उपदेश ग्रंथ 1, 2: 2, 21-23 कलोसियों के नाम, 3, 1-5,9-11 संत लूकस 12, 13-21
जस्टिन
तिर्की, ये.स.
दो मित्र की कहानी मित्रो, आज आप लोगों को दो दोस्तों के बारे
बताता हूँ। एक समय की बात है किसी गाँव में दो मित्र रहा करते थे। दोनों एक-दूसरे का
बहुत सम्मान किया करते थे। दुःख में और सुख में सभी समय वे दोनों एक दूसरे का बहुत ख़्याल
करते थे। उनकी दोस्ती की एक और विशेषता थी कि उनके बीच कभी भी किसी भी बात को लेकर झगड़ा
नहीं हुआ था। एक दिन की बात है पहले मित्र ने दूसरे से कहा दोस्त क्या आपने एक बात पर
ग़ौर किया है। दूसरे ने कहा किस बात पर। पहले ने कहा देखो ने, हमारी दोस्ती इतने साल
बीत गये पर हमने आज तक कभी भी कोई झगड़ा नहीं किया है। दूसरे ने कहा यह बात बिल्कुल सच
है दोस्त हमने एक-दूसरे से कभी झगड़ा नहीं किया है। तब पहले ने मज़ाक के लहज़े में कहा
कि कम-से-कम हमें एक बार झगड़ कर तो देख लेना चाहिये। बस यह अनुभव करने के लिये कि झगड़ने
से कैसा लगता है। दूसरे मित्र ने कहा दोस्त मुझे तो यह पता ही नहीं है कि झग़ड़ा कैसे
लड़ा जाता है। तब पहले ने कहा कि दोस्त चिन्ता की बात नहीं है। झगड़ा लड़ना आसान है।
मैं अभी एक ईंट ले आता हूँ। उसे हम दोनों के बीच रखेंगे। तब मैं कहूँगा मेरा है और तुम
कहना मेरा है और लड़ाई शुरु हो जायेगी। बस क्या था पहले दोस्त ने एक ईंट लाया सामने रख
दिया। फिर शुरु हुई लड़ाई। पहले ने ईंट पकड़ते हुए कहा मेरा है तब दूसरे ने कहा नहीं
ये मेरा है। तब पहले ने फिर कहा मेरा है और दूसरे ने कहा मेरा है और दूसरे ने फिर कहा
नहीं, ये मेरा है। तब पहले ने कहा आप सही बोल रहे हैं यह ईँट आपका ही है। और मित्र लड़ाई
के मैदान से बाहर हो गये। लड़ाई समाप्त हो गयी। और वे फिर कभी नहीं लड़े नहीं। लडाई इसलिये
होती है कि हम समझते हैं कि मेरा है, मैं उसका मालिक हूँ और वो नहीं।
मित्रो,
रविवारीय आराधना विधि कार्यक्रम के अन्तर्गत पूजन विधि पंचांग के वर्ष ‘स’ के 18वें रविवार
के लिये प्रस्तावित सुसमाचार पाठ के आधार पर हम मनन-चिन्तन कर रहे हैं। आज के सुसमाचार
मे प्रभु हमें इस बात को बतलाना चाहते हैं कि मनुष्य के जीवन की एक सबसे बड़ी समस्या
है कि वह अधिक-से-अधिक पाना चाहता है। वह अपने लिये धन जमा करना चाहता है। वह आरादायक
ज़िन्दगी जीना चाहता है। आइये हम प्रभु के वचन को सुनें जिसे संत लूकस के 12वें अध्याय
के 13 से 21 पदों से लिया गया है।
संत लूकस 12,13-21
13) भीड़ में
से किसी ने ईसा से कहा, ''गुरूवर! मेरे भाई से कहिए कि वह मेरे लिए पैतृक सम्पत्ति का
बँटवारा कर दें''। 14) उन्होंने उसे उत्तर दिया, ''भाई! किसने मुझे तुम्हारा पंच
या बँटवारा करने वाला नियुक्त किया?'' 15) तब ईसा ने लोगों से कहा, ''सावधान रहो
और हर प्रकार के लोभ से बचे रहो; क्योंकि किसी के पास कितनी ही सम्पत्ति क्यों न हो,
उस सम्पत्ति से उसके जीवन की रक्षा नहीं होती''। 16) फिर ईसा ने उन को यह दृष्टान्त
सुनाया, ''किसी धनवान की ज’मीन में बहुत फ़सल हुई थी। 17) वह अपने मन में इस प्रकार
