युत्तर में अमरीका ने आतंक के खिलाफ युद्ध जारी किया था तथा 2001 में तालिबान पर जीत पाने के लिए अफगानिस्तान एवं 2003 में ईराक पर चढ़ाई कर दिया था।
प्राचार्य मेरियन्न ने कहा कि 11 सितम्बर के हमले को अंशतः धार्मिक चरमपंथियों द्वारा अंजाम दिया गया था किन्तु अमरीका इस धार्मिक अंतरराष्ट्रीय मामले को सही तरीके से नहीं पकड़ पाया।
उन्होंने कहा कि मध्यपूर्वी ख्रीस्तीय तथा एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों को 11 सितम्बर के बाद की अमरीका की विदेश नीति से बहुत कष्ट उठाना पड़ा है जिसकी काथलिक नेताओं ने ईराक में युद्ध की चेतावनी पहले से दी थी।
″मध्यपूर्व के ख्रीस्तीय अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं जबकि अमरीका का बड़ा भाग 11 सितम्बर के हमले का प्रत्युत्तर देने में लगा है, जो निश्चय ही, उनके संघर्ष को बढ़ाने में भागीदार है।″
2003 में युद्ध के शुरूआती दिनों में ख्रीस्तीयों की संख्या 15 लाख थी जो अब घट कर मात्र 5 लाख से भी कम है। अमरीका की विदेश नीति के पूर्व अलकायदा अथवा ईस्लामिक स्टेट जैसे ईराकी एवं सीरियाई गुट भी नहीं थे।
अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के प्राचार्य मेरियन्न ने कहा कि अमरीका को धार्मिक नेताओं के सकारात्मक कार्यों पर अधिक ध्यान देना चाहिए जो अपने जीवन को जोखिम में डालकर शांति निर्माण हेतु कार्य कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि अमरीका को विश्वव्यापी कलीसिया के अन्य सदस्यों को भी नहीं भूलना चाहिए जो विश्व के लगभग सभी देशों में निवास करते हैं तथा जिन्हें दूसरे धर्मों के विरोध का सामना करना पड़ता है।
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