वाटिकन सिटी, 17 अप्रैल सन् 2014 (बाईबिल धर्मग्रन्थ/ विभिन्न व्याख्याएँ): पुण्य बृहस्पतिवार,
ईस्टर या पास्का महापर्व से पूर्व पड़नेवाला बृहस्पतिवार है।
मानवजाति की
मुक्ति के लिये प्रभु येसु मसीह ने क्रूस पर अपने प्राणों की बलि अर्पित कर दी तथा हम
सब के समक्ष प्रेम की एक अनोखी मिसाल प्रस्तुत की। क्रूस पर अर्पित येसु मसीह का अद्वितीय
एवं अनुपम बलिदान विश्व के सब लोगों को प्रेम, मैत्री एवं भ्रातृत्व के लिये प्रोत्साहित
करे, इस मंगल याचना के साथ, श्रोताओ, आज हम पास्का दिवसत्रय अर्थात् पुण्य बृहस्पतिवार,
पुण्य शुक्रवार एवं पुण्य शनिवार पर अपने चिन्तनों का सिलसिला आरम्भ कर रहे हैं।
येसु
के पुनःरुत्थान की स्मृति में मनाये जानेवाले पास्का महापर्व से पूर्व चालीस दिन तक ख्रीस्तीय
विश्वासी त्याग, तपस्या, उपवास, परहेज़ तथा उदारता के कार्यों से मनपरिवर्तन के लिये
आमंत्रित किये जाते हैं। यह आध्यात्मिक तीर्थयात्रा पास्का महापर्व के पूर्व पड़नेवाले
सप्ताह में येसु के दुखभोग तथा उससे सम्बन्धित घटनाओं के स्मरणार्थ सम्पन्न विविध धर्म
विधियों से अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचती है।
अनेक कारणों से येसु मसीह के
पुनःरुत्थान महापर्व से पूर्व पड़नेवाला बृहस्पतिवार पुण्य कहलाता है। सर्वप्रथम तो यह
दिवस यहूदी जाति के पास्का भोज का पावन दिवस है। यहूदी जाति में जन्म लेने के कारण येसु
मसीह ने भी अपनी मृत्यु से पूर्व पड़नेवाले बृहस्पतिवार को अपने शिष्यों के साथ भोजन
कर इस अवसर पर शिष्यों के पैर धोए तथा सम्पूर्ण विश्व के समक्ष युगयुगान्तर के लिये सच्चे
बड़प्पन की एक नई एवं क्राँतिकारी शिक्षा प्रस्तुत की।
पुण्य बृहस्पतिवार
पवित्र यूखारिस्तीय संस्कार की स्थापना का भी पावन दिवस है। रोटी और अँगूरी लेकर येसु
ने प्रार्थना पढ़ी तथा ईश्वर को अर्पित भेंट को, अपने देह एवं रक्त रूप में, शिष्यों
को बाँटकर यूखारिस्तीय संस्कार की स्थापना की। यह संस्कार मनुष्य के प्रति प्रभु के अनन्य
प्रेम का ठोस प्रमाण है। इसी संस्कार के माध्यम से वे सदा सर्वदा हमारे बीच विद्यमान
रहते हैं। येसु मसीह ने पौरोहित्य संस्कार की स्थापना कर इसे वंशगत परम्परा से मुक्त
किया तथा सभी जातियों एवं वंशों के लिये पौरोहित्य का द्वार खोला, इसकी स्मृति भी पुण्य
बृहस्पतिवार को मनाई जाती है। नये व्यवस्थान के याजक पशुबलि नहीं वरन् रक्तविहीन विधि
से ख्रीस्त के बलिदान को दुहराते तथा उनके मुक्तिकार्य को अनवरत जारी रखते हैं। सन्त
पौल के अनुसार "जब जब वे यह रोटी खाते और यह प्याला पीते हैं, वे प्रभु के आने तक उनकी
मृत्यु की घोषणा करते हैं।"
यहूदी जाति के पास्का भोज, पवित्र यूखारिस्तीय
संस्कार एवं पौरोहित्य संस्कार की स्थापना तथा प्रभु येसु द्वारा अपने शिष्यों के पाद
प्रक्षालन की स्मृति में आईये हम भी पुण्य बृहस्पतिवार पर चिन्तन करें:
पास्का
का अर्थ है पार होना। नबी मूसा के काल में मिस्र की दासता से मुक्त होकर उसी रात प्रतिज्ञात
