2013-12-12 19:22:58

विश्व शान्ति दिवस 2014 के लिये सन्त पापा का सन्देश


47वें विश्व शांति दिवस के लिये

संत पापा फ्राँसिस का संदेश

1 जनवरी 2014



भ्रातृत्व, शांति का आधार और मार्ग

1. विश्व शांति दिवस के लिये मेरे इस प्रथम संदेश में, मैं प्रत्येक जन, व्यक्तियों एवं राष्ट्रों को आनन्द और आशा से पूर्ण जीवन की कामना करता हूँ। वास्तव में, प्रत्येक पुरुष और महिला के दिल में पूर्ण जीवन की इच्छा के साथ भ्रातृत्व की एक अदम्य आकांक्षा है, जो मानव को दूसरों के साथ मैत्री के लिये आमंत्रित करती और दूसरे को न विरोधी न ही प्रतिद्वन्द्वी समझती, पर ऐसा भाई या बहन मानती जिसे अपनाया और गले लगाया जा सके।

वास्तव में, भ्रातृत्व मानव का अति महत्वपूर्ण गुण है, क्योंकि मानव संबंधपरक प्राणी है। संबंधपरकता की इस गहरी चेतना हमें इस बात के लिये प्रेरित करती है कि हम दूसरे को सच्चे भाई और असल बहन के समान देखें और वर्ताव करे; जिसके बिना एक सच्ची तथा स्थायी शांति तथा न्यायपूर्ण समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। हम आज स्वयं को याद दिलायें कि हम भ्रातृत्व के बारे में परिवार में सीखते हैं, विशेष करके परिवार के प्रत्येक सदस्य की ज़िम्मेदारी और पूरक भूमिका के लिये हम उनके आभारी हैं और बहुत ही विशेष रूप से माता और पिता के प्रति। परिवार भ्रातृत्व का स्रोत है और इसीलिये यह इसकी नींव भी है, और शांति का मुख्य मार्ग भी, क्योंकि अपनी बुलाहट के अनुसार, इसे अपने प्यार का विस्तार पूरी दुनिया में करना है।

तेजी से बढ़ते हुए अंतःसंबधन और सम्प्रेषण के साधनों के विकास ने राष्ट्रों की एकता और उनके सामूहिक लक्ष्य का हमें गहरा आभास दिलाया है। इतिहास की गतिशीलता में सामुदायिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विभिन्नताओं के बावजूद हमारे लिये एक आह्वान है कि हम व्यक्तियों का एक ऐसा समुदाय बनायें, जहाँ वे एक-दूसरे से मिलें और एक-दूसरे के लिये कार्य करें। पर यही बुलाहट ‘उदासीन वैश्वीकृत दुनिया’ के साथ आज भी बहुधा टकराती, सच्चाइयों को अस्वीकार करती, तथा पीड़ितों के प्रति हमें धीरे-धीरे ‘आदि बना’ देती और हमें अपने-आप में बन्द करा देती।

दुनिया के कई भागों में, ऐसा लगता है कि मूलभूत मानवाधिकारों का हनन, विशेष करके जीवन और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों का हनन मानो समाप्त होना जानता ही नहीं। मानव तस्करी की दुःखद घटनायें इसका एक चिन्ताजनक उदाहरण है। युद्ध, जो आर्थिक और अर्थव्यवस्था के दायरे में लड़े जाते हैं वे हथियारों की लड़ाई से कम दृश्य होते हैं पर कम क्रूर नहीं, वे जीवन, परिवार और व्यवसायों का विनाश करते हैं।

वैश्वीकरण, जैसा कि संत पापा बेनेदिक्त ने कहा, यह हमें पड़ोसी बनाता, पर भाई नहीं। इसके अलावा असमानता, गरीबी और अन्याय जैसी परिस्थितियाँ इस बात की ओर इंगित करतीं हैं कि न केवल भ्रातृत्व का अत्यंत अभाव है, बल्कि सहयोग की संस्कृति का अभाव है। नयी विचारधारायें जिसकी विशेषता है बडे पैमाने पर व्यक्तिवाद. स्वकेन्द्रित और भौतिकवादी उपभोक्तावाद, सामाजिक रिश्तों को कमजोर करतीं, तथा ‘बरबादी’ की मानसिकता को भड़कातीं, जिससे सबसे कमजोर, तिरस्कार और उपेक्षा के शिकार हो जाते हैं तथा उन्हें ‘अनुपयोगी’ समझा जाता है। और इस तरह से मानव समाज मात्र रुपये की तरह व्यावहारिक और स्वार्थी बन कर रह जाता है।

इसके साथ-ही-साथ समकालीन नैतिक दबाव भी सच्चे भ्रातृत्व को पैदा करने में असमर्थ है, क्योंकि बिना किसी एक पिता को इसकी मौलिक नींव माने बिना, इसका अस्तित्व नहीं है। लोगों के बीच सच्चा भ्रातृत्व, उत्कृष्ट पितृत्व की परिकल्पना और माँग करता है। इस उत्कृष्ट पितृत्व की मान्यता लोगों के बीच भ्रातृत्व को सुदृढ़ करती हैः प्रत्येक व्यक्ति ऐसा ‘पड़ोसी’ बनता है जो दूसरे का ख़्याल करता हो।


" तुम्हारा भाई कहाँ है? " ( उत्पति 4,9)

