2015-09-05 11:22:00

प्रेरक मोतीः धन्य मदर तेरेसा (1910-1997)


वाटिकन सिटी, 05 सितम्बर, सन् 2015

धन्य मदर तेरेसा का जन्म, अल्बानिया के स्कोपिये में, 26 अगस्त, 1910 ई. को एक धर्मपरायण परिवार में, एग्नेस गोन्क्सा नाम से, हुआ था। पाँच वर्ष की आयु में उन्होंने यूखारिस्तीय संस्कार एवं 06 वर्ष का आयु में दृढ़ीकरण संस्कार ग्रहण कर लिया था। येसु धर्मसमाजी पुरोहितों द्वारा संचालित स्कोपिये स्थित येसु के परम पवित्र हृदय को समर्पित पल्ली में उनका धार्मिक प्रशिक्षण शुरु हुआ था और 18 वर्ष की आयु में तेरेसा ने प्रभु एवं पड़ोसी के प्रति समर्पित जीवन का रास्ता चुन लिया था।  

सन् 1928 ई. के सितम्बर माह में अपने घर और परिवार का परित्याग कर, 18 वर्षीया, एग्नेस पवित्र कुँवारी मरियम को समर्पित लॉरेटो की धर्मबहनों के संग होने के लिये आयरलैण्ड के लिये निकल पड़ी थी। लॉरेटो धर्मसंघ में उन्हें सि. मेरी तेरेसा नाम प्रदान किया गया। सन् 1929 ई. के दिसम्बर माह में सि. तेरेसा ने भारत की यात्रा तय की तथा कोलकाता पहुँची। 1931 ई. के मई माह में प्रथम व्रत ग्रहण करने के उपरान्त उन्हें कोलकाता के लॉरेटो कॉन्वेन्ट भेज दिया गया तथा लड़कियों के लिये स्थापित सेन्ट मेरीज़ स्कूल में शिक्षिका का काम सौंप दिया गया।  

24 मई, 1937 ई. को सि. तेरेसा ने अपना अन्तिम व्रत ग्रहण किया जिसके बाद से उन्हें मदर तेरेसा नाम से पुकारा जाने लगा। सेन्ट मेरीज़ स्कूल में शिक्षिका का काम उन्होंने जारी रखा और बाद में जाकर इस स्कूल की प्राचार्या बन गई। लॉरेटो धर्मसंघ में व्यतीत मदर तेरेसा के बीस वर्ष आनन्द से परिपूरित सिद्ध हुए। अपनी दया, उदारता, निःस्वार्थ सेवा और साहस के लिये विख्यात तथा परिश्रम से कभी पीछे न हटनेवाली मदर तेरेसा ने अपना समर्पित जीवन निष्ठा एवं आनन्द के साथ व्यतीत किया।  

10 सितम्बर, सन् 1946 ई. की बात है, मदर तेरेसा अपनी वार्षिक आध्यात्मिक साधना के लिये कोलकाता से दार्जीलिंग रेलगाड़ी में सफ़र कर रही थी कि उन्हें अचानक प्रेरणा मिली, "बुलाहट के बीच एक और बुलाहट मन में गूँज उठी"। उन्हें ऐसा लगा मानों येसु उन्हें किसी खास मिशन के लिये निमंत्रण दे रहे थे। बस फिर क्या था? मदर तेरेसा जी जान से येसु के इस निमंत्रण को मूर्तरूप प्रदान करने में जुट गई। मदर को लगा मानों येसु उनसे कह रहे हों "आओ मेरी ज्योति बनो!", ऐसा प्रतीत हुआ मानों येसु तिरस्कृत और परित्यक्त लोगों में अपनी पीड़ा को दर्शा रहे थे। येसु की पुकार ही वह यथार्थ शक्ति थी कि जिसके बल पर मदर तेरेसा, निर्धनों में निर्धनतम लोगों की सेवा हेतु उदारता के मिशनरी धर्मसंघ नामक धर्मबहनों के संघ की स्थापना में समर्थ बनी।   

17 अगस्त, सन् 1948 ई. को मदर तेरेसा को अपने नये धर्मसंघ की अनुमति मिल गई और नीली धारी वाली श्वेत साड़ी धारण कर उन्होंने लॉरेटो कॉन्वेन्ट के फाटक से बाहर निकल निर्धनों एवं परित्यक्त लोगों की दुनिया में प्रवेश कर लिया। तदोपरान्त, कोलकाता की झुग्गी झोपड़ियों की सैर उनकी दिनचर्या बन गई। निर्धन परिवारों की भेंट, बच्चों के घावों का उपचार, लूले लँगड़े, वृद्ध एवं रोगी व्यक्तियों की देखभाल, यही सब उनकी दिनचर्या थी। देखते ही देखते कई युवतियाँ उनके इस नेक मिशन में उनके साथ जा मिली।   