देश की ओर निर्गमन की याद करते हुए यहूदी जाति पास्का पर्व मनाती रही थी। यहूदियों को
ईश्वर से आदेश मिला था कि मुक्ति की रात को वे अनन्त काल तक पर्व घोषित करें क्योंकि
इसी रात न्यायकर्त्ता ईश्वर मिस्र को दण्डित कर इस्राएलियों को मुक्त करनेवाले थे। प्रथम
पास्का अर्थात् मिस्र की दासता से मुक्ति की पूर्व बेला में यहूदियों ने पास्का मेमना
खाया तथा प्रभु के आदेशानुसार मेमने के रक्त से अपने घरों के दरवाज़ों को अंकित किया।
इस तरह उनके पहलौठे पुत्रों की प्राण रक्षा हो सकी।
पुण्य बृहस्पतिवार की
धर्मविधि के लिये माता कलीसिया, प्राचीन विधान के निर्गमन ग्रन्थ के 12 वें अध्याय में
निहित इस ऐतिहासिक घटना के पाठ हेतु हमें आमंत्रित करती है। प्रस्तुत है निर्गमन ग्रन्थ
के 12 वें अध्याय में निहित पास्का भोजन का विवरणः (पद संख्या 1 से 8 तथा 12 से 14) "प्रभु
ने मिस्र देश में मूसा और हारूण से कहा "यह तुम्हारे लिए आदिमास होगा; तुम इसे वर्ष का
पहला महीना मान लो। इस्राएल के सारे समुदाय को यह आदेश दो - इस महीने के दसवें दिन हर
एक परिवार एक एक मेमना तैयार रखेगा। यदि मेमना खाने के लिए किसी परिवार में कम लोग हों,
तो, जरूरत के अनुसार, पास वाले घर से लोगों को बुलाओ। खाने वालों की संख्या निश्चित्त
करने में हर एक की खाने की रुचि का ध्यान रखो। उस मेमने में कोई दोष न हो। वह नर हो और
एक साल का। वह भेड़ा हो अथवा बकरा। महीने के दसवें दिन तक उसे रख लो। शाम को सब इस्राएली
उसका वध करेंगे। जिन घरों में मेमना खाया जायेगा, दरवाजों की चौखट पर उसका लोहू पोत दिया
जाये।उसी रात बेखमीर रोटी और कड़वे साग के साथ मेमने का भूना हुआ मांस खाया जायेगा।"
फिर,
12 से लेकर 14 तक के पदों में: "उसी रात मैं, प्रभु मिस्र देश का परिभ्रमण करूँगा, मिस्र
देश में मनुष्यों और पशुओं के सभी पहलौठे बच्चों को मार डालूँगा और मिस्र के सभी देवताओं
को भी दण्ड दूँगा। तुम लोहू पोत कर दिखा दोगे कि तुम किन घरों में रहते हो। वह लोहू देख
कर मैं तुम लोगों को छोड़ दूँगा, इस तरह जब मैं मिस्र देश को दण्ड दूँगा, तुम विपत्ति
से बच जाओगे। तुम उस दिन का स्मरण रखोगे और उसे प्रभु के आदर में पर्व के रूप में मनाओगे।
तुम उसे सभी पीढ़ियों के लिए अनन्त काल तक पर्व घोषित करोगे।"
इस प्रकार
मुक्ति की पूर्व सन्ध्या यहूदियों ने पास्का मेमना खाया तथा मेमने के रक्त को अपने घरों
की चौखटों पर पोत कर अपनी अलग पहचान बनाई। ईश्वर ने अपनी प्रतिज्ञानुसार उनके पहलौठों
की प्राण रक्षा की तथा मिस्र के फराऊन को, उसके अहंकार के लिये, दण्डित किया। प्रभु ईश्वर
की कृपालुता के लिये कृतज्ञ यहूदी जाति प्रति वर्ष पास्का पर्व मनाती रही। चुनी हुई प्रजा
में जन्म लेने के कारण येसु भी पास्का पर्व के सभी रीति रिवाज़ों का अनुपालन करते रहे
किन्तु अपनी प्रेरिताई के तीसरे एवं अन्तिम वर्ष उन्होंने यहूदियों के पास्का को एक नया
अर्थ प्रदान कर दिया। प्राचीन व्यवस्थान में मेमने का रक्त मिस्र की दासता से मुक्ति
