2015-09-18 12:50:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचयः भजन 68, (छठवाँ भाग)


                   

वाटिकन सिटी, गुरुवार, 17 सितम्बर 2015 (विभिन्न स्रोत):

श्रोताओ, पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश-कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। ............

"ईश्वर, उन्होंने तेरी शोभायात्राओं को देखा, मन्दिर में मेरे ईश्वर, मेरे राजा की शोभायात्राओं को। गायक आगे, वादक पीछे, बीच में वीणा बजाती हुई युवतियाँ। वे गाते हुए ईश्वर को धन्य कहते थे, इस्राएल के पर्वों में प्रभु को धन्य कहते थे।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 68 वें भजन के 25 से लेकर 27 तक के पद जिनके पाठ से विगत सप्ताह हमने पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम समाप्त किया था। इन पदों 25 से लेकर 27 तक के पदों में ईश्वर के आदर में सम्पादित शोभायात्राओं का विवरण है। स्मरण रहे कि  इस्राएली जाति मिस्र की दासता से मुक्ति पाने के लिये ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करती रही थी और सर्वोच्च प्रभु का गुणगान करती रही थी। धन्यवाद ज्ञापन स्वरूप ही वह इन शोभायात्राओं का आयोजन करती रही थी तथा इनके द्वारा प्रभु की स्तुति करती रही थी।

इन पदों में एक और बात की ओर हमारा ध्यान आकर्षित होता है और वह है महिलाओँ की भूमिका। प्राचीन व्यवस्थान के युग में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही थी। गायकों और वादकों के बीच भी उनका विशेष स्थान था और वे वीणा बजाती हुई ईश्वर का महिमागान करती थी। उक्त पदों में शोभायात्रा में शरीक समुदाय किसी एक व्यक्ति का समुदाय नहीं था वह लोगों का समुदाय था जो एकसाथ मिलकर प्रभु की स्तुति कर रहा था। इससे भजनकार ने यह सन्देश देना चाहा है कि एकता में सूत्रबद्ध होकर प्रभु से प्रार्थना करना, उनकी स्तुति करना तथा मनुष्यों के हित में काम करना कल भी सम्भव था, ऐसा आज भी सम्भव है तथा युगयुगान्तर तक सम्भव रहेगा।             

वस्तुतः, स्तोत्र ग्रन्थ के 68 वें भजन में मानव जाति को याद दिलाया गया है कि ईश्वर के मुख से निकले शब्द से सृष्टि की रचना हुई और अब ईश्वर ही इसका पालन पोषण करते तथा मानव का उद्धार करते हैं। जल, थल और नभ में ईश्वर विद्यमान रहते, वे ही सृष्टिकर्त्ता, राखनहारा और त्राणकर्त्ता हैं जिन्हें सब समय धन्यवाद ज्ञापित किया जाना चाहिये। ईश्वर को ध्यवाद किसलिये दें तथा उनके नाम की महिमा क्यों करें इसका कारण भी इसी भजन के पाँचवे और छठें पदों में हमें मिलता है, इन पदों में लिखा हैः "सभी राष्ट्र मिल कर तुझे धन्यवाद दें। सभी राष्ट्र उल्लसित हो कर आनन्द मनायें क्योंकि तू न्यायपूर्वक संसार का शासन करता और पृथ्वी पर राष्ट्रों का पथप्रदर्शन करता है।"  इसी प्रकार भजन के आगे के पदों में भजनकार कहता हैः "हम प्रतिदिन प्रभु को धन्यवाद दिया करें। ईश्वर हमें संभालता और विजय दिलाता है", तब भी वह हमसे प्रभु के महान कार्यों के लिये उनके प्रति आभार प्रकट करने का आग्रह करता है।     

