रोम स्थित सन्त पेत्रुस महागिरजाघर के प्राँगण में, रविवारीय देवदूत प्रार्थना के अवसर पर, रविवार, 31 जनवरी को, देश-विदेश से एकत्र तीर्थयात्रियों एवं पर्यटकों को, सन्त पापा फ्राँसिस ने इस प्रकार सम्बोधित किया...
अति प्रिय भाइयो और बहनो, सुप्रभात!
आज का सुसमाचारी वृत्तान्त, विगत रविवार के समान ही, एक बार फिर हमें गलीलिया के नाज़रेथ गाँव स्थित यहूदी सभागृह ले जाता है जहाँ येसु अपने परिवार में बड़े हुए थे तथा जहाँ सब लोग उन्हें जानते थे। थोड़े ही समय पूर्व वे अपनी सार्वजनिक प्रेरिताई के लिये नाज़रेथ छोड़कर चले गये थे और अब पहली बार पुनः लौट कर उन्होंने स्वतः को, यहूदी सभागृह में, विश्राम दिवस पर एकत्र समुदाय के समक्ष प्रस्तुत किया था। इसायाह के ग्रन्थ से उस पाठ को वे पढ़ते हैं जिसमें भावी मसीहा के बारे में बताया गया है और अन्त में घोषित करते हैः "धर्मग्रन्थ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है" (लूक. 4,21)।
येसु के सह-नागरिक पहले तो आश्चर्यचकित हुए तथा उनकी प्रशंसा करने लगे किन्तु बाद में कुटिल चेहरे बनाने लगे तथा असंतोष प्रकट करते हुए आपस में कहने लगेः "यह व्यक्ति जो ईश्वर द्वारा अभिषिक्त होने का दावा करता है क्यों उन कार्यों को यहाँ नहीं दुहराता जो इसने कफरनाहूम एवं उसके इर्द गिर्द के गावों में सम्पादित किये हैं? तब येसु ने उनसे कहाः "मैं तुमसे कहता हूँ-अपनी मातृभूमि में नबी का स्वागत नहीं होता, (लूक. 4,24)। उन्होंने अतीत के महान नबी एलियाह एवं एलिसेओ का सन्दर्भ दिया जिन्होंने अपने लोगों के अविश्वास के कारण ग़ैरविश्वासियों के समक्ष चमत्कार सम्पादित किये थे। इस बिन्दु पर स्वतः को अपमानित महसूस कर सभागृह में उपस्थित लोग बहुत क्रुद्ध हो गये। वे उठ खड़े हुए और उन्होंने येसु को बाहर निकाल दिया। वे उन्हें नगर की पहाड़ी तक ले गये ताकि चोटी से उन्हें नीचे गिरा सकें किन्तु येसु, अपनी शांति के बल पर, "उनके बीच से निकलकर चले गये" (दे. 30)।
सन्त पापा ने कहाः "सुसमाचार लेखक, सन्त लूकस, द्वारा रचित यह पाठ केवल सह-नागरिकों के बीच झगड़े की एक कहानी नहीं है, जैसा कि कभी –कभी हमारी बस्तियों में भी, ईर्ष्या एवं जलन के कारण होता है, अपितु यह उस प्रलोभन को प्रकाश में लाता है जिसका सामना हर धर्मपरायण व्यक्ति को करना पड़ता है – हम सब को करना पड़ता है- और जिससे बचना ज़रूरी है। आख़िर यह प्रलोभन है क्या? – यह है धर्म को एक मानवीय निवेश मानने का प्रलोभन जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिये ईश्वर के साथ सौदा करने लगता है। जबकि, वास्तविक धर्म का सम्बन्ध ईश्वर की प्रकाशना का स्वागत है, ईश्वर जो हमारे पिता हैं, जो अपने प्रत्येक प्राणी की देखभाल करते हैं, छोटे से छोटे तथा मनुष्यों की दृष्टि में सबसे अर्थहीन प्राणी की भी। इसी में येसु की नबूवती प्रेरिताई का सार निहित हैः यह घोषित करते हुए कि कोई भी मानवीय स्थिति बहिष्कार का कारण नहीं हो सकती, कोई भी मानवीय स्थिति बहिष्कार का आधार नहीं हो सकती – पिता के हृदय से यह बात स्पष्ट होती है कि ईश्वर की दृष्टि में एकमात्र विशेषाधिकार, विशेषाधिकार का न होना है। एकमात्र विशेषाधिकार, विशेषाधिकार का न होना है ताकि मनुष्य स्वतः को पूर्णतः उनके सिपुर्द कर सके।
