वाटिकन सिटीः करुणा, सहभागिता, यूखारिस्त है ख्रीस्त के अनुयायी की पहचान, सन्त पापा
फ्राँसिस
"अति प्रिय भाइयो एवं बहनो, शुभ प्रभात!
इस रविवार के लिये निर्धारित सन्त मत्ती
रचित सुसमाचार पाठ, अध्याय 14, पद संख्या 13 से 21, हमारे समक्ष रोटी एवं मछलियों के
गुणन का चमत्कार प्रस्तुत करता है। येसु ने इसे, गलीलिया की भील के किनारे, उस एकाकी
स्थल पर सम्पादित किया था जहाँ वे, योहन बपतिस्ता की मृत्यु के बारे में जानने के उपरान्त
अपने शिष्यों के साथ प्रार्थना करने गये थे। वहाँ कई लोग उनके पीछे हो लिये तथा वहाँ
तक पहुँच गये जहाँ वे थे; उन्हें देखकर, येसु को दया आ गई और उन्होंने सन्ध्या काल तक
रोगियों को चंगाई प्रदान की। तब, देर होते देख, शिष्यों ने येसु को सुझाव दिया कि वे
जनसमुदाय को विदा कर दें ताकि वे गाँव जाकर अपने लिये कुछ खाने को ख़रीद सकें। किन्तु
येसु ने बड़े शान्त भाव से उन्हें उत्तर दियाः "उन्हें जाने की जरूरत नहीं। तुम लोग
ही उन्हें खाना दे दो" (सन्त मत्ती 14,16); और फिर उन्हें पाँच रोटियाँ और दे मछलियाँ
लाने के लिये कहा, उनपर आशीष दी, उन्हें तोड़ना शुरु किया और शिष्यों को देते गये ताकि
वे लोगों में उन्हें बाँट दें। सबने खाया और खा कर तृप्त हो गये, और उसके बाद भी बहुत
कुछ बच गया।"
सन्त पापा ने कहा कि इस घटना से हम तीन सन्देश ग्रहण कर सकते हैं.............
"पहला है करुणा। उस जनसमुदाय के समक्ष जो उनके पीछे हो लिया था तथा – मानों – उन्हें
छोड़ने को तैयार नहीं था, येसु झुँझलाते नहीं हैं, वे यह नहीं कहते हैं कि "इन लोगों
से मैं परेशान हूँ"। नहीं, नहीं। वे केवल एक भाव से अपनी प्रतिक्रिया दर्शाते हैं, वे
उन लोगों के लिये करुणा महसूस करते हैं, क्योंकि वे जानते थे कि लोग केवल कुतुहलवश उनका
पीछा नहीं कर रहे थे बल्कि अपनी ज़रूरतों के लिये उनकी खोज में थे। तथापि, हम सावधान
रहें: वह करुणा जिसे येसु ने महसूस किया – वह केवल दया नहीं है; उससे भी अधिक है! करुणा
का अर्थ है अन्यों के दुःख में शामिल होना तथा अन्यों के दुःख को अपने ऊपर लेना। येसु
यही हैं वे हमारी पीड़ा में हमारे साथ पीड़ित होते हैं। हमारे साथ एवं हमारे लिये दुःख
उठाते हैं और इस करुणा का संकेत हमें उनके द्वारा सम्पादित असंख्य चंगाईयों में मिलता
है। येसु हमें सिखाते हैं कि हम अपनी ज़रूरतों से पहले निर्धनों की ज़रूरतों के बारे
में सोचें। हमारी आवश्यकताएँ, हालांकि वैध हैं, उन निर्धनों की आवश्यकताओं से अधिक ज़रूरी
कभी नहीं हो सकती जिनके पास जीने के लिये प्राथमिक आवश्यकताएँ भी नहीं हैं। हम प्रायः
निर्धनों की बात करते हैं, किन्तु जब निर्धनों के बारे में बात करते हैं तब क्या हम महसूस
करते हैं कि उस व्यक्ति, उस महिला या उस बच्चे के पास जीने के लिये आवश्यक साधन नहीं
हैं? कि उनके पास खाने को नहीं है, पहनने को नहीं है, चिकित्सा पाने की कोई सम्भावना
नहीं है? बच्चों के लिये भी स्कूल जाने की कोई सम्भावना नहीं है.......... और इसीलिये
हालांकि हमारी ज़रूरतें तर्कसंगत हैं वे उन निर्धनों की ज़रूरतों की तरह कभी भी आवश्यक
नहीं होंगी जिनके पास जीने के कोई साधन नहीं हैं।"
सन्त पापा फ्राँसिस
ने आगे कहाः "दूसरा सन्देश है भागीदारी का। येसु करुणा के साथ-साथ निर्धनों के साथ भागीदारी
