2014-01-23 11:46:32

प्रेरक मोतीः सन्त विन्सेन्ट पाल्लोत्ती (1795 -1850 ई.)


वाटिकन सिटी, 22 जनवरी सन् 2014

18 वीं शताब्दी के काथलिक पुरोहित फादर विन्सेन्ट पाल्लोत्ती का जन्म रोम में, 21 अप्रैल, सन् 1795 ई. को हुआ था। विन्सेन्ट नोर्च्या के पाल्लोत्ती तथा रोम के दे रोस्सी कुलीन घराने के सदस्य थे। आरम्भिक शिक्षा उन्होंने सान पान्तालेओने स्थित पायस स्कूल में प्राप्त की थी जहाँ से वे रोम के गुरुकुल चले गये थे। 16 वर्ष की आयु में विन्सेन्ट ने पुरोहित बनने की इच्छा व्यक्त की तथा 16 मई, 1820 ई. को पुरोहित अभिषिक्त कर दिये गये थे।

विन्सेन्ट ने अपना सम्पूर्ण जीवन प्रभु ईश्वर की सेवा में अर्पित कर दिया था। आत्माओं के उद्धार के लिये वे घण्टों प्रार्थना किया करते थे। सभी मनुष्यों को प्रभु येसु ख्रीस्त के प्रेम परिचित कराना उन्होंने अपने जीवन का मिशन मान लिया था। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उन्होंने एक क्रान्तिकारी प्रेरितिक कार्यक्रम का उदघाटन किया तथा उसमें पुरोहितों एवं धर्मबहनों के साथ साथ लोकधर्मियों की भागीदारी को सम्मिलित किया।

सुसमाचार के प्रचार में आनेवाली बाधाओं से भी विन्सेन्ट भलीभाँति परिचित थे तथापि उनका विश्वास था कि सुसमाचार में निहित प्रेम के साक्षी बनकर लोगों में ख्रीस्त की ज्योति जलाई जा सकती थी। उन्होंने समाज के निर्धनों एवं हाशिये पर रहनेवाले लोगों के पक्ष में कई कल्याणकारी योजनाएँ आरम्भ की। श्रमिकों के लिये संगठनों की रचना की, कृषि विद्यालय खोले, निर्धनों को अपनी जीविका कमाने के अवसर प्रदान करने के लिये ऋण देना आरम्भ किया, परित्यक्तों, महिलाओं, लड़कियों एवं अनाथ बच्चों के लिये आश्रमों की स्थापना की।

अपनी इन्हीं कल्याणकारी योजनाओं के चलते विन्सेन्ट यूरोप के "काथलिक एक्शन" संगठन के प्रवर्तक बने। शहरों में कलीसियाई मिशन कार्यों के लिये उन्होंने "सोसाईटी फॉर काथलिक एक्शन" धर्मसंघ की स्थापना की थी। पुरोहितों के लिये उन्होंने "पायस सोसाईटी ऑफ मिशन्स" नामक धर्मसमाज की स्थापना की जिसे आज पाल्लोत्ती धर्मसमाज के नाम से जाना जाता है। बताया जाता है कि शीत ऋतु की भयंकर सर्दी में उन्होंने अपना लबादा एक भिखारी को दे दिया था जिसके बाद वे ख़ुद बुखार एवं ज़ुकाम से ग्रस्त हो गये थे। इसी बीमारी में, 22 जनवरी, सन् 1850 ई. को विन्सेन्ट पाल्लोत्ती का निधन हो गया था। सन्त विन्सेन्ट पाल्लोत्ती का पर्व 22 जनवरी को मनाया जाता है।




चिन्तनः "प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिषेक किया है। उसने मुझे भेजा है कि मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, दुःखियों को ढारस बँधाऊँ; बन्दियों को छुटकारे का और कैदियों को मुक्ति का सन्देश सुनाऊँ; प्रभु के अनुग्रह का वर्ष और ईश्वर के प्रतिशोध का दिन घोषित करूँ; विलाप करने वालों को सान्त्वना दूँ, राख के बदले उन्हें मुकुट पहनाऊँ, शोक-वस्त्रों के बदले आनन्द का तेल प्रदान करूँ और निराशा के बदले स्तुति की चादर ओढ़ाऊँ"(इसायाह 61: 1-3)।








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