2. भ्रातृत्व की इस बुलाहट को ठीक से समझने के लिये यह ज़रूरी है कि हम इसे पूरा करने के मार्ग में आने वाली उन बाधाओं को जानें और उनको दूर करने के रास्तों की पहचान करें। इसके लिये यह भी ज़रूरी है कि हम ईश्वर की योजना द्वारा मार्गदर्शन पायें जिसे पवित्र धर्मग्रंथ में स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया गया है।

‘उत्पति की कहानी’ में हम पाते हैं, सबकी उत्पति ईश्वर द्वारा अपने सदृश और प्रतिरूप (उत्पति 1.26) सृष्ट दम्पति आदम और हेवा से हुई और उन्होंने काईन और हाबिल को जन्म दिया। आदि परिवार की कथा में हम समाज की उत्पति एवं व्यक्ति तथा राष्ट्र के संबंधों के उद्भव के बारे में पढ़ते हैँ।

हाबिल एक चरवाहा था और काइन एक किसान। संस्कृति और व्यवसाय के कारण ईश्वर और प्रकृति के साथ उनके संबंधों की भिन्नता के बावजूद उनकी गहरी पहचान तथा उनकी बुलाहट थी - एक-दूसरे के साथ भ्रातृत्व। किन्तु काइन के द्वारा हाबिल की हत्या से इस विशेष बुलाहट का अपमान हुआ। इस तरह (उत्पति 4,1-16) उनकी कहानी इस बात की ओर इंगित करती है कि भाई के साथ मिल कर रहना और उसकी देखभाल करना कितना कठिन बुलावा है। काइन इस बात को स्वीकार नहीं कर पाता है कि उत्तम भेड़ की बलि चढ़ानेवाले हाबिल के ईश्वर विशेष प्रेम करे और काइन और उसके दान को नहीं। (उत्पति 4, 4-5) वह ईर्ष्यावश हाबिल की हत्या कर दिया।

इस तरह से वह अपने भाई को पहचानने और सकारात्मक रिश्ता बनाये रखने से इंकार किया और ईश्वर के सम्मुख अपने भाई की देखरख तथा रक्षा करने के दायित्व से मुख मोढ़ लिया। अपने कार्यो का लेखाजोखा देने के लिये ईश्वर के इस प्रश्न कि "तुम्हारा भाई कहाँ है?" उसने कहा, "मुझे नहीं मालूम, क्या मैं अपने भाई का रखवाला हूँ ? (उत्पति 4,9) और तब उत्पति ग्रंथ कहता है, " तब काइन ईश्वर से दूर चला गया।" (उत्पति 4,16)

हमें इस बात का पता लगाना चाहिये कि किन कारणों से काइन अपने भाई हाबिल के साथ भ्रातृत्व, पारस्परिक संबंध और एकता के बंधन को गलत समझा। अपने निकट रहकर बुराई करने और आलोचना करनेवाले काइन को ईश्वर डाँटते हैं। "पाप तुम्हारे द्वार पर दुबका हुआ है।" (उत्पति 4,7) काइन ने बुराई का का पथ छोड़ने से इंकार किया और अपने " भाई हाबिल के विरुद्ध में जाने का निर्णय किया " (उत्पति 4, 8) तथा ईश्वर की योजना की अवमानना कर, ईश्वर की संतान होने और भ्रातृभाव से जीने की बुलाहट को कुचल दिया।

काइन और हाबिल की कहानी हमें यह पाठ सिखाती है कि मानवता भ्रातृत्व की बुलाहट से बंधा हुआ तो है ही पर इसमें नाटकीय विश्वासघात की संभावनायें भी हैं। प्रत्येक दिन हम स्वार्थ की ख़बरें पाते हैं, जो कई अन्यायों और युद्धों की जड़ हैं; सच तो यह है कि आज कई भाई और बहन अपने ऐसे भाई-बहनों के हाथों मारे जाते हैं क्योंकि वे पारस्परिकता और भाईचारा के वरदान को समझने में असमर्थ हैँ।


" और तुम सब भाई कहलाओगे " (संत मत्ती 23,8)

3. प्रश्न उठता हैः इस दुनिया के पुरुष और महिला भ्रातृत्व के इस प्यास को जिसे पिता परमेश्वर ने उनके दिल में अंकित कर दिया क्या कभी पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर सकते हैं? क्या वे अपनी शक्ति से, उदासीनता, स्वार्थ और घृणा पर विजयी होकर भाई और बहन के बीच जो तर्कसंगत अन्तर है उसे स्वीकार कर सकते हैं?

अगर हम इस संबंध में येसु की बात को आसानी से समझना चाहें तो हम कह सकते हैः क्योंकि एक पिता है, जो ईश्वर है और हम हैं उनकी संतान हैं (मत्ती 23, 8-9)। भ्रातृत्व का आधार है। हम ईश्वर के उस पितृत्व के बारे में चर्चा नहीं कर रहे हैं - जो सामान्य, अस्पष्ट और ऐतिहासिक रूप से अप्रभावी है पर उसकी कर रहे हैं पर ईश्वर के उस प्रेम के बारे में चर्चा कर रहै हैं जो हर मानव के लिये व्यक्तिगत, समयानुकूल एवं अभूतपूर्व है। (मत्ती 6, 25-30)
इस तरह से पितृत्व, प्रभावी तरीके से भ्रातृत्व का सृजन करता है क्योंकि ईश्वर के प्रेम को जब स्वीकार किया जाता है, तब यह अपने लोगों के बीच एकता लाता और जीवन को बाँटने और आपसी रिश्तों को बदलने का एक सशक्त साधन बन जाता है।