सन्त पापा ने आगे कहा..., "धर्मग्रन्थ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है" (लूक. 4,21)। ख्रीस्त द्वारा उदघोषित "आज" का तात्पर्य है सब समय, प्रत्येक युग एवं प्रत्येक व्यक्ति, यह हमारे लिये आज इस पियात्सा पर भी प्रतिध्वनित हो रहा है तथा हमें येसु द्वारा मानवजाति के लिये अर्जित मुक्ति का स्मरण दिला रहा है। ईश्वर हर युग में और हर स्थान पर स्त्री-पुरुषों से साक्षात्कार के लिये आते हैं, वे ठीक उस स्थल पर पहुँचते हैं जहाँ वे निवास करते हैं। वे हमसे भी साक्षात्कार के लिये आते हैं। वे ही हर बार पहला कदम उठाते हैं: वे अपनी करुणा को साथ लिये हमारी भेंट को आते हैं ताकि हमारे पापों की धूल हमसे उठा सकें, वे हमारी ओर अपना हाथ बढ़ाते हैं ताकि उस गर्त से हमें निकाल सकें जिसमें हम अपने घमण्ड के कारण गिर गये थे और हमें आमंत्रित करते हैं कि हम, सुसमाचार के सत्य का स्वागत कर, भलाई के मार्ग पर चलें। वे सदैव हमारी भेंट करने आते हैं, हमें खोजते रहते हैं।"
अन्त में उन्होंने कहा, "यहूदी सभा गृह पर हम पुनः दृष्टिपात करें... निश्चित रूप से, उस दिन, नाज़रेथ के सभागृह में माता मरियम भी उपस्थित थीं। उनके हृदय में उस समय जो घबराहट हुई उसकी हम कल्पना कर सकते हैं, यह उस पीड़ा का एक छोटा सा आभास था जो उन्होंने बाद में क्रूस के नीचे सही थी, येसु को उन्होंने उस सभागृह में देखा जहाँ पहले उनकी प्रशंसा की गई और बाद में उनका विरोध किया गया, अपमान किया गया और यहाँ तक कि मार डालने की धमकियाँ दी गई। हर बात को अपने हृदय में संजोकर रखनेवाली माता मरियम हमारी मदद करें जिससे चमत्कारों के ईश्वर से, हमारा मनपरिवर्तन, ईश्वर के चमत्कार में यानि प्रभु येसु ख्रीस्त में हो सके।"
इतना कहकर सन्त पापा ने अपना सन्देश समाप्त किया तथा देश विदेश से रोम पहुँचे तीर्थयात्रियों एवं पर्यटकों को अपना प्रेरितिक आशीर्वाद प्रदान किया।
देवदूत प्रार्थना के उपरान्त सन्त पापा फ्राँसिस ने कुष्ठ रोगियों की याद की तथा उनके लिये प्रार्थना की अपील करते हुए कहा,... "आज कुष्ठ रोगी दिवस मनाया जा रहा है। यह रोग, हालांकि, कम हो रहा है, दुर्भाग्यवश आज भी निर्धनतम एवं हाशिये पर जीवन यापन करने वाले कई लोग इससे ग्रस्त हैं। हमारे इन भाइयों एवं बहनों के साथ एकात्मता को सजीव रखना अनिवार्य है जो इस रोग के कारण विकलांग हो गये हैं। आइये! हम सब मिलकर उन्हें प्रार्थना का आश्वासन दें। उन लोगों को हम समर्थन दें जो इनकी सेवा में सलग्न हैं। उन सभी लोकधर्मियों, धर्मबहनों तथा पुरोहितों के प्रति हमारी सराहना जो कुष्ठ रोगियों की सेवा कर रहे हैं।"
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