प्रवक्ता ग्रंथ 3,17-20, 28-29 इब्रानियों के नाम, 12, 18-19,22-24 संत लूकस 14,1
7-14 जस्टिन तिर्की,ये.स.
ईसाई धर्म का सार मित्रो, एक बार मैंने हाई स्कूल
के छात्रों से पूछा था। छात्रों मुझे बताओ की काथलिक कलीसिया या ईसाई धर्म को तुम किस
एक शब्द से परिभाषित कर सकते हो। ठेतों ने कहा फादर हमने आपकी बात नहीं समझी। मैंने फिर
से कहा कि छात्रों तुम मुझे एक शब्द दो जो यह बतला सके कि यही ख्रीस्तीय धर्म का सार
है। मुझे कोई एक शब्द दो जो तुम्हें लगता है कि जिसमें ईसाई धर्म का सार है या हम कहें
ईसाई धर्म का आधार है। उसी शब्द पर आधारित होकर ईसाई धर्म के सभी क्रिया-कलाप आग बढ़ते
हैं और इसी शब्द को अर्थपूर्ण बनाते हुए ईसाई ईश्वर तक पहुँचना चाहते हैं। जब मैंने अपने
सवाल को पूर्ण रूप से समझा दिया तब मैंने देखा कि क्लास के कई छात्रों के चेहरे पर प्रसन्नता
की झलक दिखाई देने लगी। वे कुछ जवाब देने के लिये उत्सुक दिखाई देने लगे। मैंने एक लड़के
से पूछा जो पहली पंक्ति में बैठा था क्या है जवाब तुम्हारा, क्या है ईसाई धर्म का सार।
पहले लड़के ने उठक कर कहा फादर, निःसंदेह ईसाई धर्म का सार है प्रेम। तब दूसरे ने कहा
क्षमा और तीसरे ने कहा बलिदान और चौथे ने कहा आज्ञापाल। मैंने प्रसन्न होते हुए कहा छात्रो
मुझे तो एक शब्द की तलाश थी पर मुझे चार शब्द मिल गये – प्रेम, क्षमा, बलिदान और आज्ञापालन।
तो छात्रों, आखिर वो कौन-सा शब्द है जो ईसाई धर्म के मर्म या गूढ़ रहस्य को अपने में
समाहित किये हुए है। मैं ऐसा बोल ही रहा था कि एक और छात्र ने अपने हाथ ऊपर करते हुए
कहा कि फादर मेरे पास एक और एक शब्द है जिसे मैं समझता हूँ कि यह ईसाई धर्म का सार है।
मैंने कहा प्रकाश, बताओ वह नया शब्द कौन-सा है। तब प्रकाश ने कहा कि शब्द है विनम्रता।
मैंने उससे पूछा प्रकाश तुम क्यों कहते हो कि विनम्रता या विनीत होना ईसाई धर्म का सार
है। उसने कहा कि फादर ईसाई धर्म के इतिहास में जो भी संत या धन्य बनें हैं अगर हम उनके
जीवन को देखते हैं तो हम पाते हैं कि उनके जीवन में विनम्रता कूट-कूट कर भरी हुई थी।
माता मरिया को ही लीजिये उन्होंने कहा, "देख मैं प्रभु की दासी हूँ" प्रभु येसु ने कहा
था "मैं सेवा कराने नहीं बल्कि सेवा करने आया हूँ" । प्रकाश ने इन सब बातों को एक ही
साँस में कह डाला। चह मैंने कहा कि छात्रों आपके जवाब सही हैं और मैं उससे प्रसन्न हूँ
पर प्रकाश के जवाब ने मुझे अधिक प्रभावित किया है। ईसाई धर्म का सार है विनम्रता।
मित्रो,
हम रविवारीय आराध्रना विधि कार्यक्रम के अंतर्गत पूजन विधि पँचांग के वर्ष ‘स’ के 21वें
रविवार के लिये प्रस्तावित सुसमाचार के आधार परन चिन्तन कर रहे हैं। मेरा पूरा विश्वास
है कि आपने ईश वचन को ग़ौर से सुना है और इससे आपको तथा आपके परिवार के सभी सदस्यों को
आध्यात्मिक लाभ हुए हैं। आइये प्रभु के दिव्य वचनों को सुनें जिसे संत लूकस के 14वे अध्याय
के 7 से 14 पदों से लिया गया है।