07 अक्टूबर, सन् 1950 ई. को मदर तेरेसा द्वारा स्थापित उदारता को समर्पित मिशनरी धर्मसंघ कोलकाता महाधर्मप्रान्त में आधिकारिक रूप से स्थापित हो गया था और 1960 से बाद से मदर ने अपनी धर्मबहनों को भारत के अन्य शहरों एवं गाँवों में भेजना आरम्भ कर दिया था।

सन् 1965 ई. में, सन्त पापा पौल षष्टम द्वारा प्रशस्ति आदेश से प्रोत्साहन प्राप्त कर, मदर ने वेनेजुएला में अपना एक आश्रम स्थापित कर दिया। वेनेजुएला के बाद, रोम, तनज़ानिया और फिर हर महाद्वीप में उदारता को समर्पित मिशनरी धर्मसंघ के आश्रमों की स्थापना हो गई जो, सन् 1980 से 1990 तक के दशक में, भूतपूर्व सोवियत संघ के लगभग सभी साम्यवादी देशों तक विस्तृत हो गये। आज उदारता को समर्पित मिशनरी धर्मसंघ की लगभग 4000 धर्मबहनें एवं धर्मबन्धु, विश्व के 123 राष्ट्रों में, सेवारत है।     

सन् 1963 में इस धर्मसंघ के साथ धर्मबन्धुओं के लिये भी एक अलग धर्मसंघ की स्थापना की गई। तदोपरान्त, सन् 1976 में ध्यान एवं मनन-चिन्तन को समर्पित धर्मबहनें, सन् 1979 में  ध्यान एवं मनन-चिन्तन को समर्पित धर्मबन्धु तथा सन् 1984 में उदारता को समर्पित पुरोहित भी मदर तेरेसा के धर्मसंघ से संलग्न हो गये। इनके अतिरिक्त, सैकड़ों सामान्य लोग मदर के उदारता सम्बन्धी मिशन में योगदान देने लगे।     

दीन-हीन, दरिद्र एवं समाज से बहिष्कृत लोगों की अनुपम सेवा के लिये मदर तेरेसा को सन् 1962 में भारत के प्रतिष्ठित पद्मश्री पुरस्कार तथा सन् 1979 ई. में विश्व विख्यात नोबेल शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया।   

महान मदर तेरेसा के जीवन का वीरोचित पक्ष शायद उनके निधन के बाद ही प्रकाश में आ पाया। परमधर्मपीठीय सन्त प्रकरण परिषद में उनकी धन्य घोषणा के लिये प्रस्तुत किये गये दस्तावेज़ों के अनुसार, अपने उदारता कार्यों द्वारा समस्त विश्व में विख्यात मदर तेरेसा ने बहुत बार स्वतः को अकेला पाया था। उनका आन्तरिक जीवन दुखमय था और कभी-कभी उन्हें महसूस होता था कि ईश्वर ने उनका परित्याग कर दिया था। उन्होंने अपने आन्तरिक अनुभव को अपनी आत्मा की "दुखभरी रात" का नाम दिया है। इसी दुखभरी रात के अँधेरे से मदर तेरेसा येसु की तृष्णा में रहस्यमयी ढंग से शरीक हुई, इसी में उन्होंने निर्धनों के प्रति येसु के प्रेम का दीदार किया।         

05 सितम्बर, सन् 1997 को मदर तेरेसा का निधन हो गया था। कोलकाता स्थित उनकी समाधि सभी धर्मों के लोगों के लिये एक पुण्य तीर्थ स्थल में परिणत हो गई है। 19 अक्तूबर, 2003 को सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय ने मदर तेरेसा को धन्य घोषित कर वेदी का सम्मान प्रदान किया था। धन्य मदर तेरेसा का स्मृति दिवस 05 सितम्बर को मनाया जाता है।

चिन्तनः प्रभु के भक्तो, उसकी स्तुति करो। याकूब के वंशजो, उस पर श्रद्धा रखो; क्योंकि उसने दीन-हीन का तिरस्कार नहीं किया, उसे उसकी दुर्गति से घृणा नहीं हुई, उसने उससे अपना मुख नहीं छिपाया, उसके उसकी पुकार पर ध्यान दिया। मैं तुझसे प्रेरित होकर भरी सभा में तेरा गुणगान करूँगा। मैं प्रभु भक्तों के सामने अपनी मन्नतें पूरी करूँगा" (स्तोत्र ग्रन्थ 21: 24-26)।








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