2013-07-23 21:23:51

वर्ष का सतरहवाँ रविवार, 28 जुलाई, 2013


वर्ष का सतरहवाँ रविवार, 28 जुलाई, 2013


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जस्टिन तिर्की,ये.स.

मारकुस की कहानी
मित्रो, आज मैं आप लोगों एक वृद्ध की कहानी बताता हूँ उसका नाम था मारकुस। मारकुस जब बूढ़ा हो चला तब वह गाँव चला गया और वही अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथा रहा करता था। परिवार के सदस्यों ने उन्हें जंगल से लकड़ी लाने की ज़िम्मेदारी दी। वह रोज़ जंगल जाता, जलावन की लकड़ी जमा करता, उसे एक रस्सी से बाँधता और अपने कंधे पर ढोकर उसे घर लाता था। चूँकि वह बूढ़ा हो चला था इसलिये जब भी लकड़ी का भारी बोझ अपने कंधे में उठाता तो एक प्रार्थना किया करता था। वह कहता था, ‘हे प्रभु, कृपा करके अपना दूत भेज दीजिये ताकि वह यहाँ आये और मुझे इस दुनिया से उठा ले’। मारकुस ऐसी प्रार्थना करता रहा पर ईश्वर ने उसकी प्रार्थना कभी भी नहीं सुनी। वह प्रार्थना करता रहा – न कभी दूत उतरा ना व्यक्ति की प्रार्थना रुकी। एक दिन की बात है मारकुस लकड़ी लाने गया था। और दिनों की तरह ही उसने लकड़ी जमा की और उठाने का प्रयास करने लगा। जब वह लकड़ी नहीं उठा पाया तो उसने भगवान से वही प्रार्थना दुहरायी, - ‘हे प्रभु कृपा करके अपना दूत भेज दीजिये ताकि वह मुझे इस दुनिया से उठा ले’। और उस दिन स्वर्ग से दूत उतर आया और उस बूढ़े के समक्ष खड़ा हो गया और कहा, "महाशय आपकी प्रार्थना सुनी गयी है। मुझे भगवान ने आपके पास भेजा है कहिये क्या सेवा करुँ आपकी।" मारकुस भौंचक रह गया। वह दूत को देखता ही रह गया। दूत ने कहा कि मैं आपकी आज्ञा का इन्तज़ार कर रहा हूँ। आज्ञा दीजिये मैं क्या करुँ। मारकुस ने तुरन्त कर कहा, "अगर आपको कोई आपत्ति न हो तो इस लक़ड़ी की गठरी को मेरे घर पहुँचा दीजिये।" यह सुनना था कि स्वर्गदूत उस बूढ़े मारकुस की आँखों से ओझल हो गया।

मित्रो, रविवारीय आराधना विधि चिन्तन कार्यक्रम के अंतर्गत पूजन विधि पंचाँग के वर्ष ‘स’ के 17वें रविवार के लिये प्रस्तावित आधार पर हम मनन-चिन्तन कर रहें हैं। मित्रो, सुना आपने उस बूढ़े मारकुस ने क्या कहा दूत को? कहाँ गयी उसकी वो प्रार्थना जिसमें वह ईश्वर को एक दूत भेजने के बारे में कहा करता था ? खुद को ऊपर लिये जाने की प्रार्थनायें और कामना किया करता था। क्या हुई उसकी प्रार्थना को? क्या वह वास्तव में प्रार्थना करता का या सिर्फ बुदबुदाता था जिसका कोई अर्थ नहीं था। प्रार्थना क्या है ? क्या हम प्रार्थना करते हैं ?क्या हम भी सिर्फ़ माँगा करते हैं? क्या हम भी माँग करके निराश होते हैं? क्या हम भी सोचते है कि हमें प्रार्थना करनी नहीं आती? ख़ैर घबराइये नहीं। प्रभु हमारी मदद के लिये हमारे पास आ रहे हैं। आइये प्रभु हमें प्रार्थना के बारे में कुछ बताना चाहते हैं। आइये हम संत लूकस के 11 अध्याय के 1 से 13 पदों को सुने ।