भ्रातृत्व, विशेष रूप से, येसु ख्रीस्त की मृत्यु और पुनरुत्थान द्वारा नवजीवित और नवीकृत होता है। क्रूस ही भ्रातृत्व के आधार का वह निश्चित स्थान है जिसे व्यक्ति अपनी शक्ति से प्राप्त नहीं कर सकता है। येसु ख्रीस्त ने दुनिया को बचाने के लिये मानव स्वभाव धारण किया, अपने पिता की आज्ञा को पूर्ण करते हुए, क्रूस तक की मृत्यु को स्वीकारा (फिलि,2,8) और ईश्वर की इच्छा तथा उसकी योजना के अनुसार पुनरुत्थान द्वारा हमें एक ऐसी नयी मानवता प्रदान की जिसमें भातृत्व की बुलाहट की पूर्णता भी शामिल है।

येसु, पिता ईश्वर की योजना को आरंभ से ही स्वीकार करते और इसे ही सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। येसु के द्वारा पिता की आज्ञा मानते हुए म़ृत्यु के लिये अपने को समर्पित कर देना हमारे लिये नया और स्पष्ट उदाहरण है ताकि येसु में हम दुनिया के सब लोगों को अपना भाई-बहन मानें क्योंकि सब लोग एक ईश्वर की संतान हैं। येसु ही व्यवस्थान हैं, ईश्वर और मानव तथा भाई एवं भाई के बीच मेलमिलाप का पावन स्थान। येसु ने अपनी मृत्यु के द्वारा राष्ट्रों के बीच हुए विभाजन और व्यवस्थान की चुनी हुई जाति और अन्य जातियों की फूट पर विजय पायी है, जो अब तक निराश थी क्योंकि व्यवस्थान की प्रतिज्ञा से वह बाहर थी। जैसा कि हम एफेसियों के पत्र में पाते हैं, येसु ख्रीस्त ही खुद पर पूरी मानव जाति का मेल कराया है। वही शांति हैं, क्योंकि उन्होंने दो जातियों का मेल कराया है, और उनके बीच जो दीवार या दुशमनी थी, उसे तोड़ दिया है। उन्होंने पूरी मानव जाति को अपने में एक कर लिया, नया मानव बनाया तथा उसे एक नयी मानवता प्रदान की है। (एफे.2,14-16)

जो येसु को मसीहा स्वीकार करते और उसमें जीते और पिता को ईश्वर मानते, तो वे उन्हें सबसे अधिक प्यार करते और उनके लिये अपने आपको पूर्ण रूप से देते हैं। परिवर्तित मानव, इस तरह पिता ईश्वर में सबकी एकता को देखता है और सबके साथ भ्रातृत्वपूर्ण जीवन जीने के लिये प्रेरित होता है। इस तरह प्रत्येक व्यक्ति येसु में स्वीकृत होता और ईश्वरीय संतान रूप में भाई-बहन बन जाता, न कि एक अजनबी, विरोधी या एक शत्रु। ईश्वरीय परिवार में, सब कोई एक ही पिता की संतान हैं, क्योंकि वे येसु के द्वारा दत्तक पुत्र-पुत्रियाँ बन गये हैं, कोई भी ‘जीवन बेकार’ नहीं है। सबका जीवन समान और अल्लंघनीय मर्यादापूर्ण है। ईश्वर सबको प्यार करते हैं, सबको येसु के रक्त से मुक्ति मिली है, जिन्होंने क्रूस पर अपना बलिदान किया और सबके लिये जी उठा। और इसीलिये आप दूसरे व्यक्ति की हालत के प्रति उदासीन हो ही नहीं सकते।





भ्रातृत्व, शांति का आधार और मार्ग

4. ऐसा कहा जाता है, इस बात को समझना कि भ्रातृत्व शांति का आधार और मार्ग है। पूर्व संत पापाओं के सामाजिक दस्तावेज़ इस संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं। ‘पोपुलोरुम प्रोग्रसियो’ (अर्थात् मानव की प्रगति) नामक दस्तावेज़ में संत पापा पौल षष्टम् या धन्य संत पापा जोन पौल द्वितीय की ‘सोलिचितुदो रेई सोचियालिस’ (कलीसिया की समाजिक चिंता) में शांति की परिभाषा इसके लिये काफी होगा। पहले में हम पाते हैं कि शांति का नया नाम है मानव का सम्पूर्ण विकास। दूसरा कहता है कि शांति है ‘ओपुस सोलिदारितातिस’ (एकता का फल)।

पौल षष्टम् कहते है कि न केवल व्यक्ति पर राष्ट्रों को चाहिये कि वे भ्रातृत्व की भावना से एकजुट हों। वे इसे समझाते हुए कहते हैः यह आपसी समझदारी और मैत्री, हमें इस पवित्र एकता में चाहिये [..] कि हम एकसाथ मिलकर मानवता के सामान्य भविष्य का निर्माण करें। यह दायित्व सबसे पहले उनका है जो समृद्ध हैं। उनके दायित्व की नींव मानवीय और अलौकित भ्रातृत्व पर आधारित है जिसे तीन तरह से प्रस्तुत किया जा सकता हैः एकता का दायित्व, जिसके द्वारा अमीर राष्ट्रों को चाहिये कि वे निर्धन राष्ट्रों की सहायता करें। सामाजिक न्याय का दायित्व, जिसके द्वारा अमीर राष्ट्रों को चाहिये कि वे कमजोर राष्ट्रों के साथ न्यायपूर्ण संबंध स्थापित करें। और तीसरा विश्वव्यापी प्रेम का दायित्व, जिसके द्वारा राष्ट्रों को चाहिये कि वे एक मानवतावादी दुनिया का प्रचार करें जिसमें प्रत्येक व्यक्ति आदान-प्रदान कर सके, जिसके बिना कुछ लोगों की प्रगति बहुतों की प्रगति का बाधक बन जाती है।