विचार करता रहा, 'मैं क्या करूँ? मेरे यहाँ जगह नहीं रही, जहाँ अपनी फ़सल रख दूँ। 18)
तब उसने कहा, 'मैं यह करूँगा। अपने भण्डार तोड़ कर उन से और बड़े भण्डार बनवाऊँगा, उन में
अपनी सारी उपज और अपना माल इकट्ठा करूँगा 19) और अपनी आत्मा से कहूँगा-भाई! तुम्हारे
पास बरसों के लिए बहुत-सा माल इकट्ठा है, इसलिए विश्राम करो, खाओ-पिओ और मौज उड़ाओ।'
20) परन्तु ईश्वर ने उस से कहा, 'मूर्ख! इसी रात तेरे प्राण तुझ से ले लिये जायेंगे
और तूने जो इकट्ठा किया है, वह अब किसका ह’ोगा?' 21) यही दशा उसकी होती है जो अपने
लिए तो धन एकत्र करता है, किन्तु ईश्वर की दृष्टि में धनी नहीं है।''
धन
और आराम मित्रो, मेरा पूरा विश्वास है कि आप लोगों ने आज के सुमसाचार को ध्यान से
पढ़ा है और प्रभु के दिव्य वचनों को सुनने से आपको और आपके परिवार के प्रत्येक सदस्य
को आध्यात्मिक लाभ हुए हैं। मित्रो, आज के सुसमाचार को सुनने के बाद आप हमें पूछेंगे
कि प्रभु धन जमा करने के विश्राम करने और जीवन का आनन्द उठाने के विरुद्ध क्यों हैं।
आखिर इसमें बुराई क्या है ? आप यह भी कहेंगे कि यदि हम अपने धन संपति को अपने मेहनत से
कमाई हैतो इसे दूसरों को आपत्ति क्यों है। अगर मैंने अपनी मेहनत के बल पर ज़्यादा धन
इकट्ठा कर लिये तो दुनियां के लोग मेरे जैसा होते क्यों नहीं हैं।
मित्रो, आपलोगों
का इस प्रकार सवाल करना उचित है। हमारी मेहनत की कमाई पर हमारा पूरा अधिकार होना ही चाहिये।
मित्रो, प्रभु को हमारे मेहनत की कमाई पर कोई इतराज़ नहीं हैं। वास्तव में प्रभु तो चाहते
हैं कि हम खूब कमायें और ऐसा ही हमारी क्षमता से सौ गुना फल उत्पन्न करें। वे तो चाहते
हैं कि हम दृष्टि से सम्पन्न बनें और अपने मन-दिल और परिवार के सदस्यों को खुशियों से
भर दें। तो मित्रो, कहाँ समस्या कहाँ है?
संपति और जीवन रक्षा आज के
सुसमाचार में प्रभु कहते हैं कि किसी के पास कितनी ही सम्पति क्यों न हो उस सम्पति से
उसके जीवन की रक्षा नहीं हो सकती है। प्रभु की नज़रों में सम्पति कमा कर यह सोचने लगना
की जीवन सुरक्षित हो गया है तो यह मानव की मूर्खता है। हाँ, यहाँ पर ध्यान देने की बात
यह है कि प्रभु बताना चाहते हैं कि प्रसन्न रहने के लिये धन तो चाहिये पर इसी से जीवन
की सच्ची खुशी नहीं मिलेगी। मित्रो, सिर्फ़ रुपयों को बैंकों में जमा कर लेना काफी नहीं।
खुद को योग्य या गुण-सम्पन्न बना लेना काफी नहीं। तो फिर मित्रो, प्रभु धन-सम्पति के
मामले में क्या कहना चाहते हैं? प्रभु का कहना है जो व्यक्ति धन इकट्ठा तो करता है पर
जो इसका उपयोग सिर्फ़ अपनी मौज़-मस्ती में करता है वह ईश्वर की दृष्टि में धनी नहीं हैं।
मित्रो, अब आपका अगला सवाल होगा कि तो फिर ईश्वर की नज़र में धनी कौन है? अगर हमारे पास
धन है पर उस धन के लिये हम धन्यवादी नहीं हैं, उस धन को हम सिर्फ़ अपना समझते हैं और
उस धन के सामने हम ईश्वर और मानव को नगण्य समझते हैं तो हम ईश्वर के सामने ग़रीब हैं।
ईश्वर
की नज़र गरीब-धनी अगर हम इसे दूसरे तरीके समझें तो हम पायेंगे कि हम ईश्वर की नज़रों
