2014-12-13 12:09:53

प्रेरक मोतीः क्रूस के सन्त जॉन (1542-1591)


वाटिकन सिटी, 14 दिसम्बर सन् 2014:

14 दिसम्बर को काथलिक कलीसिया क्रूस के सन्त जॉन का पर्व मनाती है। जॉन का जन्म स्पेन के फोन्टीवरोस में सन् 1542 ई. में हुआ था। अपने माता पिता से जॉन ने त्याग व तपस्या में जीवन यापन की शिक्षा पाई थी। जॉन के पिता एक धनी और समृद्ध परिवार में जन्में थे किन्तु एक निर्धन जुलाहे की बेटी से विवाह रचा कर उन्होंने अपने समृद्ध परिवार को नाराज़ कर दिया था जिन्होंने उन्हें सभी पारिवारिक धन-सम्पदा से वंचित कर दिया था। पिता की मृत्यु के उपरान्त, जॉन, अपनी माँ के साथ, दर दर भटकने को मजबूर हो गये थे। न घर था और न जीविका का कोई साधन। इन्हीं कठिनाइयों के कारण जॉन ईश्वर के निकट आये तथा ईश प्रेम का स्वाद चख पाये।


स्पेन के समृद्ध समाज के किसी परिवार में जॉन की माता जी नौकरानी थीं किन्तु जॉन को कई बार भूखे पेट ही सोना पड़ता था। 14 वर्ष की आयु में जॉन ने पागलों एवं असाध्य रोगियों की देखरेख करनेवाले एक अस्पताल में नौकरी कर ली। निर्धनता, दरिद्रता एवं बीमारियों के इन्हीं कठोर अनुभवों ने जॉन को सांसारिक वस्तुओं में नहीं अपितु ईश्वर में सुख खोजने की प्रेरणा प्रदान की। कुछ समय बाद जॉन कारमेल मठवासी धर्मसमाज में प्रविष्ट हो गये। इसी दौरान अवीला की सन्त तेरेसा ने अपने धर्मसंघ में सुधार हेतु जॉन से मदद का आग्रह किया। जॉन ने धर्मसंघीय जीवन में प्रार्थना के मूल्य को सर्वोपरि बताया। कुछेक कारमेल मठवासी जॉन के सुधारों से सन्तुष्ट नहीं थे जिन्होंने जॉन का अपहरण कर अपना विरोध प्रकट किया। जॉन अपनी योजना में सफल न होने पायें इसलिये उन्होंने उन्हें छःफुट छोटे से कमरे में बन्द कर दिया था। कमरा छोटा होने के साथ साथ ठण्डा और अन्धकारपूर्ण भी था जिसमें प्रकाश के लिये केवल एक छोटा सा छेद था। मठवासियों ने जॉन को कई दिनों भूखा रखा तथा सप्ताह में तीन दिन उनकी पिटाई भी किया करते थे किन्तु ईश्वर में अपने अटल विश्वास के बल पर जॉन सबकुछ सहते गये।


नौ महीने बाद किसी तरह जॉन क़ैद से मुक्त हो गये तथा कम्बलों की रस्सी बनाकर मठ से बाहर निकल गये। वे अपने साथ केवल उस रहस्यमय कविता को ले गये जो उन्होंने अपने नौमासिक क़ैद के दौरान लिखी थी। तदोपरान्त, उनका जीवन केवल यात्रा करते तथा ईश प्रेम के अनुभव को अन्यों में बाँटते बीता। निर्धनता, तिरस्कार एवं अत्याचार से कोई भी टूट जाता किन्तु जॉन अपने विश्वास में और अधिक मज़बूत हो गये तथा ईश्वर में विश्वास के परिणामस्वरूप ही एक दयालु रहस्यवादी बने जिन्होंने हमें शिक्षा दी हैः "जहाँ प्रेम नहीं है वहाँ प्रेम दर्शायें और आप प्रेम के पात्र बनेंगे।"


क्रूस के सन्त जॉन ने कई ऐसी कृतियाँ छोड़ी हैं जो आज भी हमें आध्यात्मिक विकास एवं प्रार्थना हेतु व्यावहारिक परामर्श देती हैं। प्रार्थना पर उनकी मूल्यवान कृतियाँ आज भी समसामयिक हैं। इन कृतियों में प्रमुख हैं: "माऊन्ट कारमेल तक आरोहण", "आत्मा की काली रात" तथा "आत्मा का आध्यात्मिक स्तुतिगान"।


14 दिसम्बर सन् 1591 ई. को क्रूस के सन्त जॉन का निधन हो गया था। सन् 1726 ई. में, सन्त बेनेडिक्ट 13 वें ने उन्हें सन्त घोषित कर कलीसिया के सन्त एवं आचार्य की उपाधि से सम्मानित किया था। क्रूस के सन्त जॉन काथलिक कलीसिया के 35 आचार्यों में से एक हैं जिनका पर्व 14 दिसम्बर को मनाया जाता है।


चिन्तनः "धन्य हो तुम जब लोग मेरे कारण तुम्हारा अपमान करते हैं, तुम पर अत्याचार करते हैं और तरह-तरह के झूठे दोष लगाते हैं। खुश हो और आनन्द मनाओ स्वर्ग में तुम्हें महान् पुरस्कार प्राप्त होगा। तुम्हारे पहले के नबियों पर भी उन्होंने इसी तरह अत्याचार किया" (सन्त मत्ती 5:11-12)।








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