इसलिये. यदि आप समझते हैं कि शांति ‘ओपुस सोलिदारितातिस’ (एकता का परिणाम) है तो हम ऐसा कदापि नहीं सोच सकते हैं कि भ्रातृत्व उसका प्राथमिक आधार नहीं हो सकता। धन्य जोन पौल द्वितीय कहते हैं शांति एक अखंडनीय वस्तु है। यह सबके लिये हितकारी है या तो किसी के लिये नहीं है। यह तब ही प्राप्त किया और इसका आनन्द उठाया जा सकता है जब व्यक्ति का जीवन स्तर और प्रगति मानवोचित्त तथा दीर्घकालिक हो और "सब लोग सार्वजनिक हित के प्रति निष्ठा और दृढ़ सकल्प से समर्पित हों।" इसका अर्थ यह है एक व्यक्ति को " लाभ की इच्छा " और " सत्ता की आकांक्षा " से कार्य नहीं करना चाहिये। "तुम्हारे पास दूसरों का अहित करने के बजाय अपने को ‘खो देने’, और अपने लाभ के लिये दूसरे का शोषण करने के बदले ‘सेवा करने’ की इच्छा शक्ति होनी चाहिये।" " ‘दूसरे’ व्यक्ति लोग या राष्ट्रों को [ऐसा दिखाई नहीं देना चाहिये] एक साधन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये जिनकी ताकत और क्षमता का इस्तेमाल सस्ते दर पर किया जाता हो और जब ज़रूरत न हो तो निकाल बाहर कर दिया जाता हो मानो कि वह मात्र ‘पड़ोसी’ या एक ‘सहायक’ था (उत्पति 2,18 -20)।"

ख्रीस्तीय एकता का अर्थ है " एक व्यक्ति दूसरे को केवल एक पड़ोसी के रूप में प्यार नहीं करना, पर अपने मानवीय अधिकारों और मौलिक समानता के साथ पर जीवित पिता ईश्वर के प्रतिरूप सदृश्य पवित्र आत्मा" के अनवरत वरदानों से पूर्ण, येसु ख्रीस्त के लहू से मुक्ति प्राप्त एक भाई समझ कर प्रेम करना। धन्य जोन पौल कहते हैं, " ईश्वर का एक पितृत्व, ख्रीस्त का एक भ्रातृत्व, पुत्रों का पुत्र, पवित्र आत्मा की जीवनदायी उपस्थिति की चेतना हमें इस दुनिया को नयी दृष्टि से देखने और इसे बदलने के लिये एक नये मापदंड से व्याख्या करने" की शक्ति प्रदान करेगी।



भ्रातृत्व, गरीबी दूर करने की प्रस्तावना

5. मेरे पूर्वाधिकारी ने ‘कारितास इन वेरिताते’ (सत्य में प्रेम) में लोंगों को इस बात की याद दिलायी थी कि कैसे गरीबी का मुख्य कारण है। लोगों और राष्ट्रों के बीच भ्रातृभाव अभाव? कई समुदायों में इस बात को महसूस किया जाता है कि गहरी संबंधपरक गरीबी आपसी पारिवारिक और सामुदायिक संबंध के अभाव के ही कारण है। हम चिन्तित होकर कई तरह की समस्याओं- दरकिनार किये लोगों, एकान्तता और कई तरह के व्यसनों में पड़े लोगों की मदद करते हैं। इस तरह की गरीबी का समाधान लोगों के दुःख और सुख तथा सफलता और चुनौतियों के समय परिवारों एवं समुदायों में भ्रातृत्व की भावना के विकास और प्रोत्साहन से संभव हो सकता है।

उधर एक ओर हम देखते हैं पूर्ण गरीबी घटती है पर दूसरी ओर हम पाते हैं कि संबंधपरक गरीबी बढ़ती जाती है, अर्थात् कुछ विशेष क्षेत्र, प्राँत और समुदाय के लोग जिनकी ऐतिहासिक पृष्टभूमि और संस्कृति विशेष रही हो उनमें गहरी असमानता है। इस तरह से वे भी इस प्रभावपूर्ण नीति और भ्रातृत्व के सिद्धांत का प्रचार करते हैं कि लोगों के लिये मूलभूत अधिकारों और मर्यादा की समानता, ‘पूँजी’, सेवायें, स्रोत, शिक्षा, स्वास्थ्य, तकनीकि आदि पर उनकी पहुँच हो ताकि प्रत्येक को अपने जीवन की योजनाओं को पूरा करने का अवसर प्राप्त हो और वह मानव रूप में अपना पूर्ण विकास कर सके।