संत लूकस 11, 1-13
1) एक दिन ईसा किसी स्थान पर प्रार्थना कर रहे थे। प्रार्थना समाप्त होने पर उनके एक शिष्य ने उन से कहा, ''प्रभु! हमें प्रार्थना करना सिखाइए, जैसे योहन ने भी अपने शिष्यों को सिखाया''।
2) ईसा ने उन से कहा, ''इस प्रकार प्रार्थना किया करोः पिता! तेरा नाम पवित्र माना जाये। तेरा राज्य आये।
3) हमें प्रतिदिन हमारा दैनिक आहार दिया कर।
4) हमारे पाप क्षमा कर, क्योंकि हम भी अपने सब अपराधियों को क्षमा करते हैं और हमें परीक्षा में न डाल।''
5) फिर ईसा ने उन से कहा, ''मान लो कि तुम में कोई आधी रात को अपने किसी मित्र के पास जा कर कहे, 'दोस्त, मुझे तीन रोटियाँ उधार दो,
6) क्योंकि मेरा एक मित्र सफ़र में मेरे यहाँ पहुँचा है और उसे खिलाने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है'
7) और वह भीतर से उत्तर दे, 'मुझे तंग न करो। अब तो द्वार बन्द हो चुका है। मेरे बाल-बच्चे और मैं, हम सब बिस्तर पर हैं। मैं उठ कर तुम को नहीं दे सकता।'
8) मैं तुम से कहता हूँ-वह मित्रता के नाते भले ही उठ कर उसे कुछ न दे, किन्तु उसके आग्रह के कारण वह उठेगा और उसकी आवश्यकता पूरी कर देगा।
9) ''मैं तुम से कहता हूँ-माँगो और तुम्हें दिया जायेगा; ढूँढ़ो और तुम्हें मिल जायेगा; खटखटाओ और तुम्हारे लिए खोला जायेगा।
10) क्योंकि जो माँगता है, उसे दिया जाता है; जो ढूँढ़ता है, उसे मिल जाता है और जो खटखटाता है, उसके लिए खोला जाता है।
11) ''यदि तुम्हारा पुत्र तुम से रोटी माँगे, तो तुम में ऐसा कौन है, जो उसे पत्थर देगा? अथवा मछली माँगे, तो मछली के बदले उसे साँप देगा?
12) अथवा अण्डा माँगे, तो उसे बिच्छू देगा?
13) बुरे होने पर भी यदि तुम लोग अपने बच्चों को सहज ही अच्छी चीजें’ देते हो, तो तुम्हारा स्वर्गिक पिता माँगने वालों को पवित्र आत्मा क्यों नहीं देगा?''

प्रार्थना का अंतर
मित्रो, मेरा विश्वास है कि आपने प्रभु के वचनों को ध्यान से सुना है और इसके द्वारा आपको और आपके परिवार के सब सदस्यों को आध्यात्मिक लाभ हुए हैं। तो मित्रो, अपने देखा ने प्रभु की सिखायी प्रार्थना और हमारी प्रार्थना में क्या अन्त हैं। हमारी प्रार्थनाओं में कुछ माँगे होतीं हैं कुछ दर्द होते हैं कुछ शिकायत होती हौ और कभी कुछ आश्चर्य तो कभी कुछ खीज़। खीज़ इसलिये कि ईश्वर क्यों हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर नहीं दे रहे हैं। श्रोताओ ख़ैर जो भी हो। सबसे बड़ी बता तो यह है कि हमने प्रार्थना करना नहीं छोड़ा है। कम-से-कम ऐसे समय में जब हम तकलीफ़ों से गुज़र रहे हैं या विपत्तियों से घिर गये हैं। ऐसे समय में हम लम्बी प्रार्थनायें न भी करते हों तो कम से कम हम ये तो भगवान का नाम लेते तो हमने अवश्य ही सुना है। मैंने कई लोगों से यह कहते सुना है ‘ओ गॉड, ‘हे राम’ ‘हे भगवान’ ‘देवा हो देवा’ आदि, आदि। मैंने तो कई लोगों को भगवान को धन्यवाद देते हुए भी सुना है। जब कभी उनकी इच्छा पूरी होती है तो वे गिरजा, गुरुद्वारा, मंदिर या मस्ज़िद जाते हैं और धन्यवाद की प्रार्थना खुद चढ़ाते हैं पंड़ित पुजारी को चढ़ाने का आग्रह कर डालते हैं। मित्रो, अगर हम अपनी प्रार्थनाओं और भगवान से अपने रिश्ते पर ग़ौर करें तो हम पाते हैं हमारा भगवान के साथ जो संबंध है वह तो एक सौदेबाज़ी के समान है। जब-जब हमें उनकी ज़रूरत पड़ी हम उनके दरबार में आ गये और उनका नाम लिये और यही है हमारा प्रार्थनामय जीवन।

पिता संबोधन
मित्रो, अगर हम प्रभु की सिखायी हुई प्रार्थना पर ज़रा ग़ौर करें तो हमें अवश्य ही कुछ प्रेरणायें मिलेंगी। येसु की सिखायी प्रार्थना के दो भाग है। पहले भाग में येसु अपने पिता ईश्वर से व्यक्तिगत रिश्ता कायम करते हैं। ज़रा ध्यान से सुनिया येसु ईश्वर को पिता कह कर पुकार रहे हैं। ग़ौरतलब बात है कि येसु ईश्वर को हमारे पिता कहते हैं। ईश्वर का किसी व्यक्ति के साथ कितना ही घनिष्ट संबंध क्यो न हो पर वे सबके पिता है, सबके सृष्टिकर्त्ता है,सबो के पालनहार हैं।
मित्रो, इस एक वाक्यांश से ही प्रभु ने प्रभु ने दो मधुर रिश्ते कायम कर लिये हैं। पहला कि उन्होंने ईश्वर को सबों का ‘पिता’ कहा और दूसरा इसके द्वारा पूरी मानव जाति से भी उनका संबंध भाई-बहनों का हो गया। वास्तव में भगवान को पिता कह कर संबोधित करना येसु के ज़माने के लिये एक क्रांतिकारी पहल थी। किसी ने ईश्वर को इतने व्यक्तिगत और इतनी आत्मीयता से नहीं पुकारा था। उस युग के लोगों ने ईश्वर को जिन नामों से संबोधित किया था यह दिखाता है कि ईश्वर उनसे बहुत दूर है, ईश्वर अति पवित्र है ईश्वर अति महान् है और मानव उससे दूर और कमजोर है।

