2013-10-29 10:46:14

प्रेरक मोतीः सन्त नारचीसुस (दूसरी शताब्दी)


वाटिकन सिटी, 29 अक्टूबर सन् 2013
सन्त नारचीसुस का जन्म पहली शताब्दी के उत्तरकाल में फिलीस्तीन में हुआ था। वे दूसरी शताब्दी में जेरूसालेम के धर्माध्यक्ष थे। चालीस वर्ष की आयु में नारचीसुस को जेरूसालेम की कलीसिया का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया था जो इस धर्माध्यक्षीय पीठ के 13 वें धर्माध्यक्ष बने।
सन् 195 ई. में धर्माध्यक्ष नारचीसुस एवं फिलीस्तीन में कैसरिया के धर्माध्यक्ष थेओफिलुस ने, पास्का काल के दौरान, कैसरिया में सम्पन्न फिलीस्तीन के धर्माध्यक्षों की धर्मसभा की अध्यक्षता की थी। इसी धर्मसभा में यह निर्णय लिया गया था कि पास्का महापर्व यहूदियों के पास्का पर्व पर मनाने के बजाय सदैव रविवारों को मनाया जाये।
इतिहासकार यूसेबियुस की लेखनी द्वारा हमें पता चलता है कि उनके समय में जेरूसालेम के ख्रीस्तीयों ने धर्माध्यक्ष नारचीसुस द्वारा सम्पन्न कई चमत्कारों की स्मृति के सजीव रखा था। इनमें से एक का उल्लेख कर यूसेबियुस बताते हैं कि एक बार पास्का महापर्व की पूर्व सन्ध्या उपयाजकों के पास गिरजाघर में दीप जलाने के लिये तेल नहीं था जो उस दिन की धर्मविधि के लिये नितान्त आवश्यक रहता है। इसपर धर्माध्यक्ष नारचीसुस ने दीपक आदि की देखरेख करनेवालों से कुएँ का जल मंगवाया, उसपर प्रार्थना की तथा जल को दीपों में भरने का आदेश दिया जो तुरन्त तेल में बदल गया। इस तेल में से कुछ चमत्कारिक एवं करिशमाई तेल रूप में सुरक्षित रख दिया गया था जो इतिहासकार यूसेबियुस को उस समय प्राप्त हुआ जब वे अपने पुरातात्विक कार्यों में संलग्न थे।
धर्माध्यक्ष नारचीसुस ख्रीस्तीयों में ही नहीं अपितु अन्य लोगों में भी लोकप्रिय हो गये थे तथा उनके कार्यों से प्रभावित होकर अनेकों ने ख्रीस्तीय धर्म का आलिंगन कर लिया था। तथापि, विरोधियों की भी कमी नहीं थी। धर्माध्यक्ष नारचीसुस के सही रास्तों, उनके अनुशासन, उनकी पवित्रता एवं धार्मिकता से भय खाकर, तीन धर्माधिकारियों ने, अपने पदों को खिसकते देख, उनपर तरह-तरह के दोष मढ़ना शुरु कर दिया था। इतिहासकार यूसेबियुस यह नहीं बताते कि धर्माध्यक्ष नारचीसियुस पर किस प्रकार के आरोप लगाये गये थे बस इतना ही लिखते हैं कि इस प्रकार की अपकीर्ति केवल दुशमन ही कर सकते थे। शापवाचक शब्दों से ये तीन धर्माधिकारी उनके विनाश की कामना करने लगे। यहाँ तक कि एक धर्माधिकारी ने अग्नि से उन्हें नष्ट कर दिये जाने तो दूसरे ने कुष्ठ रोग से ग्रस्त हो जाने तथा तीसरे ने उनके नेत्रहीन हो जाने का अभिशाप दे डाला। इन विरोधों के बावजूद इन तीन धर्माधिकारियों के आरोप निराधार निकले।
विडम्बना यह कि कुछ समय बाद इन तीन धर्माधिकारियों को कुछ वैसी ही सज़ा मिली जैसी उन्होंने धर्माध्यक्ष नारचीसुस को देनी चाही थी। एक दुर्घटनात्मक अग्नि में अपने ही घर में भस्म हो गया; दूसरे को कुष्ठ रोग लग गया तथा तीसरे ने इन भयावह उदाहरणों को देख धर्माध्यक्ष नारचीसुस को बदनाम करनेवाले इस षड़यंत्र को सबके सामने स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि अपने कुकृत्यों के लिये वह इतना रोया कि आँसू बहाते-बहाते अन्धा हो गया तथा मृत्युपर्यन्त नेत्रहीन ही रहा। इस षड़यंत्र का नारचीसुस की प्रेरिताई तथा लोगों पर हालांकि कोई प्रभाव नहीं पड़ा तथापि, वे ख़ुद इस दुख का बोझ सह नहीं पाये। वे जैरूसालेम से बाहर पहाड़ों में निकल गये तथा एकान्त में जीवन यापन करने लगे।
कई वर्षों तक धर्माध्यक्ष नारचीसुस एकान्त में प्रार्थना, ध्यान एवं मनन चिन्तन में लगे रहे। उस दरम्यान जैरूसालेम की पीठ पहले धर्माध्यक्ष पियुस फिर जरमानीयुम और फिर गोरदियुस के अधीन रही। इन तीनों के धर्माध्यक्षीय काल समाप्त हो जाने के बाद धर्माध्यक्ष नारचीसुस पुनः प्रकट हुए जिनका जैरूसालेम के ख्रीस्तीय समुदाय ने हर्षोल्लास के साथ स्वागत किया। एक बार फिर उन्होंने जैरूसालेम की धर्माध्यक्षीय पीठ की बागडोर अपने हाथों में ली किन्तु बिगड़ते स्वास्थ्य ने उनका साथ नहीं दिया और उन्होंने सन्त एलेक्ज़ेनडर को अपना सहयोगी नियुक्त कर दिया। सन्त एलेक्ज़ेनडर धर्मप्रान्त का प्रशासन सम्भालते रहे जबकि नारचीसुस श्रद्धालुओं की प्रेरितिक देखरेख में लगे रहे। सन्त एलेक्ज़ेनजर द्वारा मिस्र के आरसेनोई समुदाय को प्रेषित पत्र के अनुसार निधन के समय सन्त नारचीसुस की आयु 116 वर्ष थी। फिलीस्तीन के धर्मीपुरुष एवं जैरूसालेम के 13 वें धर्माध्यक्ष, सन्त नारचीसुस, का पर्व 29 अक्टूबर को मनाया जाता है।

चिन्तनः "परख कर देखो कि प्रभु कितना भला है। धन्य है वह, जो उसकी शरण जाता है! प्रभु-भक्तों! प्रभु पर श्रद्धा रखो! श्रद्धालु भक्तों को किसी बात की कमी नहीं। धनी लोग दरिद्र बन कर भूखे रहते हैं, प्रभु की खोज में लगे रहने वालों का घर भरा-पूरा है" (स्तोत्र ग्रन्थ 34: 9-11)।









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