सन्त कलिस्तुस प्रथम, सन् 2018 ई. से अपनी
मृत्यु तक यानि 223 ई. तक, रोम के धर्माध्यक्ष एवं कलीसिया के परमाध्यक्ष थे। रोमी सम्राट
एलागाबलूस तथा एलेक्ज़ेनडर सेवेरुस के शासन काल में कलिस्तुस रोम में थे। सन्त हिपोलितुस
के लेखों से पता चलता है कि वे रोम के सामन्त कारपोरफोरुस के यहाँ दास थे जिन्हें बैंक
खातों की रखवाली का कार्यभार सौंपा गया था। इन्हीं खातों में आरम्भिक ख्रीस्तीयों की
जमा पूँजी सुरक्षित रखी जाती थी किन्तु जब बैंक असफल रहा तब इसका दोष कलिस्तुस पर मढ़
दिया गया था। अकारण अपराधी घोषित किये जाने तथा बन्दी बना लिये जाने के भय से वे रोम
छोड़कर भाग गये थे किन्तु बाद में फिर रोम लौट आये थे।
वापस लौटने के बाद
कलिस्तुस ने आरम्भिक कलीसियाई समुदाय के लिये सराहनीय कार्य किये जिसके लिये उन्हें रोम
का धर्माध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया था। आरम्भिक कलीसीयाई समुदाय, व्याभिचारियों एवं
हत्यारों जैसे अपराधियों के लिये कठोर दण्ड को उचित ठहराता था किन्तु कलिस्तुस ने इस
प्रवृत्ति को बदला। उनका कहना था कि यदि अपराधी अपने पापों पर पश्चाताप कर माफी मांगे
तो वह क्षमा का हकदार है तथा उसे पुनः कलीसियाई समुदाय में प्रवेश दिया जाना चाहिये।
सन्त हिपोलितुस इस बात से सहमत नहीं थे। वे हर मौके पर कलिस्तुस का विरोध करते थे। उनपर
ये आरोप भी लगाये गये कि अतीत में ख़ुद पापी होने की वजह से कलिस्तुस अब पापियों को कलीसिया
में स्थान दिलवाना चाहते थे।
इसके अतिरिक्त, सन्त पापा कलिस्तुस प्रथम के
युग में अपधर्मियों का भी बोलबाला था जिनका सामना उन्होंने डटकर किया। सन् 223 ई. में
कलिस्तुस को उनके ख्रीस्तीय विश्वास के ख़ातिर मार डाला गया था। शहीद सन्त कलिस्तुस प्रथम
का पर्व 14 अक्टूबर को मनाया जाता है।
चिन्तनः "मैं अब
जीवित नहीं रहा, बल्कि मसीह मुझ में जीवित हैं। अब मैं अपने शरीर में जो जीवन जीता हूँ,
उसका एकमात्र प्रेरणा-स्रोत है-ईश्वर के पुत्र में विश्वास, जिसने मुझे प्यार किया और
मेरे लिए अपने को अर्पित किया" (गलातियों 2:20)।