2014-12-03 12:32:32

प्रेरक मोतीः सन्त फ्राँसिस ज़ेवियर ( 1506 – 1552)


वाटिकन सिटी, 03 दिसम्बर सन् 2014:
विख्यात रोमन काथलिक मिशनरी फ्राँसिस ज़ेवियर येसु धर्मसमाजी का जन्म स्पेन के नव्वारे राज्य में 07 अप्रैल, सन् 1506 ई. को हुआ था। वे येसु धर्मसमाज के सह-संस्थापक भी हैं। फ्राँसिस ज़ेवियर येसु धर्मसमाज के संस्थापक लोयोला के सन्त इग्नेशियस के सहपाठी थे तथा उन 07 येसु धर्मसमाजियों में से एक थे जिन्होंने पेरिस के मोन्तेमार्ते में, सन् 1534 ई. में अकिंचनता एवं ब्रहम्चर्य का व्रत धारण किया था।

एशिया में पुर्तगाली उपनिवेशियों के काल में फ्राँसिस ज़ेवियर ने सुसमाचार प्रचार का बीड़ा उठाया था तथा अपने प्रेरितिक कार्यों के लिये भारत के सर्वाधिक प्रिय मिशनरी बन गये हैं। भारत के अतिरिक्त, फ्राँसिस ज़ेवियर ने, जापान, बोरनेओ एवं मालुकु द्वीप में भी सुसमाचार का प्रचार किया तथा कईयों को ख्रीस्त के प्रकाश से आलोकित किया। चीन में सुसमाचार की ज्योति प्रज्वलित करने के लिये फ्राँसिस ज़ेवियर उत्सुक थे किन्तु दुर्भाग्यवश वहाँ पहुँचने से पूर्व ही शांगचुआन द्वीप में, 03 दिसम्बर सन् 1552 ई. को, उनका निधन हो गया था।

फ्राँसिस ज़ेवियर को सन्त पापा पौल पंचम ने 25 अक्टूबर, 1619 ई. को धन्य घोषित किया था तथा 12 मार्च, सन् 1622 ई. को सन्त पापा ग्रेगोरी 15 वें ने उन्हें सन्त घोषित कर कलीसिया में वेदी का सम्मान प्रदान किया था। सन् 1624 ई. में, सन्त फ्राँसिस ज़ेवियर को नव्वारे से साथ-साथ सान्तियागो का भी संरक्षक सन्त घोषित किया गया था। सन्त पौल के बाद, सन्त फ्राँसिस ज़ेवियर को काथलिक कलीसिया के महान मिशनरी माना जाता है। उन्हें भारत के प्रेरित एवं जापान के प्रेरित नामों से अलंकृत किया गया है। लिसुक्स की सन्त तेरेसा के साथ-साथ सन्त फ्राँसिस ज़ेवियर को भी विदेश में मिशनरी कार्यों के संरक्षक घोषित किया गया है। भारत एवं एशिया के महान मिशनरी, येसु धर्मसमाजी पुरोहित, सन्त फ्राँसिस ज़ेवियर का पर्व 03 दिसम्बर को मनाया जाता है।

चिन्तनः "ईसा ने अपने शिष्यों के अतिरिक्त अन्य लोगों को भी अपने पास बुला कर कहा, ''जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो ले। क्योंकि जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता है, वह उसे खो देगा और जो मेरे तथा सुसमाचार के कारण अपना जीवन खो देता है, वह उसे सुरक्षित रखेगा। मनुष्य को इससे क्या लाभ यदि वह सारा संसार तो प्राप्त कर ले, लेकिन अपना जीवन ही गँवा दे?" (सन्त मारकुस 8: 34-36)।








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