यह इस बात की भी बल देता है अत्यधिक आय को सीमित करने के लिये नीतियाँ बनाये जाने की ज़रूरत है। हम ‘सामाजिक बंधक’ के सिद्धांत को नहीं भूल सकते हैं जिसमें संत थोमस अक्वीनास ने कहा था कि यह न केवल कानूनी ज़रूरी है कि जो " व्यक्ति का धन का मालिक " है "वह उस धन को प्रयोग करे न कि उसका मालिक बन जाये, ताकि आसानी से वह दूसरों की ज़रूरतों को पूरा कर सके।"

अन्त भी एक अन्य तरीका भी है जिससे भ्रातृत्व का प्रचार किया जा सकता है और गरीबी दूर की जा सकती है। यह तरीका अन्य सबका आधार हो। यह है ऐसी जीवनशैली हो जिसके द्वारा वे अपने धन को दूसरों को बाँटें और भ्रातृभाव की एकता का अनुभव करें। यह येसु के अनुसरण करने और सच्चे ख्रीस्तीयों के लिये अति महत्वपूर्ण है। यह सिर्फ़ उनके लिये नहीं है जो समर्पित जीवन जीते और दरिद्रता का मन्नत लेते हैं, पर ऐसे परिवारों, ज़िम्मेदार नागरिकों के लिये भी है जो इस बात पर विश्वास करते हैं कि भ्रातृभाव से जीवन बिताना जीवन की सबसे मूल्यवान पूँजी है।



अर्थव्यवस्था में भ्रातृत्व की पुनर्खोज

6. वर्तमान गंभीर अर्थव्यवस्था और आर्थिक मंदी की जड़ है - मानव का ईश्वर और अपने ‘पड़ोसी’ से क्रमिक अलगाव, एक ओर सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त करने की लोलुपता, तो दूसरी ओर परस्पर और अन्तर सामुदायिक संबंध कमजोर होने के कारण स्वस्थ अर्थव्यवस्था का तर्क देते हुए, उपभोग और आय बढ़ाने में, आनन्द और सुरक्षा की खोज की ओर अग्रसर होना। सन् 1979 ईस्वी में धन्य जोन पौल ने पहले ही इस प्रकार की संभवित खतरे के बारे में चेतावनी देते हुए कहा था, "यद्यपि मानव दुनिया की वस्तुओं के ऊपर प्रभुत्व जमा रहा है तथापि वह आवश्यक संबंध को खो देगा, और कई अर्थों में मानवता संसार से कमजोर होगा, और खुद ही विविधता का विषय बनेगा, इस तरह की छलबाजी, जो सामुदायिक जीवन के पूरे संगठन द्वारा किया जाता, जो उत्पादन प्रणाली द्वारा होता और जो सामाजिक सम्प्रेषण के दबाव के द्वारा होता, कई बार सीधे रूप में यह दृष्टिगोचर नहीं होता।"

बढ़ती आर्थिक मंदी की समस्या, आर्थिक विकास का आदर्श और हमारे जीवन शैली के बारे में हमें दोबारा सोचने को मजबूर करे। वर्त्तमान समस्या मानव जीवन की गंभीर विरासत होने के बावजूद, एक सुनहला अवसर है जहाँ हम दूरदर्शिता, संयम, न्याय और धैर्य जैसे गुणों की पुनर्खोज करें। ये हमें निश्चय ही वर्त्तमान संकट से निकलने और भ्रातृत्व भावना में बढ़ने में मदद देगा जो एक-दूसरे को विश्वास के बंधन से बाँधता है, जिसकी आज मानव को सख़्त ज़रूरत है और वह अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को बढ़ाने के बदले के इसे हस्तगत करने को सक्ष्म भी है। इतना ही नहीं, यह गुण समाज का निर्माण करने तथा उसमे मानव मर्यादा को कायम रखने के लिये आवश्यक है।

भ्रातृत्व युद्ध को समाप्त करता

7. हाल के वर्षों में, हमारे कई भाईयों एवं बहनों ने युद्ध की विभीषिका का अनवरत अनुभव किया जिससे भ्रातृत्व को गंभीर और गहरा घाव किया है। आम उदासीनता के बीच कई संघर्ष जारी है। ऐसे लोग जो उन राष्ट्रों में जीते हैं, जहाँ हथियारों के द्वारा आतंक और बरबादी थोप दिये जाते हैं, मैं आपको अपनी व्यक्तिगत और विश्वव्यापी कलीसिया की निकटता का आश्वासन देता हूँ, कलीसिया जिसका मिशन है - शांति की अपील द्वारा, घायलों की सेवा द्वारा युद्ध में फँसे निहत्थे शिकारों - भूखों, शरणार्थियो, विस्थापितों और वे जो दहशतमय जीवन वालों को, येसु के प्रेम को बाँटना। कलीसिया इस बात का आह्वान करती है कि नेतागण पीड़ितों की चींख सुनें ताकि शत्रुता, दुर्व्यवहार तथा मूलभूत मानवाधिकार के हनन के हर रूप को समाप्त किया जा सके।

इसी कारण से मैं हथियार के बल पर हिंसा तथा मौत के बीज बोने वालों से जोर देकर अपील करता हूँ; मानव में आप सिर्फ़ एक बैरी को देखते हैं जिसे मारा जाना चाहिये, आप उनमें एक भाई या बहन को देखें और अपना हाथ न उठायें। हथियार उठाने के रास्ते का त्याग करें और दूसरों के साथ वार्तालाप करें, क्षमा दें तथा मेल-मिलाप करें ताकि न्याय, विश्वास और आशा की पुनर्निर्माण हो। "इस दृष्टिकोण से, यह स्पष्ट है कि दुनिया के लोगों के लिये हथियारबन्द झगड़े अन्तरराष्ट्रीय सौहार्द का संकल्पित विरोध है, जो एक ऐसी फूट पैदा करती और घाव बनाती है जिसकी चंगाई में वर्षों लग जायेंगे। युद्ध अन्तरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा निर्धारित आर्थिक और सामाजिक लक्ष्य का खुला विरोध है।"

