2015-05-08 12:38:00

प्रेरक मोतीः सन्त तारान्तेज़ के सन्त पीटर (1102-1175) (08 मई)


वाटिकन सिटी, 08 मई सन् 2015:

तारान्तेज़ के पीटर का जन्म फ्राँस के वियानी नगर के निकटवर्ती सान-मोरिस-लेक्सिल में सन् 1102 ई. को हुआ था। वे सिस्टरशियन धर्मसमाजी मठ के भिक्षु थे। 1132 ई. में, तीस वर्षीय  पीटर को मठाध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया था। सन् 1142 में वे तारान्तेज़ के धर्माध्यक्ष नियुक्त  किये गये थे। धर्मप्रान्त में सुधार लाने हेतु पीटर ने अथक परिश्रम किया तथा भ्रष्ट पुरोहितों को धर्मप्रान्त से बाहर कर दिया। उन्होंने निर्धनों के हित में कई कल्याणकारी योजनाएँ आरम्भ की तथा शिक्षा प्रेरिताई को प्रोत्साहन दिया। धर्मप्रान्त में उन्होंने भूखों को खिलाने के लिये रोटी और सूप वितरित करने की नेक परम्परा भी आरम्भ की जो सम्पूर्ण फ्राँस में फ्राँसिसी क्रान्ति तक जारी रही।

13 वर्षों तक धर्माध्यक्षीय प्रेरिताई का निर्वाह करने के बाद पीटर अचानक ग़ायब हो गये। कुछ समय बाद पता चला कि उन्होंने अपने सभी प्रतिष्ठित पदों का परित्याग कर दिया था तथा स्विटज़रलैण्ड के एक सिस्टरशियन मठ में लोकधर्मी धर्मबन्धु बनकर सेवाएँ अर्पित कर रहे थे। उन्हें वापस तारान्तेज़ बुलाया गया। अपधर्मियों के विरुद्ध संघर्ष में सन्त पापा एलेक्ज़ेनडर तृतीय ने पीटर को अपना सहयोगी बनने के लिये बुला भेजा। इसी सिलसिले में उन्होंने फ्राँस में सन्त पापा के अधिकारों की प्रतिरक्षा की। फ्राँस के सम्राट लूईस सप्तम तथा इंग्लैण्ड के सम्राट हेनरी द्वितीय के बीच पुनर्मिलन का कार्य भी धर्माध्यक्ष पीटर के सिपुर्द कर दिया गया था। इस पहल के दौरान ही फ्राँस के बेलेवु मठ में, सन् 1174 ई. में, धर्माध्यक्ष पीटर का निधन हो गया।

 

सन् 1191 ई. में तारान्तेज़ के धर्माध्यक्ष पीटर को सन्त घोषित कर काथलिक कलीसिया में वेदी का सम्मान प्रदान किया गया था। तारान्तेज़ के सन्त पीटर का पर्व 08 मई को मनाया जाता है।

चिन्तनः

"मैंने प्रार्थना की और मुझे विवेक मिला।

मैंने विनती की और मुझ पर प्रज्ञा का आत्मा उतरा।

मैंने उसे राजदण्ड और सिंहासन से ज्यादा पसन्द किया

और उसकी तुलना में धन-दौलत को कुछ नहीं समझा।

मैंने उसकी तुलना अमूल्य रत्न से भी नहीं करना चाहा;

क्योंकि उसके सामने पृथ्वी का समस्त सोना मुट्ठी भर बालू के सदृश है

और उसके सामने चाँदी कीच ही समझी जायेगी। 

मैंने उसे स्वास्थ्य और सौन्दर्य से अधिक प्यार किया

और उसे अपनी ज्योति बनाने का निश्चय किया;

क्योंकि उसकी दीप्ति कभी नहीं बुझती।

मुझे उसके साथ-साथ सब उत्तम वस्तुएँ मिल गयी

और उसके हाथों से अपार धन-सम्पत्ति।

मैंने उन सब के साथ आनन्द मनाया, क्योंकि वे मुझे प्रज्ञा द्वारा मिली थी;

यद्यपि मैं उस समय नहीं जानता कि प्रज्ञा ही उन सब की जन्मदात्री है"

(प्रज्ञा ग्रन्थ अध्याय 7:7-12)।








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