महसूस कर रहे थे। थके हारे एवं भूख प्यास से पीड़ित लोगों के समक्ष शिष्यों की प्रतिक्रिया
तथा उसके विपरीत येसु की प्रतिक्रिया पर तनिक विचार करना हितकर हो सकता है। दोनों भिन्न
हैं। शिष्य सोचते हैं कि जनसमुदाय को विदा करना अच्छा होगा ताकि वे अपने भोजन का बन्दोबस्त
ख़ुद कर सकें। जबकि येसु कहते हैः "तुम लोग ही उन्हें खाना दे दो"। दो भिन्न भिन्न प्रतिक्रियाएँ,
जो दो प्रतिकूल तर्कों को प्रस्तुत करती हैं: शिष्य संसार के अनुकूल तर्क प्रस्तुत करते
हैं, और वह यह कि प्रत्येक को अपने बारे में सोचना चाहिये; इस प्रकार तर्क करते हैं मानों
कह रहे हों: "अपने आप अपना बन्दोबस्त करो"। येसु ईश्वर की तर्कणा को अनुसार तर्क करते
हैं जो है भागीदारी का। कितनी बार हम ज़रूरतमन्द भाई को न देखने के लिये दूसरी ओर मुँह
मोड़ लेते हैं! और इस प्रकार दूसरी ओर मुँह मोड़ लेना ही शील भाव से यह कहना है कि "आप
अपना बन्दोबस्त ख़ुद करें"। येसु ऐसा नहीं करतेः यह अहंकार है। यदि उन्होंने जन समुदाय
को विदा कर दिया होता तो बहुत से लोग भूखे ही रह जाते। जबकि ईश आशीष से अनुगृहीत एवं
एक दूसरे में बाँटी गई वे थोड़ी सी रोटियाँ और मछलियाँ सब के लिये परिपूर्ण रहीं। सावधान
हो जाइये, यह कोई जादू नहीं था, यह एक चिन्ह था! यह ईश्वर में विश्वास करने हेतु आमंत्रण
का एक चिन्ह है, हमारे दूरदर्शी पिता का चिन्ह जो हमारे प्रति दिन के आहार को कभी कम
नहीं होने देते है। ज़रूरत है तो केवल अन्यों को भाई मानकर उनमें इसे बाँटने की।"
सन्त पापा ने कहा कि करुणा और भागीदारी। अन्ततः एक तीसरा सन्देश है और वह यह
कि रोटियों वाला चमत्कार यूखारिस्त की पूर्व घोषणा है। इसे स्पष्टतः येसु के कृत्यों
में देखा जा सकता है जो रोटी तोड़ने और उसे लोगों में बाँटने से पहले "आशीष की प्रार्थना"
पढ़ते हैं (पद संख्या 19)। यह वही कृत्य है जिसे येसु अन्तिम भोजन कक्ष में दुहराते हैं,
जब उन्होंने मुक्तिदाता के बलिदान की स्मृति में यूखारिस्त की स्थापना की। यूखारिस्त
में येसु रोटी अर्पित नहीं करते अपितु अनन्त जीवन की रोटी प्रदान करते हैं, वे हमारे
प्रेम के कारण स्वतः को पिता को अर्पित कर देतं हैं। अस्तु, हमें भी यूखारिस्त ग्रहण
करते समय येसु के भावों से परिपूरित रहना चाहिये। हमें येसु के समान करुणा से परिपूरित
रहना चाहिये तथा हमें भी येसु के सदृश अन्यों के साथ सहभागिता से परिपूरित रहना चाहिये।
जो व्यक्ति ज़रूरतमन्द के प्रति करुणा तथा सहभागिता के अभाव में यूखारिस्त ग्रहण करता
है वह येसु से मेल नहीं खाता।"
सन्त पापा ने कहाः ..... "करुणा, सहभागिता, यूखारिस्त।
इस सुसमाचार पाठ द्वारा येसु इसी मार्ग पर हमारा पथप्रदर्शन करते हैं। ऐसा मार्ग जो हमें
भातृत्व भाव के साथ इस संसार की ज़रूरतों का सामना करने हेतु अग्रसर करता है, तथापि,
हमें इस संसार से परे अग्रसर करता है इसलिये कि वह पिता से शुरु होता है तथा पिता तक
जाता है। पवित्र कुँवारी मरियम, दिव्य संरक्षिका हमारी इस तीर्थयात्रा में हमारा साथ
दें।"
इन शब्दों से अपना सन्देश समाप्त कर सन्त पापा फ्राँसिस ने देवदूत प्रार्थना
का पाठ किया तथा उपस्थित भक्त समुदाय को अपना आशीर्वाद प्रदान किया।
तदोपरान्त,
सभी को शुभ रविवार की मंगलकामनाएं अर्पित की तथा विदा लेने से पूर्व अपने लिये प्रार्थना
का अनुरोध किया।