ब्रूनो का जन्म जर्मनी के कोलोन शहर में, लगभग
सन् 1030 ई. में हुआ था। रेम्स शहर में उनकी शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न हुई थी तथा कोलोन
वापस लौटने पर, सन् 1055 ई. में, ब्रूनो पुरोहित अभिषिक्त कर दिये गये थे। सन्त कूनीबेर्ट
को समर्पित धर्मसमाज के वे सदस्य थे। पुरोहिताभिषेक के एक साल बाद, सन् 1056 ई. में,
ब्रूनो रेम्स शहर वापस लौटे तथा यहाँ के काथलिक महाविद्यालय में ईश शास्त्र के प्राध्यापक
नियुक्त कर दिये गये। एक वर्ष बाद उन्हें महाविद्यालय का प्राचार्य नियुक्त कर दिया गया।
इस पद पर वे सन् 1074 ई. तक बने रहे।
सन् 1074 ई. में रेम्स के महाधर्माध्यक्ष
मनासेस ने फादर ब्रूनो को रेम्स के महाविद्यालय का कुलपति घोषित कर दिया। दो वर्षों तक
इस पद पर सेवा अर्पित करने के उपरान्त, महाधर्माध्यक्ष मानासेस से मतभेदों के कारण, फादर
ब्रूनो तथा उनके समर्थकों को रेम्स छोडने के लिये बाध्य होना पड़ा था। कुछ समय कोलोन
में व्यतीत करने के बाद, सन् 1080 ई. में, ब्रूनो पुनः रेम्स लौटे। उनकी वापसी पर लोग
प्रसन्न थे तथा महाधर्माध्यक्ष मानासेस के पदत्याग के बाद उन्हें रेम्स का महाधर्माध्यक्ष
बनाना चाहते थे किन्तु फादर ब्रूनो ने एकान्तवासी जीवन का चयन किया तथा मोलेस्मेस के
मठाध्यक्ष, सन्त रॉबर्ट के अधीन, मठवासी जीवन का आलिंगन कर लिया।
सन् 1084 ई.
में ब्रूनो तथा उनके छः साथियों को ग्रेनोबल भेज दिया गया जहाँ के पर्वतों में उन्होंने
एक आश्रम की स्थापना की। अपनी दिनचर्या के लिये उन्होंने सन्त बेनेडिक्ट के नियमों का
पालन किया। आश्रम में भिक्षुओं के लिये छोटे छोटे कक्षों तथा एक प्रार्थनालय का निर्माण
किया गया। अकिंचनता एवं दीनता का वरण कर, ब्रूनो एवं उनके साथी भिक्षु, प्रार्थना और
मनन चिन्तन के अलावा, शारीरिक श्रम में भी जुटे रहते थे। धर्मशिक्षा, धर्मतत्व विज्ञान
पर व्याख्यान देने की कला तथा वाग्मिता आदि का प्रशिक्षण भी दैनिक गतिविधियों में शामिल
था क्योंकि फादर ब्रूनो ख़ुद ईश शास्त्र के प्राध्यपक रह चुके थे तथा वाग्मिता एवं प्रभावशाली
भाषण करने में माहिर थे।
इस प्रेरिताई के लिये ग्रेनोबेल के धर्माध्यक्ष सन्त
ह्यू का ब्रूनो को भरपूर समर्थन मिला था। फादर ब्रूनो बाद में धर्माध्यक्ष सन्त ह्यू
के आध्यात्मिक गुरु भी बन गये थे। ग्रेनोबेल के इस छोटे से आश्रम पर ही कारथुसियन धर्मसमाज
की आधार शिला रखी गई थी। शीघ्र ही, दूर दूर तक, ब्रूनो और उनके साथियों की प्रेरिताई
की चर्चा फैल गई यहाँ तक कि सन्त पापा अरबन द्वितीय ने ब्रूनो को रोम बुला भेजा। रेम्स
के महाविद्यालय में फादर ब्रूनो, सन्त पापा अरबन के शिक्षक एवं परामर्शक रह चुके थे।
रोम लौटने पर फादर ब्रूनो ने सन्त पापा अरबन द्वितीय से अपील की कि वे उन्हें एकान्तवासी
जीवन के लिये छोड़ दें। सन्त पापा ने उन्हें इटली के कलाब्रिया प्रेषित कर दिया जहाँ
उन्होंने ला तोर्रे में मरियम को समर्पित मठ एवं प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना की। सन्त
पापा उन्हें कलाब्रिया के महाधर्माध्यक्ष नियुक्त करना चाहते थे किन्तु फादर ब्रूनो
ने इससे इनकार कर दिया। इस बीच, सिसली द्वीप के काऊन्ट रॉबर्ट उनके निकट मित्र बन गये।
छः अक्टूबर, सन् 1101 ई. को अपनी मृत्यु तक ब्रूनो सिसली में ही एकान्त जीवन यापन करते
रहे।
ईशशास्त्र एवं दर्शन में दक्ष शिक्षक एवं प्राध्यपक, फादर ब्रूनो ने स्तोत्र
ग्रन्थ के भजनों तथा सन्त पौल के पत्रों पर कई व्याख्याएँ लिखी हैं। सार्वजनिक सम्मान
का बहिष्कार करनेवाले कारथुसियन धर्मसमाज के संस्थापक होने के कारण, हालांकि, ब्रूनो
को आधिकारिक रूप से कभी सन्त घोषित नहीं किया जा सका किन्तु सन्त पापा लियो पंचम ने सन्
1514 ई. में कारथुसियन धर्मसमाजियों को सन्त ब्रूनो का पर्व मनाने की अनुमति दे दी तथा
सन् 1623 ई. में सन्त ब्रूनो का नाम रोमी पंचाग में लिपिबद्ध कर दिया गया। सन्त ब्रूनो
का पर्व 06 अक्टूबर को मनाया जाता है।
चिन्तनः धन्य हैं मन
के दीन क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।... धन्य हैं वे जिनका हृदय निर्मल है,
वे ईश्वर के दर्शन करेंगे। (सन्त मत्ती 5: 3, 8)