2016-07-07 10:43:00

पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय, स्तोत्र ग्रन्थ भजन 73-74


श्रोताओ, पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"जो तुझे त्याग देते हैं, वे नष्ट हो जायेंगे। जो तेरे साथ विश्वासघात करते हैं, तू उनका विनाश करता है। ईश्वर के साथ रहने में मेरा कल्याण है। मैं प्रभु ईश्वर की शरण आया हूँ। मैं तेरे सब कार्यों का बखान करूँगा।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 73 वें भजन के अन्तिम दो पद। पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत विगत सप्ताह हमने इन पदों की व्याख्या की थी।  इस भजन में प्रभु ईश्वर पर सन्देह और बाद में फिर उनमें विश्वास की अभिव्यक्ति मिलती है। निराशाओं के बावजूद भजनकार इस बात के प्रति सचेत रहता है कि ईश्वर ही उसका दाहिना हाथ पकड़कर उसे अपनी महिमा में ले चलेंगे क्योंकि ईश्वर का प्रेम असीम है। कहता हैः "फिर भी मैं सदा तेरे साथ हूँ और तू मेरा दाहिना हाथ पकड़कर अपने परामर्श से मेरा पथप्रदर्शन करता है और बाद में मुझे अपनी महिमा में ले चलेगा।"

भजनकार स्वतः को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है और प्रभु ईश्वर को अपना एकमात्र उद्धारकर्त्ता स्वीकार करता है। कहता हैः "तेरे सिवा स्वर्ग में मेरा कौन है? मैं तेरे सिवा पृथ्वी पर और कुछ नहीं चाहता। मेरा शरीर और मेरा हृदय भले ही क्षीण हो जाये, किन्तु ईश्वर मेरी चट्टान है, सदा के लिये मेरा भाग्य है।"

श्रोताओ, जीवन जैसा है उसे प्रभु ईश्वर की इच्छा मानकर उसी रूप में स्वीकार कर लेना सरल नहीं होता किन्तु जो नहीं है उसकी चाह रखना, उसके लिये विलाप करते रहना अथवा अनवरत शिकायत करते रहना भी उचित नहीं है। ऐसा करनेवाला व्यक्ति कभी सन्तुष्ट नहीं रहता, वह एक कमज़ोर व्यक्ति बन जाता है। उसका विश्वास डगमगा जाता है। उसमें अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अस्तु, प्रभु की कृपा से जो कुछ हमें मिला है उसे हम सहर्ष स्वीकार करें तथा बात-बात पर शिकायत करने से दूर रहें तब ही हम अपने जीवन में सुख पा सकेंगे तथा अन्यों के लिये सुख और आनन्द का स्रोत बनेंगे। इसीलिये भजनकार 73 वें भजन के अन्तिम दो पदों में कहता है कि जो ईश्वर का परित्याग करते हैं उनका विनाश अवश्यंभावी है। वह ऐसा इसलिये कहता है क्योंकि  उसका यह विश्वास अटल है कि ईश्वर के साथ रहने में ही उसका कल्याण है और इसीलिये वह प्रभु के सब कार्यों का बखान करने के लिये तत्पर हो जाता है। वस्तुतः श्रोताओ, जो लोग ईश्वर से दूर रहते हैं, ईश्वर के अस्तित्व में ही विश्वास नहीं करते वे ख़ुद अपने विनाश का कारण बनते हैं। भजनकार कहता है कि स्वेच्छा से वे स्वतः को ईश्वर से अलग कर लेते हैं जिसके फलस्वरूप अनन्त जीवन से भी अलग हो जाते हैं किन्तु मैं जानता हूँ ईश्वर के साथ रहने में ही मेरा कल्याण है और इसीलिये मैं प्रभु ईश्वर की शरण आया हूँ।

अब आइये स्तोत्र ग्रन्थ के 74 वें भजन पर दृष्टिपात करें। इस भजन में भक्त समुदाय मन्दिर के विनाश पर विलाप करता है। श्रोताओ, निर्वासन से इसराएल आने के बाद से यहूदी जाति के लोग प्रभु के आदर में उपवास एवं व्रत रखा करते थे। अपने बीच प्रभु ईश्वर की उपस्थिति का ध्यान रखते हुए वे सामुदायिक रूप से प्रार्थना समारोहों का आयोजन किया करते थे तथा ज़रूरतमन्दों की मदद किया करते थे। इन्हीं अवसरों पर उन्होंने राजा नबूखेदनज़र के शासनकाल में जैरूसालेम के मन्दिर के विनाश पर विलाप किया जिसे स्तोत्र ग्रन्थ के 74 वें भजन में अभिव्यक्ति मिली।

