2015-10-26 17:35:00

धर्माध्यक्षीय धर्मसभा की समाप्ति पर संत पापा का संदेश


वाटिकन सिटी, 26 अक्टूबर 2015 (सेदोक) संत पापा ने परिवार विषय पर विश्व महाधर्माध्यक्षीय धर्मसभा की समाप्ति के उपरान्त अपने दिल के उद्गार व्यक्त करते हुये कहा, प्रिय कार्डिनल भाइयो, धर्माध्यक्षो और मेरे भाइयो एवं बहनो,

सर्वप्रथम मैं ईश्वर का धन्यवाद करना चाहूँगा जिन्होंने पवित्र आत्मा की कृपा से धर्मसभा के सभी प्रक्रियाओं में हमारी मदद की है।

मैं कृतज्ञ हूँ कार्डिनल लोरेजो बल्डीसेरी, धर्मसभा के सचिव का, धर्माध्यक्ष फाबियो फाबेने सह सचिव, और उपस्थित सम्पर्ककर्ता कार्डिनल पीटर एरडो और विशेष सचिव महाधर्माध्यक्ष ब्रुनो फोरते, प्रतिनिधि अध्यक्षों, लेखकों, सलहकारों, अनुवादकों, गायकों और उन सभों का जो निःस्वार्थ, पूरी लगनता के साथ कलीसिया की सेवा की है, आप सब को हृदय की गहराई से धन्यवाद। मैं उन सभी विभागों को धन्यवाद कहता हूँ जिन्होंने रात भर जग कर रिपोर्ट तैयार किया है।

मैं, आप सबका प्रिय धर्माध्यक्षों, प्रतिनिधियो, पल्ली पुरोहितो, परिवारो धन्यवाद करता हूँ क्योंकि आप ने धर्मसभा में सक्रिय भाग लिया। मैं बिना नाम लिये उन भाइयो एवं बहनो का शुक्रगुजार हूँ जिन्होंने परदे के पीछे धर्मसभा की सफलता हेतु उदारतापूर्वक काम किया है।

मैं आप सब को अपनी प्रार्थना का आश्वासन देता हूँ ईश्वर आप को अपनी कृपाओं से भर दे।

धर्मसभा में किये गये मेहनत को देखकर मैंने अपने आप से पूछा, “परिवार को समर्पित यह धर्मसभा कलीसिया के लिये क्या मतलब रखता है ”?   

निश्चय ही धर्मसभा का उद्देश्य पारिवारिक समस्या का हल खोज निकालना नहीं था वरन सुसमाचार के प्रकाश में कलीसिया की परम्पराओं और दो हजार वर्ष पूर्व इतिहास में कही गई बातों को देखते हुए खुशी और आशा में बने रहने का प्रयास था।

यह हम प्रत्येक जन के लिए निमंत्रण था कि हम परिवार की महत्ता को देखे जहाँ पति-पत्नी, विवाह एक अटूट संस्कार में समर्पित होते जो समाज और जीवन की एक आधारशिला है।

यह हमारे लिए परिवारों और चरवाहों की आवाज को सुनने का अवसर था जो दुनिया भर की पारिवारिक चुनौतियों को अपने कंधों में ढ़ोकर आशा के साथ रोम आये।

यह कलीसिया के महत्व को दिखलाने का अवसर था जहां हम खुले रूप में विचारों के आदान-प्रदान द्वारा अपनी सुषुप्त अन्तरात्मा को छेड़ने से नहीं डरे।

यह सच्चाई को ईश्वरीय आँखों से देखने और वर्तमान परिवेश में पारिवारिक स्थिति पर टिप्पणी करने का समय था जिससे कि हम अपने सामाजिक, आर्थिक और नौतिक संकट के समय विश्वास में आशावादी बने रहे। यह हमारे लिये सुसमाचार की महत्ता का साक्ष्य देने का समय था।

यह हमारे दिलो को खोलने का अवसर था जहाँ हम कलीसिया की शिक्षा के आड़ में मूसा द्वारा निर्धारित न्यायासन पर बैठते और अधिकार के साथ कठिन समस्याओं और घायल परिवारों को फैसला सुनाते हैं।

यह हमारे लिये अपनी क्षितिज को खोलने का, जहाँ से हम अपने छल कपट, संकुचित सोच से बाहर निकल ईश्वरीय प्रजा की स्वतंत्रता की रक्षा हेतु कार्य करते हैं जिससे ख्रीस्तीय प्रेम का संदेश प्रसारित हो सकें।

धर्मसभा के दौरान विभिन्न मुद्दों को खुले तौर पर रखा गया जहाँ गूढ़ तथ्यों पर खुल कर वार्ता हुई जो यह दिखाता है कि कलीसिया एक “रबर की मुहर” के समान केवल नहीं है बल्कि अपने विश्वास से जीवन जल प्रवाहित करता जो सूखे दिलों को सींच कर हरा भरा बना देता है।

कलीसियाई धर्मसिद्धान्तों के अलावा हमने इस पर विचार किया कि एक धर्माध्यक्ष के लिए एक चीज सामान्य है जबकि वही दूसरे के लिए एकदम अपमान और विचित्र। एक संस्कृति जो किसी के अधिकारों का हनन करता है वही दूसरे के लिए जीवन का अधिकार है। जो किसी के लिए अन्तरात्मा की स्वतंत्र है वही किसी दूसरे के लिए एकदम उलझन का कारण। हमारी संस्कृति सचमुच भिन्न है और जैसे कलीसिया ने धर्मसिद्धानों को परिभाषित किया है प्रत्येक सिद्धान्त को स्थानीय संस्कृति की दृष्टि कोण से देखा जाना चाहिए। 1985 की धर्मसभा संस्कृति को परिभाषित करते हुए कहती है कि संस्कृति सही मूल्यों को कमजोर नहीं करता वरन् उनकी सच्ची शक्ति और सत्यता को दिखाता है क्योंकि वे संस्कृति को बिना बदले ही उसका अंग बन जाते हैं।

प्रिय भाइयो और बहनो, धर्मसभा ने हमें यह अनुभूति दी है कि सही अर्थ में धर्मसिद्धान्त को मानने वाले वे नहीं जो इसे जानते हैं लेकिन वे हैं जो इसका पालन करते हैं जो ईश्वर के प्यार को जीते और क्षमा करते हैं। यह हमें धर्मसूत्रों से या ईश्वर के नियम से दूर नहीं ले जाता वरन् ईश्वर की महानता को हमारी अपूर्व दया में प्रदर्शित करता है। यह हमें बड़े भाई और ईर्ष्यालु मज़दूरों के मनोभावों से ऊपर उठने और उन पर विजय पाने को कहता है। यह सचमुच ईश्वर के नियमों को अपने में धारण करना है जो मनुष्यों के लिये बनाया गया है न की मनुष्य नियमों के लिये।

कलीसिया का पहला कर्तव्य सजा देना नहीं लेकिन ईश्वरीय दया की घोषणा करना है, हमें अपने आप को बदलना है जिससे हम सब येसु को पा सकें।








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