का प्रतीक बना जबकि नवीन व्यवस्थान में येसु ख्रीस्त स्वयं बलि का मेमना बने और उनका
रक्त मानवजाति की मुक्ति का प्रतीक। यहूदियों के पास्का में हमारे पूर्वज इब्राहिम को
दिया हुआ प्रभु याहवे का वचन पूरा हुआ जबकि ख्रीस्त का नया पास्का मानवजाति को पाप एवं
मृत्यु से मुक्ति दिलाने की नई प्रतिज्ञा सिद्ध हुई।
प्राचीन व्यवस्थान में
बलिदानों का उद्देश्य ईश्वर के कोप को शांत करना तथा उनके अनुग्रह की कामना करना था किन्तु
दुर्भाग्यवश कालान्तर में मनुष्य बलिदानों के मूल उद्देश्य को ही भुला बैठा। अस्तु, अर्पण
विधियों का सिलसिला एक ओर चलता रहा और दूसरी ओर मानव पाप के दलदल में फँसता चला गया इसीलिये
नबियों के मुख से प्रभु याहवे को यह फटकार बतानी पड़ीः "मैं तुम्हारे मेढ़ों और बछड़ों
की चर्बी से ऊब गया हूँ। मैं साड़ों, बकरों और मेमनों का रक्त नहीं चाहता, जब तुम मेरे
दर्शन को आते हो तो कौन तुमसे यह सब मांगता है?"
वस्तुतः येसु के बलिदान
के साथ ही प्राचीन काल में प्रचलित बलिदानों की निरर्थकता दूर हुई। नवीन पास्का के साथ
ही उन्होंने प्राचीन विधान को पूर्ण किया तथा नूतन विधान की स्थापना की। इसपर उन्होंने
अपने रक्त की मुहर लगाई ताकि चिरकाल तक यह हम सब के लिये मुक्ति का स्रोत बना रहे। येसु
मसीह के पास्का भोज के विषय में सन्त पौल लिखते हैं – "उन्होंने बकरों तथा बछड़ों का
नहीं बल्कि अपना रक्त लेकर सदा के लिये एक ही बार परमपावन स्थान में प्रवेश किया और इस
तरह हमारे लिये सदा सर्वदा बना रहनेवाला उद्धार प्राप्त किया है।"
क्रूस
पर अपनी मृत्यु की पूर्व सन्ध्या येसु मसीह ने अपने शिष्यों के साथ भोजन किया तथा रोटी
और दाखरस अपने शिष्यों में बाँटकर यूखारिस्त अर्थात् परमप्रसाद की स्थापना की। सन्त लूकस
के अनुसार (लूकस 22: 19,20) "उन्होंने रोटी ली और धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ने के बाद
उसे तोड़ा और यह कहते हुए शिष्यों को दिया, "यह मेरा शरीर है, जो तुम्हारे लिये दिया
जा रहा है। यह मेरी स्मृति में किया करो"। इसी तरह उन्होंने भोजन के बाद यह कहते हुए
प्याला दिया, "यह प्याला मेरे रक्त का नूतन विधान है। यह तुम्हारे लिये बहाया जा रहा
है।"
इन रहस्यपूर्ण शब्दों से प्रभु येसु ने प्राचीन विधान को नवीन विधान
में परिवर्तित किया तथा यूखारिस्तीय संस्कार की स्थापना की। मनुष्य जिसे कभी देख नहीं
सका था उस ईश्वर के साथ तादात्मय स्थापित करने हेतु वह आरम्भ ही से लालायित रहा था। यज्ञों
एवं अर्थहीन बलिदानों से वह उसके कोप से बचने की चेष्टा करता रहा था किन्तु शाश्वत महाप्रेरित
प्रभु येसु ने अन्तिम भोजन कक्ष में रोटी एवं अँगूरी पर आशीष दी तथा इन्हें अपने शिष्यों
में बाँटकर उस नवीन एवं रक्तहीन बलिदान की स्थापना की जो मनुष्यों के बीच प्रेम एवं सहभागिता
को प्रस्फुटित करता है। साथ ही ईश्वर एवं मनुष्य के मध्य आदिकाल से विद्यमान एकता की
प्रकाशना करता है। ख्रीस्त के आदेश के अनुसार नवीन व्यवस्थान के याजक रक्तहीन विधि से
इस बलिदान को अनवरत अर्पित किया करते हैं।