जो भी हो जब तक इस बड़ी मात्रा में हथियारों का व्यवसाय चलता रहेगा दुश्मनी का पहल करने के बहाने पनपते रहेंगे। यही कारण है कि मैं अपने पूर्वाधिकारी की अपील को अपना बनाते हुए हथियारों के अप्रसार और सर्वपार्टी निरस्त्रीकरण की अपील करता हूँ जो परमाणु और रासायनिक परमाणु निरस्त्रीकण से आरंभ हो।

यद्यपि हम अन्तरराष्ट्रीय समझौतों और राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते – तथापि वे अपने आप में सशस्त्र लड़ाई द्वारा मानवता को बचाने में सक्ष्म नहीं हैं। इसके लिये ज़रूरत है ह्रदय परिवर्तन की, जो प्रत्येक जन को हर दूसरे व्यक्ति में एक भाई या बहन देखने में मदद दे, उसकी देखभाल करे और उसके साथ कार्य करे ताकि सबको परिपूर्ण जीवन प्राप्त हो। यही वह उत्साह है जो आम नागरिकों को विशेष करके धर्मिक संगठनों को शांति के प्रचारक होने की प्रेरणा देता है। मैं आशा करता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति का समर्पण इस दिशा में फल लायेगा और सब अधिकारों को प्राप्त करने की ज़रूरी शर्त के रूप में मूलभूत मानवाधिकार शांति के अधिकार को प्राप्त करने के लिये अन्तरराष्ट्रीय कानून प्रभावकारी तरीके से लागू किये जायेंगे।


भ्रष्टाचार और संगठित अपराध भ्रातृत्व के लिये ख़तरा

8. भ्रातृत्व का क्षितिज प्रत्येक व्यक्ति की ज़रूरतों को पूर्ण करने तक भी पहुँचती है। लोगों की, विशेष करके युवाओं की जायज आकांक्षाओं, को रोका या ठेस नहीं पहुँचाया जा सकता है, न ही उनके प्राप्त करने की आशा को छीना जा सकता है। यद्यपि, इस आकांक्षा के कारण शक्ति का दुरुपयोग नहीं होना चाहिये। ठीक इसके विपरीत, लोगों को चाहिये कि वे आपसी सम्मान के साथ एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी बनें (रोम 12,10)। मतभेद, जो हमारे जीवन का अपरिहार्य भाग है, हम इस बात को याद रखे कि हम भाई-बहन हैं, और इसलिये अपने और दूसरों को इस बात को सिखायें कि पड़ोसी दुश्मन नहीं या हम कहें विरोधी नहीं है जिसे विनाश किया जाये।

भ्रातृत्व, सामाजिक शांति को जन्म देता है क्योंकि यह स्वतंत्रता और न्याय, व्यक्तिगत दायित्व और एकता, व्यक्ति के हित और सार्वजनिक हित के बीच एक सामंजस्य कायम करता है। इसलिये एक राजनैतिक समुदाय को चाहिये कि वह पूर्ण पारदर्शिता और दायित्व के साथ इसके हित में कार्य करे। नागरिकों को यह अनुभव हो कि उनकी स्वतंत्रता के लिये सरकारी अधिकारी उनका प्रतिनिधित्व करते हैं। फिर भी कई बार ऐसा होता है कि नागरिकों और संस्थाओं के बीच पक्षपाती रवैये के कारण एक अवरोध खड़ा कर दिया जाता है जो संबंध को बिगाड़ देता है और एक लम्बे समय तक चलने वाले झगड़े के माहौल का कारण बनता है।

भ्रातृत्व की सच्ची भावना उस व्यक्तिगत स्वार्थ पर विजय प्राप्त करती है जो लोगों को स्वतंत्रता और सौहार्द के साथ जीने की क्षमता को कमजोर करती है। इस तरह के स्वार्थ, समाज में पनपते हैं – चाहे वह विस्तार प्राप्त भ्रष्टाचार का कोई भी रूप हो या स्थानीय या विश्व स्तर पर फैले संगठित अपराध। इस तरह के अपराध ईश्वर का अपमान करते, दूसरों को दुःख देते और प्रकृति का विनाश करते हैं विशेष कर ऐसे लोग जो इसके इस्तेमाल का धार्मिक मकसद बताते हैं।

