नई दिल्ली, शुक्रवार 8 अप्रैल 2016 (ऊकान): भारत के ईसाइयों ने चिन्ता व्यक्त की है
कि केन्द्रीय सरकार द्वारा एक प्रख्यात मुस्लिम विश्वविद्यालय को विशेष दर्जा नहीं दिया
जाना एक हिंदू बहुल देश में मुसलमानों की प्रगति को सीमित कर सकता है। केन्द्रीय सरकार
ने 4 अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय को बताया था कि वह उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ मुस्लिम
विश्वविद्यालय को "अल्पसंख्यक संस्था" नहीं मानती है। ।
सरकार ने तर्क दिया है कि विश्वविद्यालय को संसद के एक अधिनियम के तहत स्थापित किया गया
था लेकिन 1981 में अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय को स्वतंत्र रुप से संस्था के प्रबंधन की
अनुमति दी गई थी। एक अल्पसंख्यक संस्था होने की वजह से, विश्वविद्यालय में निचली जातियों
और मूल निवासियों के लिए कोटा आरक्षित करने की आवश्यकता नहीं होती है और मुस्लिम छात्रों
को प्राथमिकता दी जा सकती है साथ ही कर्मचारियों की नियुक्ति में एक निश्चित स्तर तक
स्वायत्तता मिल सकती है।
भारतीय कलीसियाओं के राष्ट्रीय परिषद के लोक गवाह व प्रशासन और नीति आयोग के कार्यकारी
सचिव सामुएल जयकुमार ने कहा,"सरकार के पास एक बड़ा दिल होना चाहिए और विश्वविद्यालय को
एक अल्पसंख्यक का दर्जा देना चाहिए।"
उन्होंने ऊका समाचार को बताया कि विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलने से मुस्लिम समुदाय के विकास में मदद मिलेगी। मुसलमानों की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति दलितों (पूर्व अछूत) से भी बदतर है।
भारतीय काथलिक धर्माध्यक्षीय शिक्षा आयोग के सचिव फादर जोसेफ मानिपादम ने ऊका समाचार से कहा कि विश्वविद्यालय अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित और प्रशासित किया गया था तो इसे "एक अल्पसंख्यक संस्था ही रहना चाहिए।" जिस प्रकार हिंदू राष्ट्रवादी सत्तारूढ़ सरकार द्वारा हिंदू आधिपत्य कार्यक्रम को आगे बढ़ाया जा रहा है उन्हें डर है कि भविष्य में ईसाई अल्पसंख्यक संस्थानों के लिए मुसीबतें आ सकती हैं।
विश्वविद्यालय की आधिकारिक वेबसाइट का कहना है, "इसे इस्लामी और भारतीय संस्थान होने का गर्व है। यह भारत की मिश्रित संस्कृति और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को एक साथ बांधे रखने वाला एक प्रतीक है।"
हिंदू धर्म के 79.8 प्रतिशत जनसंख्या की तुलना में मुसलमान अभी भी 14.2 प्रतिशत है। भारत की 1.21 अरब की आबादी में 2 करोड़ 78 लाख ईसाई हैं और मुसलमानों के बाद दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक अल्पसंख्यक है।
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