में ग़रीब हो जाते हैं अगर हम स्वार्थी हो जाते हैं। जब कोई व्यक्ति अपनी खुशी के लिये
दूसरों के हितों की बलि चढ़ा देता है या दूसरों का हक मार लेता है तो ऐसा व्यक्ति प्रसन्न
नहीं हो सकता है। मित्रो, आपको याद होगा कि बाईबल के बुराने व्यवस्थान में एक व्यक्ति
के नाम की चर्चा है जिसे जोसेफ के नाम से जाना जाता है। उसने भी मिश्र में राजा की इच्छा
के अनुसार बखारों में धन जमा किया था, पर उस धन को जमा करने के पीछे उसका एक ही मक़सद
था कि इससे लोगों की भलाई हो। और ऐसा ही हुआ जब पूरे देश में अकाल पड़ा तो इसका उपयोग
दूसरों की मदद के लिये ही हुआ।
मित्रो, यहाँ यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हममें
जो कुछ है, जो कुछ हमारा है और जो कुछ हमने आज तक हासिल किये हैं उसका उपयोग परहित में
ही हो। अगर हम ऐसा करते हैं तब हम प्रभु की नज़रों में धनी हैं। अगर हम अपनी अच्छाइयों
को, अपने ज्ञान को, अपने सद् विचारों को अपने धन को दूसरों के साथ बाँटने के लिये तैयार
हैं तब हम ईश्वर की नज़र में धनी हैं।
लालच और स्वार्थ मित्रो, ईश्वर की दृष्टि
में लालच एवं स्वार्थ स्वर्ग राज्य की प्राप्ति के मार्ग के सबसे बड़ी बाधा है। जो व्यक्ति
लालची है अर्थात् सिर्फ़ पाने की इच्छा रखता हो वह कभी भी सुखी नहीं रह सकता है। वह सुखी
दिखाई देने का प्रयास भले ही कर सकता हो। ठीक इसी प्रकार जो व्यक्ति सिर्फ़ अपनी चिन्ता
करता अपनी मौज़-मस्ती पर ही वक्त गुज़ारता वह व्यक्ति ईश्वरीय खुशी के वरदान का भागीदारी
नहीं हो सकता है। ठीक इसके विपरीत जो व्यक्ति धन जमा तो करता पर हमदम ईश्वर को धन्यवाद
देता कि वह जो कुछ है वह ईश्वर की कृपा से है और अपनी खुशी बढ़ाने के लिये दूसरों की
खुशी का ख़्याल करता वही व्यक्ति ईश्वर की नज़र में धनी है।
असल धन मित्रो,
जब कभी धन बाँटने की बात आती है तो हम इस बात की शिकायत करने लगते हैं कि हमारे पास तो
कुछ है ही नहीं हम क्या बाँटेंगे। मित्रो, मैं आपको इस बात की याद दिला दूँ कि पहले मैं
भी ऐसा ही सोचा करता था पर अब नहीं। मेरा जीवन मेरा धन हैं, मेरा समय मेरा धन है, मेरी
मुस्कुराहट मेरा धन है, मेरी हर इच्छा, सोच, बात और हर कदम मेरा धन है जिसका उपयोग मैं
इस दुनिया को अच्छा बनाने में लगाता हूँ तो यह धन मुझे आंतरिक रूप से प्रसन्न करने वाला
धन बन जाता है।
मित्रो, यदि हम चाहते हैं कि ईश्वर की नज़र में धनी बनें तो हमें
चाहिये कि हम ऐसा व्यक्ति बनें जो सुख के दिनों में खुशी और उत्साह के साथ अपनी अच्छाइयों,
सद्कार्यों और सद्व्यवहारों से इस दुनिया को आभास दें कि ईश्वर मानव के करीब है। इसके
साथ ही दुःख, दर्दों और चुनौतियों को ईश्वरीय वरदान के रूप देखें, धैर्यवान बनें और
अंत तक ईश्वर का भक्त बने रहें तो वह निश्चय ही हम ईश्वर की नज़र में धनी हैं। और ऐसे
व्यक्तियों को दुनियावी या बाहरी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उन्हें ईश्वरीय
खुशी प्राप्त है और यही है जीवन का असल धन।