मैं नशीली दवाओं के ह्रदयविदारक दुरुपयोग के बारे में सोचता हूँ जो नैतिक और नागरिक कानूनों की अवमानना में लाभ कमाता है। मैं सोचता हूँ प्राकृतिक स्रोतों के विनाश और प्रदुषण और श्रमिकों के शोषण की त्रासदी के बारे में। मैं सोचता हूँ काले पैसे की तस्करी और आर्थिक अटकलों के बारे में, जो सम्पूर्ण सामाजिक और आर्थिक प्रणाली के लिये प्रायः घातक और हानिकारक साबित होते रहे हैं, हज़ारों महिलाओं और पुरुषों को गरीबी बना देते हैं। मैं सोचता हूँ वेश्यावृत्ति के बारे में, जो प्रत्येक दिन हज़ारों निर्दोषों को अपना शिकार बनाती है विशेष करके युवाओं को और उनका भविष्य छीन लेती है। मैं सोचता हूँ घृणित मानव तस्करी, अपराध, नबालिगों के प्रति दुर्व्यवहार, दुनिया के कई हिस्सों में गुलामी का आतंक; और अप्रावासियों को नज़रअंदाज़ करने की त्रासदी के बारे में, जिसके कारण अक्सर वे अवैध और घृणापूर्ण धोखेबाजी के शिकार हो जाते हैं। जैसा कि जोन तेइसवें ने लिखा, " शक्ति के आधार पर समाज में कोई मानवता नहीं है। जैसा कि अपेक्षा की जाती है लोगों की प्रगति और पूर्णता पाने में प्रोत्साहन देने के बदले यह उनकी स्वतंत्रता का दमन करता और उसमें अंकुश लगाता है।" फिर भी मानव प्राणी मन-परिवर्तन कर सकते है; उन्हें चाहिये कि अपने जीवन को बदलने कर उदास न हों। मैं चाहता हूँ कि सब के लिये एक आशा और विश्वास का संदेश हो, ऐसे लोगों के लिये भी जो अमानवीय अपराधों को अंज़ाम देते हैं क्योंकि ईश्वर पापी की मृत्यु नहीं, पश्चात्ताप और जीवन की इच्छा करता है (एजे.18,23)

वृहत संदर्भ में, मानवीय सामाजिक संबंध, जब हम अपराध और सजा पर दृष्टि डालते हैं तो हम उनलोगों को नहीं भूल सकते जो कारागारों में अमानवीय परिस्थियों या हम कहें मानव मर्यादा की अवहेलना करते हुए अवमानवीय स्थिति में रखे जाते हैं, जहाँ उनकी आशा और पुनर्वास की इच्छाओँ को कुचल दिया जाता है। कलीसिया इन वातावरणों में बहुत कुछ करती है, पर खामोशी में। मैं जोर देकर प्रोत्साहन देता हूँ कि इस संबंध में और अधिक प्रयास करें इस आशा से कि इसके लिये कार्यरत कई साहसी पुरुष और महिलाओं को नागरिक अधिकारियों द्वारा लगातार ईमानदारी तथा न्यायपूर्वक मदद प्राप्त हो।


भ्रातृत्व, प्रकृति की सुरक्षा और विकास में सहायक

9. मानव परिवार ने सृष्टिकर्ता की ओर से एक सामुदायिक वरदान प्राप्त किया है – प्रकृति। प्रकृति के प्रति ख्रीस्तीय विचार में, सृष्टि पर हस्तक्षेप की वैधता के प्रति एक सकारात्मक निर्णय करना शामिल है कि क्या ये लाभदायी और दायित्वपूर्ण तरीके से पूरा किये जाते हैं या नहीं, या हम कहें प्रकृति में छिपे ‘व्याकरण’ को स्वीकार करके बुद्धिमानी से संसाधनों का उपयोग, प्रकृति की सुन्दरता, अंतिम रूप और पारिस्थितिक तंत्र (एकोसिस्टम्) में हर प्राणी की उपयोगिता और उचित स्थान और सम्मान है या नहीं। प्रकृति संक्षेप में, हमारे लिये दिया गया है जिसके संरक्षण का दायित्व हम पर है। अब तक तो हम लालच, प्रभुत्व, अधिकार, हेरफेर, शोषण और अहंकार से ही प्रेरित रहे हैं, हमने प्रकृति की संरक्षा नहीं की; न ही हमने इसका आदर किया या इसे कृपापूर्ण उपहार समझा और इसकी रखवाली की, न ही इसको अपने भाई-बहनों और भविष्य की पीढ़ी की सेवा के लिये तैयार किया।

विशेष रूप से, कृषि क्षेत्र ही प्रमुख उत्पादक क्षेत्र है जिसका दायित्व है प्राकृतिक संसाधनों का का विकास करना और सुरक्षा प्रदान करना ताकि मानव को अन्न प्राप्त हो। इस दिशा में भुखमरी की शर्मनाक समस्या मुझे एक बात को बताने को प्रेरित करती हैः हम किस तरह से दुनिया के संसाधनों का उपोयोग करते है ? वर्त्तमान समाज को चाहिये कि वह प्राथमिकताओं के अनुक्रम पर चिन्तन करे जिस ओर उत्पादन इंगित करता है। यह निश्चिय ही हमारा प्रमुख दायित्व है कि हम दुनिया के संसाधनों का उपयोग इस तरह से करें कि कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे। पहल और समाधान अनेक हैं और उत्पादन की उन्नति पर कोई सीमा नहीं है। यह जगजाहिर है, कि आज अन्न का उत्पादन काफी है फिर भी दुनिया के लाखों लोग भुखमरी के शिकार हो जाते हैं, और यह सबसे बड़ी बदनामी की बात है। आज ज़रूरत है कि हम एक साथ कोई समाधान खोजें, जिससे दुनिया के अन्न से सबको लाभ हो, बस इसलिये नहीं कि इससे जिनके पास अधिक है और जो मात्र रोटी के चुर्ण से संतुष्ट हैं, के बीच की खाई कम हो पर उससे भी बढ़कर क्योंकि यह न्याय, समानता और प्रत्येक प्राणी की मर्यादा का प्रश्न है। इस दिशा में मैं वस्तुओं के सर्वव्यापी लक्ष्य - जो काथलिक कलीसिया की सामाजिक शिक्षा का मूलभूत सिद्धांत है, की याद कराना चाहता हूँ। इस सिद्धांत का सम्मान करना, आवश्यक और मूलभुत वस्तुएँ जिसकी ज़रूरत प्रत्येक व्यक्ति को है और जिसका वह अधिकारी है, को प्रभावपूर्ण और न्यायपूर्ण तरीके से, पाने की आवश्यक शर्त है।