बाईबिल पंडितों के अनुसार दुष्ट राजा नबूखेदनज़र द्वारा लगभग 587 ईसा पूर्व जैरूसालेम के मन्दिर को नष्ट कर दिया गया था। उस युग में जो विनाश हुआ वह दमिश्क अथवा निनिवेह का विनाश नहीं था बल्कि स्वयं ईश्वर द्वारा चुने हुए शहर का विनाश था। प्रभु ईश्वर ने प्रतिज्ञा की थी कि जैरूसालेमन शहर ही राष्ट्रों का मिलन बिन्दु होगा, यही ईश प्रजा का प्रतिज्ञात शहर था और यहीं पर ईश्वर की मुक्तियोजना का सम्पादन निश्चित्त था, जैसा कि हम नबी इसायाह के ग्रन्थ के दूसरे अध्याय के प्रथम तीन पदों में पढ़ते हैं। इनमें जैरूसालेम तथा यूदा के विषय में आमोस के पुत्र इसायाह द्वारा देखे गये दिव्य दृश्य का वर्णन निहित है, लिखा हैः "अन्तिम दिनों में ईश्वर के मन्दिर का पर्वत पहाड़ों से ऊपर उठेगा और पहाड़ियों से ऊँचा होगा। सभी राष्ट्र वहाँ इकट्ठे होंगे। असंख्य लोग यह कहते हुए वहाँ जायेंगे, "आओ हम प्रभु के पर्वत पर चढ़ें, याकूब के ईश्वर के मन्दिर चलें, जिससे वह हमें अपने मार्ग दिखाये और हम उसके पथ पर चलते रहें, क्योंकि सियोन से सन्मार्ग की शिक्षा प्रकट होगी और जैरूसालेम से प्रभु की वाणी।" 

इस प्रकार श्रोताओ, हम देखते हैं कि इसराएली जाति के लिये जैरूसालेम शहर उसका सन्दर्भ बिन्दु था। जैरूसालेम शहर ईश्वर के साथ वार्ता का पवित्र स्थल था, वह सभी राष्ट्रों का केन्द्र बिन्दु था और इसलिये इस शहर के मन्दिर के विनाश पर वे विलाप कर रहे थे। स्तोत्र ग्रन्थ के 74 वें भजन के प्रथम चार पदों में भक्त समुदाय के रुदन को अभिव्यक्ति मिली है। ये पद इस प्रकार हैः "ईश्वर, तूने क्यों हमें सदा के लिये त्याग दिया है? तेरा क्रोध क्यों अपनी चरागाह की भेड़ों पर बना हुआ है? अपनी प्रजा को याद कर, जिसे तूने प्राचीन काल में अर्जित किया, जिसका तूने उद्धार किया, उस वंश को जिसे तूने विरासत के रूप में अपनाया था; सियोन के पर्वत को जिसे तूने अपना निवास स्थान बनाया था। इन पुराने खण्हरों पर दयादृष्टि कर। शत्रु ने पवित्र मन्दिर को उजाड़ दिया। तेरे बैरियों ने तेरे प्रार्थनागृह में शोर मचाया और वहाँ अपने विजयी झण्डे फहराये।"

श्रोताओ, इन पदों में ईश प्रजा विलाप करते हुए प्रभु ईश्वर को पुकारती है क्योंकि जैरूसालेम के उजड़ जाने पर भी, उसके मन्दिर के विनाश के बाद भी उसे ईश्वर की प्रतिज्ञा याद थी जिसमें इसायाह के ग्रन्थ के 51 वें अध्याय के 16 वें पद में विश्व मण्डल के प्रभु कहते हैं: "मैंने अपने शब्दों को तुम्हारे मुँह में रखा और तुमको अपने हाथ की छाया में छिपाया है। मैंने आकाश को स्थापित किया, पृथ्वी की नींव डाली और सियोन से कहा – तुम ही मेरी प्रजा हो।"








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