प्रभु की प्राथमिकतायें
दूसरी मह्त्त्वपूर्ण बात येसु की प्रार्थना में स्पष्ट दिखाई देती है वह यह है कि येसु की प्राथमिकताओं और आम लोगों की प्राथमिकताओं में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। येसु की हार्दिक इच्छा है कि ईश्वर का नाम पवित्र माना जाये। येसु चाहते हैं कि सभी कोई ईश्वर को अपने जीवन में उचित और सर्वोच्च स्थान दें। इसका अर्थ है कि सब लोग ईश्वर के बारे में जानने का प्रयास करें उसकी अच्छाइयों को अपने जीवन मे देखे र सदा ही उन्हें अपने जीवन में पहला स्थान देना।

प्रार्थना में ईश्वर की इच्छा
येसु की प्रार्थना के पहले भाग में प्रभु येसु ने एक बात पर बल दिया है वह है ईश्वर की इच्छा पूरी हो। येसु चाहते है कि ईश्वर की इच्छा सदा पूरी हो। यहाँ पर मुझे एक बात ने प्रभावित किया है कि येसु की प्रार्थना यह नहीं है कि उनके जीवन में दुःख न आये। उनकी प्रार्थना यह भी नहीं है कि उन्हें सब कुछ मिले उसका स्वप्न पूरा हो। पर येसु की इच्छा है कि पिता ईश्वरी इचचा पूरी हो अर्थात् उनके जीवन की सब ही घटनाओं में वे ईश्वरीय इच्छा को देख सकें। वे ईश्वरीय इच्छा को समझ सकें। वे यह जान सकें कि हर घटना से प्रभु कुछ विशेष संदेश देना चाहते हैं। इतना ही नहीं हर घटना को देखते और स्वीकार करते हुए भले और अच्छे कार्य करते रहें।

प्रभु का निवेदन
मित्रो, हमने येसु की सिखायी प्रार्थना के पहले भाग पर मनन-चिन्तन किया है। दूसरे भाग में येसु ने चार निवेदनों को ईश्वर को चढ़ाया है। उनका पहला निवेदन है भोजन के बारे में। प्रभु चाहते हैं कि हमें शारीरिक और आध्यात्मिक आहार मिले। दूसरा निवेदन में येसु ईश्वर से यही माँग कर रहे हैं कि वे उनके मानवीय कमजोरियों को माफ कर दें ताकि व्यक्ति बार-बार गलतियों के शिकार होकर जीने का उत्साह न खो दें। येसु की तीसरी प्रार्थना है कि ईश्वर परीक्षा की घड़ी में उन्हें विवेक प्रदान करें ताकि वह सदा ईश्वर को पहचान सके। और चौथी और अंतिम प्रार्थना में येसु पिता परमेश्वर से यही माँग रहे हैं कि वे ईश्वर सदा पहचाने और उसकी इच्छा के अनुसार ही निर्णय ले सकें।

प्रार्थना और हमारा रिश्ता
मित्रो, आज प्रभु हम सबों को आमंत्रित कर रहे हैं ताकि हम प्रार्थना के द्वारा अपने संबंध अपने ईश्वर से मजबूत कर सकें। और इस प्रकार हमारी प्रार्थनायें सिर्फ माँगों और निवेदनों को थोथा पुलिन्दा न बन जाये बल्कि एक पावन अटूट रिश्ता बन जाये। यह एक ऐसा रिश्ता बने जो इस आधार पर टिका न रहे कि मुझे क्या मिलता है पर इस पर नींव पर हो कि मैं प्रभु के लिये क्या दे पाता हूँ मैं उनके लिये क्या दुःख उठा पाता हूँ मैं ख़ुद को ईश्वर के लिये कितना योग्य बना पाता हूँ और अपनी अच्छाइयों से अड़ोस-पड़ोस के लोगों को अच्छा, भला और आशावान बनने में कितना योगदान दे पाता हूँ। अगर हमने ऐसी प्रार्थना सीख ली तो हम भगवान और अपने पड़ोसियों के बहुत करीब होंगे और ईश्वर का राज्य इस धरा पर आने को भला कौन रोक पायेगा !








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