संत लूकस 14, 1-14 1) ईसा किसी विश्राम के
दिन एक प्रमुख फ़रीसी के यहाँ भोजन करने गये। वे लोग उनकी निगरानी कर रहे थे। 7)
ईसा ने अतिथियों को मुख्य-मुख्य स्थान चुनते देख कर उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया, 8)
''विवाह में निमन्त्रित होने पर सब से अगले स्थान पर मत बैठो। कहीं ऐसा न हो कि तुम से
प्रतिष्ठित कोई अतिथि निमन्त्रित हो 9) और जिसने तुम दोनों को निमन्त्रण दिया है,
वह आ कर तुम से कहे, 'इन्हें अपनी जगह दीजिए' और तुम्हें लज्जित हो कर सब से पिछले स्थान
पर बैठना पड़े। 10) परन्तु जब तुम्हें निमन्त्रण मिले, तो जा कर सब से पिछले स्थान
पर बैठो, जिससे निमन्त्रण देने वाला आ कर तुम से यह कहे, 'बन्धु! आगे बढ़ कर बैठिए'। इस
प्रकार सभी अतिथियों के सामने तुम्हारा सम्मान होगा; 11) क्योंकि जो अपने को बड़ा
मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा
मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा।'' 12) फिर ईसा ने अपने निमन्त्रण देने वाले से कहा,
''जब तुम दोपहर या शाम का भोज दो, तो न तो अपने मित्रों को बुलाओ और न अपने भाइयों को,
न अपने कुटुम्बियों को और न धनी पड़ोसियों को। कहीं ऐसा न हो कि वे भी तुम्हें निमन्त्रण
दे कर बदला चुका दें। 13) पर जब तुम भोज दो, तो कंगालों, लूलों, लँगड़ों और अन्धों
को बुलाओ। 14) तुम धन्य होगे कि बदला चुकाने के लिए उनके पास कुछ नहीं है, क्योंकि
धर्मियों के पुनरूत्थान के समय तुम्हारा बदला चुका दिया जायेगा।''
बड़ा-छोटा,
छोटा- बड़ा मित्रो, आज के सुसमाचार के 11 वें पद ने मुझे बहुत प्रभावित किया जिसमें
कहा गया है कि जो अपने को बडा मानता है वह छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा मानता
है वह बड़ा बनाया जायेगा। मित्रो, आज मैं आपको एक सवाल पूछता हूँ कि क्या आप अपने को
बड़ा मानते हैं? क्या आप बडा होने चाहते हैं? क्या आप सोचते हैं कि आप बड़े हो गये हैं?
क्या दूसरे लोग कहते हैं कि आप बड़े हो गये हैं? श्रोताओ आपने इस बात पर विचार न भी क्या
हो या आपके मन में ऐसा सोच न भी आया हो पर सच्चाई तो यह है कि हम कई बार यह सोच बैठते
हैं कि हम बड़े हो गये हैं। मित्रो, जरा अपनी ही कही बातों की हम याद करें। हमने कई बार
लोगों को यह कहते सुना है कि मैंने भी दुनिया देखी है। मुझे तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं
। यह मैं अकेले कर सकता हूँ । मेरे पास क्यो नहीं हैं मुझे तुम्हारे उपदेश की कोई ज़रूरत
नहीं उपदेशों की गठरी तुम्हें ही मुबारक हो आदि-आदि। मित्रो, यदि आप ने ऐसा कहा या ऐसा
सोचा हो तो प्रभु की बातों पर गौर करें। वे कहते हैं कि जो अपने को बड़ा समझता है वह
छोटा बनाया दिया जायेगा।
नम्र बनें मित्रो, आज के सुसमाचार में प्रभु एक और
सलाह दे रहे हैं। वे कहते हैं कि जब तुम्हें निमंत्रण मिले तो सबसे पीछे बैठो जिससे निमंत्रण
