2015-12-04 12:15:00

प्रेरक मोतीः सन्त साबास जॉन (439 ई.- 532 ई.)


वाटिकन सिटी, 05 दिसम्बर सन् 2015:

साबास का जन्म कैसरिया के निकटवर्ती काप्पादोचिया के मूतालास्का गाँव में, एक सैनिक परिवार में, हुआ था। पिता का स्थानान्तरण एलेक्ज़ेनड्रिया होने के बाद आठ वर्षीय साबास को उनके चाचा के यहाँ छोड़ दिया गया था जहाँ चाची के दुर्व्यवहार के कारण वे घर से भाग गये थे तथा अपने एक अन्य चाचा के घर चले गये थे। यहाँ एक बार फिर उन्हें घर का परित्याग करना पड़ा क्योंकि दोनों चाचाओं के बीच सम्पत्ति विवाद चल पड़ा था तथा वे कानूनी लड़ाई में फँस गये थे। इस बार साबास ने मूतालास्का के एक मठ में शरण ली। कुछ समय बाद चाचाओं में सुलह हो गई तथा वे साबास को लेने मठ पहुँचे किन्तु साबास मठ में रहने का प्रण कर चुके थे।

सन् 456 ई. में साबास जैरूसालेम गये तथा वहाँ सन्त थेओक्टिसटुस के अधीन एक मठ में भर्ती हो गये। 30 वर्ष की आयु में साबास सन्त यूथायमियुस के मार्गदर्शन में भिक्षु बन गये तथा सन्त की मृत्यु के उपरान्त चार वर्ष उन्होंने जैरिखो के जंगलों में भिक्षु बन कर व्यतीत किये। साबास एकान्त पसन्द करते थे इसलिये उन्होंने जंगलों में सन्यासी जीवन यापन आरम्भ कर दिया था तथापि, कई युवा पुरुष उनके प्रति आकर्षित हुए तथा उनके अनुयायी बन गये। जब इन अनुयायियों की संख्या 150 तक पहुँच गई तब भिक्षुओं ने पुरोहिताभिषेक की मंशा व्यक्त की। साबास इसके विरुद्ध थे किन्तु सन् 491 ई. में जैरूसालेम के प्राधिधर्माध्यक्ष सालुस्त के आदेश का वे उल्लंघन नहीं कर पाये तथा उनका भिक्षु समाज एक पुरोहितिक धर्मसमाज में परिणत हो गया।

मिस्र तथा आरमेनिया से भी कई युवा इस भिक्षु धर्मसमाज में भर्ती हो गये। धर्मसमाज की स्थापना के बाद साबास ने भिक्षु पुरोहितों को अपनी ही भाषा में पूजन पद्धति एवं आराधना अर्चना की अनुमति दी, जैरिखो में उन्होंने कई अस्पतालों एवं मठों की शिलान्यास किया तथा भिक्षुओं के जीवन को अर्थ प्रदान किया। साबास को सम्पूर्ण फिलिस्तीन के भिक्षुओं का मठाधीश नियुक्त कर दिया गया था। साबास के मार्गदर्शन में ये भिक्षु अपने अलग-अलग कक्षों में जीवन यापन करते थे।  येसु के दुखभोग की याद में मनायेजाने वाले चालीसा काल के दौरान मठाधीश साबास एकान्त में प्रार्थना किया करते करते थे तथा मठ से अनुपस्थित रहा करते थे। यह बात भिक्षुओं को पसन्द नहीं आई और इस कारण लगभग साठ भिक्षुओं ने अपना अलग दल बना लिया तथा थेकूना में एक खण्डहर मठ का जीर्णोद्धार कर वहीं रहने लगे। मठाधीश साबास उनके इस कृत्य से रुष्ट नहीं हुए बल्कि इस काम में उन्होंने अलग हुए भिक्षओं की मदद की तथा उनके लिये भोजन आदि की व्यवस्था की।

उस युग में ऑरथोडोक्स ख्रीस्तीय पुरोहितों एवं धर्माध्यक्षों के विरुद्ध दमन चक्र चल रहा था जिसे रोकने के लिये सन् 511 ई. में, साबास सम्राट अनास्तासियुस के पास भेजे गये मठाधीशों के प्रतिनिधिमण्डल में शामिल थे। ख्रीस्तीय धर्म में अपधर्मियों की गतिविधियों को रोकने का साबास ने हर सम्भव प्रयास किया तथा निष्कासित धर्माध्यक्षों एवं पुरोहितों को समर्थन प्रदान किया। इसी मिशन के तहत सन् 531 ई. में, 91 वर्ष की आयु के बावजूद, साबास एक बार फिर कॉन्सटेनटीनोपेल गये। इस बार उन्होंने सम्राट जुस्तीनियन से अपील की कि वे जैरूसालेम के लोगों को समारियों के उत्पीड़न से बचायें। अपनी यात्रा से लौटने के उपरान्त साबास बीमार पड़ गये तथा 05 दिसम्बर 532 ई. को, लाओरा मार साबा मठ में उनका निधन हो गया। पूर्वी रीति की कलीसिया में सन्त साबास को आरम्भिक मठवासी जीवन के संस्थापक एवं पितामह माना जाता है। सन्त साबास का पर्व 05 दिसम्बर को मनाया जाता है।

चिन्तनः "प्रभु ही प्रज्ञा प्रदान करता और ज्ञान तथा विवेक की शिक्षा देता है। वह धर्मियों को सफलता दिलाता और ढाल की तरह सदाचारियों की रक्षा करता है। वह धर्म मार्ग पर पहरा देता और अपने भक्तों का पथ सुरक्षित रखता है। तुम धार्मिकता और न्याय, सच्चाई और सन्मार्ग का मर्म समझोगे। प्रज्ञा तुम्हारे हृदय में निवास करेगी और तुम्हें ज्ञान से आनन्द प्राप्त होगा" (सूक्ति ग्रन्थ 2: 6-10)।  








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