शिष्य द्वारा गुरु के चरण स्पर्श
अथवा दास द्वारा स्वामी के पैर धोए जाना ततकालीन यहूदी समाज में भी एक साधारण तथ्य था
किन्तु गुरु को शिष्यों के पैर धोते देखना अनहोनी एवं विचित्र बात थी। कौन बड़ा और कौन
छोटा? भला यह कैसे हो सकता है कि गुरु शिष्यों के पैर धोए? शिष्यों के अन्तनमन में छिड़े
इस द्वन्द को शांत करते हुए पास्का भोज के समय येसु मसीह ने उनके पैर धोए तथा सम्पूर्ण
मानवजाति के समक्ष दीनता, विनम्रता एवं निःस्वार्थ सेवा का अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया।
यहूदी जाति के पास्का भोज के समय घटी इस क्रान्तिकारी घटना में ही ख्रीस्तीय धर्म का
सार निहित है जिसके विषय में सन्त योहन लिखते हैं – (योहन 13- 4,5) "उन्होने भोजन पर
से उठकर अपने कपड़े उतारे और कमर में अँगोछा बाँध लिया। तब वे परात में पानी भरकर अपने
शिष्यों के पैर धोने और कमर में बँधे अँगोछे से उन्हें पोछने लगे।" और फिर (योहन 13-
12,13,14) "उनके पैर धोने के बाद वे अपने कपड़े पहनकर फिर बैठ गये और उनसे बोले, "क्या
तुम लोग समझते हो कि मैंने तुम्हारे साथ क्या किया है? तुम मुझे गुरु और प्रभु कहते हो,
क्योंकि मैं वही हूँ। इसलिये यदि मैं – तुम्हारे प्रभु और गुरु- ने तुम्हारे पैर धोए
हैं, तो तुम्हें भी एक दूसरे के पैर धोने चाहिये।"
श्रोताओ, आज
भी यह घटना अनोखी और विचित्र प्रतीत होती है। आज भी हमारे मन में सवाल उठते हैं क्या
कभी ऐसा हो सकता है? जी हाँ, ऐसा हुआ है। येसु मसीह ने अपने शिष्यों के पैर धोकर सम्पूर्ण
मानवजाति के समक्ष दीनता, विनम्रता एवं निःस्वार्थ सेवा की अनोखी मिसाल प्रस्तुत की।
येसु के आगमन तक मनुष्य ईश्वर से भय खाता रहा था तथा उनके कोप से बचने के लिये कृत्रिम
धार्मिक गतिविधियों एवं जटिल रीति रिवाज़ों के जाल में फँसा रहा था किन्तु येसु मसीह
ने अपने जीवन एवं कार्यों द्वारा ईश्वर एवं मानव के बीच विद्यमान पिता और सन्तान के घनिष्ठ
सम्बन्ध की प्रकाशना की। "ईश्वर परम प्रेम हैं", यह आश्वासन भी मानव को येसु मसीह से
ही मिला। नबी इसायाह मनुष्य के प्रति ईश्वर के प्रेम को माँ के प्रेम से श्रेष्ठकर घोषित
करते हैं – "क्या स्त्री अपना दुधमुहा बच्चा भुला सकती है? क्या वह अपनी गोद के पुत्र
पर तरस नहीं खायेगी? यदि वह भुला भी दे तो भी मैं तुम्हें कभी नहीं भुलाऊँगा।"
श्रोताओ, माँ त्याग एवं सेवा की साक्षात देवी है। वह अपनी सन्तान के प्रेम के लिये
सब कुछ को तैयार हो जाती है तो उनका प्रेम कितना महान होगा जिन्होंने अपने पुत्र को ही
हमारे लिये अर्पित कर दिया? येसु ख्रीस्त के मृत्यु बलिदान में हमें पिता ईश्वर के असीम
प्रेम का ठोस प्रमाण मिला इसीलिये प्रेम पर उनकी शिक्षा को याद करना तथा उसका पालन करना
हमारा धर्म है। पास्का भोज के बाद शिष्यों से विदा लेते समय येसु का यह आदेश कि "जैसा
मैंने तुम लोगों से प्यार किया वैसा तुम भी करो", युगयुगान्तर तक मानवजाति के लिये उनका
गुरुमंत्र बनकर रह गया है जिसमें भागीदार बनने के लिये हम सब आमंत्रित हैं।