2015-11-20 11:47:00

गुरुकुल में शुरु होती है पवित्रता की तीर्थयात्रा, सन्त पापा फ्राँसिस


वाटिकन सिटी, शुक्रवार, 20 नवम्बर 2015 (सेदोक): सन्त पापा फ्राँसिस ने कहा है कि पवित्रता की ओर पुरोहित की तीर्थयात्रा गुरुकुल से ही शुरु हो जाती है।

शुक्रवार को, पुरोहितों के प्रशिक्षण पर द्वितीय वाटिकन महासभा की दो आज्ञप्तियों की पचासवीं वर्षगाँठ के अवसर पर याजकवर्ग सम्बन्धी परमधर्मपीठीय धर्मसंघ द्वारा वाटिकन में आयोजित सम्मेलन के प्रतिभागी पुरोहितों को सम्बोधित कर सन्त पापा ने उक्त दो आज्ञप्तियों को पुरोहितों के प्रशिक्षण का आधार बताया।

ओपतातुम तोतियुस तथा प्रेसबीतेरोरुम ओरदीनिस नामक इन दो आज्ञप्तियों में पुरोहितों के प्रशिक्षण पर निर्देशिका दी गई है।

सन्त पापा फ्राँसिस ने स्मरण दिलाया कि 2013 में सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने, “मिनिस्त्रोरुम इन्स्तीतूतियो शीर्षक के अन्तर्गत स्वप्रेरणा से लिखित मोतू प्रोप्रियो में पुरोहितिक प्रशिक्षण को ठोस एवं न्यायिक संरचना का रूप दिया था तथा याजकवर्ग सम्बन्धी परमधर्मपीठीय धर्मसंघ को गुरुकुलों की देख-रेख का कार्यभार सौंपा था।  उन्होंने कहा कि इसके परिणामस्वरूप परमधर्मपीठीय धर्मसंघ गुरुकुल में प्रवेश के क्षण से पुरोहितिक अभ्यर्थियों की देख-रेख में सक्षम हुआ ताकि पौरोहित्य प्रशिक्षण ग्रहण करनेवाले व्यक्ति पवित्रता में विकास करते जायें।

सन्त पापा ने कहा, “पौरोहित्य के प्रति बुलाहट कुछ लोगों को सबकी भलाई के लिये मिला ईश-वरदान है इसलिये पुरोहित तथा अन्य लोगों के साथ उसके सम्बन्ध पर ध्यान देना आवश्यक है”। इब्रानियों को प्रेषित सन्त पौल के पत्र को उद्धृत कर सन्त पापा ने कहा कि इन तीन बातों पर विचार करना अनिवार्य है कि पुरोहितों को लोगों के बीच से चुना गया है, लोगों के कल्याण के लिये उन्हें प्रशिक्षित किया गया है तथा लोगों के बीच वे निरन्तर उपस्थित रहा करते हैं”।

उन्होंने स्मरण दिलाया कि पुरोहित मानवीय सन्दर्भ में ही जन्म लेता है तथा मनुष्यों के साथ रहते हुए मानवीय आध्यात्मिकता का वरण करता है, उसका भी एक इतिहास है क्योंकि ऐसा कदापि नहीं है कि पुरोहिताभिषेक के बाद से वह गिरजाघर में उपस्थित हो जाता है। इस सन्दर्भ में सन्त पापा ने कहा कि पुरोहित की पहली पाठशाला उसका अपना परिवार है जहाँ वह पारिवारिक एवं मानवीय मूल्यों में पोषित होता है। परिवार ही वह आधारभूत स्थल है जहाँ युवाओं में अन्यों के प्रति समपर्ण एवं उदारता के भाव पोषित होते हैं। अस्तु, सन्त पापा ने कहा, “एक अच्छा पुरोहित सर्वप्रथम मानवता धारित व्यक्ति है, जो उसके वैभव एवं उसके घावों सहित स्वतः के इतिहास से परिचित रहता है तथा मन की शांति को अनुभव कर प्रभु येसु का प्रेरित होने के प्रति सचेत रहता है”। इसीलिये, सन्त पापा ने कहा, यह सामान्य नहीं है कि कोई पुरोहित उदास रहे अथवा अपने आचार-व्यवहार में कठोर रहे क्योंकि पुरोहित तो आनन्द का प्रेरित है जो सुसमाचार के हर्ष को सबमें बाँटता है। यही कारण है कि पुरोहित को अपनी जड़ों को नहीं भूलना चाहिये क्योंकि उसकी जड़े ही उसे यह स्मरण दिलाती है कि वह कौन है तथा ख्रीस्त द्वारा कहाँ बुलाया गया है।      








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