उपसंहार
भ्रातृत्व को समझने, प्यार करने, अनुभव करने, घोषित करने और इसका साक्ष्य देने की ज़रूरत है। किन्तु सिर्फ़ प्रेम जो ईश्वर का वरदान है, भ्रातृत्व को पूर्ण रूप से स्वीकार करने और पूर्णतः अनुभव करने में हमें सक्ष्म बनाता है।

राजनीति और अर्थव्यवस्था की आवश्यक यथार्थवाद को मानव के ज्ञानातीत आयाम के प्रति उदासीन, मात्र तकनीकि ज्ञान के आदर्शों के उन्माद तक सीमित नहीं किया जा सकता है। जब ईश्वर के प्रति खुलापन का अभाव हो, तब मानव क्रियाकलाप अक्षम हो जाते हैं और मानव वस्तु मात्र बन कर रह जाता है, और उसका शोषण होता है। जब राजनीति और अर्थव्यवस्था उस खुले आकाश में, जिसे ईश्वर ने बनाया है, जो हर नर और नारी को प्यार करता है के प्रति खुले हों, केवल तब ही भाईचारे के असल भावना पर आधारिक व्यवस्था को प्राप्त किया जा सकता है जो पूर्ण मानव के विकास और शांति का प्रभावपूर्ण साधन सिद्ध होगा।

हम ख्रीस्तीय विश्वास करते हैं कि कलीसिया के सब लोग एक शरीर के अंग है, सब परस्पर आवश्यक, क्योंकि प्रत्येक को ख्रीस्त ने अपने माप के अनुसार सार्वजनिक हित के लिये वरदान दिये हैं (एफे.4,7-25; 1कुरिं.12,7) ख्रीस्त दुनिया में आये और हमारे लिये दिव्य वरदान दिया ताकि हम उसके जीवन के सहभागी हो सकें। यह हमें इस बात पर बल देता है कि हम भ्रातृत्व के आपसी बंधन में एक धागे से बँध जायें जिसमें पारस्परिकता, क्षमा और पूर्ण बलिदान की भावना हो जैसा कि ईश्वर ने अपने असीम और उदार प्रेम के कारण मानवता के लिये क्रूसित और जीवित येसु को अर्पित किया, जो सबको अपनी ओर आकर्षित करते हैः "तुम्हें एक नयी आज्ञा देता हूँ, तुम एक – दूसरे को प्यार करो जैसा मैंने तुम्हें प्यार किया है। और यदि तुम एक-दूसरे को प्यार करोगे तो इसके द्वारा सब जानेंगे कि तुम मेरे शिष्य हो।" (यो. 13,34-35) यह सुसमाचार हममें से प्रत्येक जन से एक कदम आगे बढ़ने की माँग करता है, दूसरों की पीड़ा और आशा को सहानुभूतिपूर्ण सुनने का अनवरत अभ्यास करना, ऐसे लोगों की भी जो हमसे दूर हैं, और प्रेम के उस चुनौतिपूर्ण पथ पर चलना, जो अपने भाई और बहन के लिये पूरी स्वतंत्रता से देना तथा समर्पित होना जानता है।

ख्रीस्त पूरी मानवता को गले लगाता और उसकी इच्छा है कि कोई भी न खोये. "चूँकि ईश्वर ने अपने पुत्र को दुनिया में भेजा, ताकि वह उसे दोषी न ठहराये पर इसलिये कि उसके द्वारा दुनिया मुक्ति प्राप्त करे "(यो.3,17)। वे चाहते हैं कि लोग उसके लिये अपने मन-दिल का दरवाज़ा खोल दें, पर बिना किसी दबाव या लाचारी के। " जो तुममे से सबसे बड़ा होना चाहे वह सबका सेवक बने, और ऐसा नेता जो दूसरों की सेवा करता है " – येसु ख्रीस्त कहते हैं – "मैं एक सेवक रूप में तुम्हारे बीच हूँ।" (लूक.22,26 - 27) इसलिये, प्रत्येक क्रिया-कलाप में लोगों के प्रति सेवा भावना दिखाई पड़े विशेष कर ऐसे लोगों के प्रति जो दूर और अज्ञात हों। सेवा ही भ्रातृभाव की आत्मा है जो शांति स्थापित करती है।

माता मरिया, येसु की माँ, हमें इस बात को समझने में मदद दे कि हम प्रत्येक दिन को उस भ्रातृभाव के साथ बितायें, जो उसके पुत्र येसु के ह्रदय से निकलती है ताकि हम अपनी इस प्रिय धरती के प्रत्येक जन के ह्रदय में शांति ला सकें।



वाटिकन सिटी, 8 दिसंबर, 2013.
फ्राँसिस













All the contents on this site are copyrighted ©.