अब आइये स्तोत्र ग्रन्थ के 68 वें भजन के आगे के पदों पर दृष्टिपात करें, 28 से लेकर 31 तक के पदों में हम पढ़ते हैं: "वहाँ कनिष्ठ बेनयामिन, वहाँ यूदा के नेताओं का बहुसंख्यक दल, वहाँ ज़बूलोन और नपताली के नेता। तुम्हारे ईश्वर ने तुमको बल प्रदान किया। ईश्वर! अपना सामर्थ्य प्रदर्शित कर। तूने पहले भी हमारे लिये महान् कार्य किये। राजा लोग, उपहार लिये, येरूसालेम में, तेरे ऊँचे मन्दिर के सामने तेरे पास आयेंगे। सरकण्डों में विचरने वाले पशु को, साँड़ों के झुण्ड को, राष्ट्रों के शासकों को डाँट, जिससे वे चाँदी की सिल्लियाँ लिये तुझे दण्डवत करें। युद्ध प्रिय राष्ट्रों को तितर-बितर कर।" 

68 वें भजन के उक्त पाठ पर यदि ध्यान से ग़ौर करें तो हम पाते हैं कि यहाँ मनुष्य ईश्वर को पुकारता है, ईश्वर की दुहाई देता है कि प्रभु ईश्वर अपना सामर्थ्य प्रकट करें तथा उसकी सहायता को आगे आयें। प्रभु जंगली एवं नरभक्षी जानवरों से उसकी रक्षा करें। यहाँ सरकण्डों में विचरने वाले पशु अथवा जंगली जानवरों से तात्पर्य विधर्मी देशों से हैं। मिस्र का नाम लिये बग़ैर भजनकार यहाँ प्रभु को मिस्र के विरुद्ध पुकारता है जो बाल देवता को पूजते थे तथा उसकी शक्ति से दुराचार करते थे। यहाँ उन सेनाओं से भी रक्षा का आह्वान किया गया है जो पड़ोसी देशों से लूट का माल लेने के लिये उनपर धावा बोलते थे। युद्ध में लिप्त सभी लोगों के विरुद्ध भजनकार प्रार्थना करता है कि वे स्वेच्छा से तथा शांतिपूर्ण ढंग से अपने चढ़ावे लेकर सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के समक्ष आयें। 

बाईबिल पंडितों ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित कराया है कि अति प्राचीन इथियोपियाई अथवा अस्सिरियाई कलीसिया 68 वें भजन के उक्त पदों पर गर्व करती थी इसलिये कि ये पद उनके इस बात का प्रमाण हैं कि इथियोपियाई अथवा अस्सिरियाई कलीसियाएँ आरम्भ से ही एक ईश्वर में विश्वास पर सुदृढ़ रही थीं।

68 वें भजन के 32 वें पद में भजनकार इसी के सन्दर्भ में कहता हैः "मिस्र के सामंत आयेंगे, इथियोपिया ईश्वर के आगे हाथ पसारेगी।" और फिरः "पृथ्वी के राज्यों, ईश्वर का भजन गाओ। प्रभु का स्तुतिगान करो। वह चिरन्तन आकाश के ऊपर विराजमान है। देखो, उसकी वाणी मेघगर्जन में बोलती है।"

भजन के आरम्भिक पदों में इस्राएल से आग्रह किया गया था कि वह ईश्वर की स्तुति करे, उनके नाम का गुणगान करे तथा उनके महान कार्यों के लिये धन्यवाद अर्पित करता रहे किन्तु यही आमंत्रण सम्पूर्ण विश्व को सम्बोधित किया जा रहा था। सभी राष्ट्रों एवं सम्पूर्ण ब्रहमाणड के लोगों से भजनकार आग्रह करता है कि वे प्रभु की स्तुति करें तथा उनके महान कार्यों का बखान करें। इस बिन्दु पर ग़ैरविश्वासी राष्ट्रों का भजनकार आह्वान करता है कि वे इस तथ्य पर ध्यान दें कि प्रभु का वैभव, उनका तेज और उनका प्रताप इस्राएल पर महिमा के मुकुट जैसा है। इस तथ्य पर ग़ौर करें कि ईश्वर की शक्ति प्रकृति की शक्तियों में दृष्टिगोचर होती है। वह कहता हैः "गाओ। प्रभु का स्तुतिगान करो। वह चिरन्तन आकाश के ऊपर विराजमान है। देखो, उसकी वाणी मेघगर्जन में बोलती है।"








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