देने वाला आकर तुमसे कहे – महाशय आगे बढ़ कर बैठिये तब सभी अतिथियों के सामने तुम्हारा
सम्मान बढ़ेगा। मित्रो, आखिर प्रभु हमें क्या बताना चाहते हैं । वे हमसे कह रहे हैं कि
हम नम्र बनें। हम विनीत बनें। दूसरे शब्दों में येसु हमें कह रहे हैं कि आप अपने आप पर
घमंड मत कीजिये। अपने आपको बड़ा मत समझिये। नम्र बनिये दूसरों का सेवक बनिये। दूसरों
को भला नमूना दीजिये। दूसरों का सम्मान कीजिये। दूसरों के गुणों की तारीफ. कीजिये और
सदा अच्छाइयों को अपनाने और अच्छाई करने वालों को प्रोत्साहन दीजिये। सच पूछा जाये तो
यही है वास्तव में बड़ा बनने का तरीका। अपने को छोटा बनाना ताकि हम उस उँचाई को छू सकें
। हम नम्र बनें।
मित्रो, ठीक इसी भाव को प्रकट करते हुए प्रसिद्ध कवि संत कबीर
ने कहा था - "लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूरि। चींटी सक्कर ले चली,
हाथी के सिर धूरि॥" इसका भावार्थ है कि अगर आप अपन को नम्र बनाते हैं तो आप बड़े होते
हैं पर आप आप में बड़प्पन आ जाये तो बड़े नहीं रह जाते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे कि चींटी
छोटी है पर सदा ही नम्रतापूर्वक चीनी के दानों को लेकर अपने घर लाती है पर हाथी सोचता
है कि बड़ा और रास्ते से अपने लिये सिर्फ धूल ही लेकर आता है। मित्रो, बात स्पष्ट है
बड़ा दिखने और सोचने वाला बड़ा है कि अच्छी बातें सोचने, जमा करने और भला करने वाला।
नम्रता का अर्थ मित्रो, हो सकता है कि हम अपने आप से प्रश्न करें कि आखिर
जब येसु हमें नम्र होने का संदेश दे रहे हैं तो वे हमें कहना क्या चाहते हैं। येसु जब
हमसे कहते हैं कि नम्र बनें, छोट बनें तो वे हमसे तीन बातों का बता रहे हैं। पहली बात
कि हम हर व्यक्ति को का सम्मान करें चाहे वह ग़रीब हो या अमीर। हम उन्हें ईश्वर का वरदान
मानें। दूसरी बात कि हम अच्छाइयों को सीखने के लिये तैयार रहें। अच्छाई और सच्चाई
को गले लगायें औऱ अपनी को इससे मापें कि आपने कितनी बार नम्र होकर दूसरो का हित किया
है।और तीसरी बात कि आप जो भी करते हैं उसमें कोई दिखावा न हो आप जो कुछ भी करें ईश्वर
के लिये करें। आपके आचरण में कोई दोहरी चाल न झलके। जो आप बोलें वही आप करें और जो कहें
वैसा ही आचरण भी करें।
मित्रो, विश्वास मानिये अगर आपने इन तीन बातों को अपने
मन में रख लिया और उसके अनुसार जीवन जीने लगें तो हम अवश्य ही ईश्वर के सामने बड़े हो
जायेंगे। आज प्रभु का निमंत्रण है कि हम दूसरों का सम्मान करें हम अच्छाइयों को खुद करें
और दूसरों को इसके लिये प्रोत्साहन दे और साथ ही कोई दिखावा न करें और तब कौन आपको रोक
सकता है बड़ा होने से। अगर आप नम्रता के साथ जीवन व्यतीत करते हैं तो आप सच्चे मानव है
सही में ईश्वर की संतान है, सच्चे ईसाई सच्चे हिन्दु हैं सच्चे मुसलमान या सच्चे सिक्ख
हैं। ईसा-मसीह खुद ने भी यही किया और उन्होंने यही चाहा कि दुनिया का हर इंसान नम्र बनके
ही व्यक्ति दुनिया में सुखी और स्वर्ग में ईश्वरीय पुरस्कार का हकदार बने।