हैदराबाद, सोमवार 19 अगस्त, 2013 (उकान) स्कूल बच्चों के लिये केन्द्रीय सरकार द्वारा
चलायी जारी ‘मिडडे मील’ या ‘अपराह्न भोजन’ योजना जातिगत भेदभाव की शिकार होती जा रही
है। उक्त बात की जानकारी देते हुए स्थानीय कार्यकर्ताओं ने उकान समाचार को बतलाया
कि सरकार द्वारा 1.2 मिलियन स्कूलों के 120 मिलियन बच्चों के लिये अपराह्न के भोजन देने
की योजना अव्यवस्था का शिकार होती जा रही है। समाचार में बतलाया गया कि बिहार के
उच्च जाति के विद्यार्थी अपनी थाली लाते हैं ताकि उन्हें कमजोर वर्ग के विद्यार्थियों
की थाली में खाना न पड़े। ऐसी भी जानकारी प्राप्त हुई है कि मध्यप्रदेश में आदिवासी समुदाय
के विद्यार्थियों को स्कूल कैम्पस के किसी एक कोने में भोजन परोसा जाता है। एक स्वयंसेवक
अजय यादव ने बतलाया कि मध्यप्रदेश में अब भी मिडडे मील के समय विद्यार्थी अपनी जाति के
आधार पर बैठकर खाना खाते हैं। स्कूल प्रबंधन ने इसमें सुधार लाने का प्रयास किया है पर
अब तक इसमें पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई है। उधर बिहार के अरीजपुर गाँव में अब
भी राजपूतों ने उस परंपरा को बरकरार रखा है जिसके तहत वे चमार जाति के लोगों को बंधक
श्रमिक बनाये रखते हैं और अपने बच्चों को इस बात की शिक्षा देते हैं कि चमारों के बच्चों
से दूर रहें। श्रीहरि ने एक राष्ट्रीय सर्वे का हवाला देते हुए बतलाया कि अब भी उच्च
जाति के बच्चों को विशेष सुविधायी दी जाती हैं और निम्न जाति के बच्चों के साथ मिडडे
मील के समय सौतेला व्यवहार किया जाता है। समाज विज्ञान शोध के लिये बनी केंद्रीय
समिति ने इस तथ्य की पुष्टि की है। समिति ने बतलाया कि न केवल बच्चों को उच्च जाति के
बच्चों से दूर रखा जाता है बल्कि निम्न जाति के लोगों को भोजन तैयार करने का कार्य से
भी वंचित कर दिया गया है। ऐसी स्थिति में मिडडे मील का जो लक्ष्य है वही पूर्ण नहीं हो
रहा है।
मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट ने सन् 2004 में आदेश दिया था कि मिडडे मील
पकाने का दायित्व निम्न वर्ग या आदिवासियों को ही दिया जाना चाहिये। . मानव संसाधन
मंत्रालय ने इस संबंध में जानकारी प्राप्त करने के लिये कई टीम भेजे हैं ताकि भेदभाव
के संबंध में जानकारियाँ प्राप्त की जा सके। फिर भी भेदभाव को रोकने में कोई कारगर कदम
नहीं उठाया जा सका है और यह जारी रहा तो मिडडे मील का लक्ष्य पूरा नहीं हो पायेगा।