वाटिकन सिटी 11 मई सन् 2013 लाकोनी के एक ग़रीब किसान परिवार में सन्त इग्नेशियस का
जन्म, 17 दिसम्बर, सन् 1701 ई. को हुआ था। 17 वर्ष की आयु में जब इग्नेशियस गम्भीर रूप
से बीमार पड़े तब उन्होंने प्रण किया कि यदि उनकी प्राण रक्षा हुई तो वे फ्राँसिसकन धर्मसमाज
में प्रवेश कर लेंगे। तथापि, जब इग्नेशियस रोगमुक्त हुए तब उनके पिता ने उन्हें मठवासी
जीवन में प्रवेश से मना कर दिया। कुछ वर्षों बाद अपने घोड़े पर इग्नेशियस का नियंत्रण
नहीं रहा और उनकी जान पर आ बनी किन्तु कुछ ही क्षणों बाद घोड़ा अपने आप रुक गया। उसी
क्षण इग्नेशियस ने अपने जीवन का राह को पहचान लिया तथा ईश्वर एवं पड़ोसी के प्रति अपना
जीवन अर्पित करते हुए फ्राँसिसकन धर्मसमाज में भर्ती हो गये।
फ्राँसिसकन मठ में
धर्मबन्धु इग्नेशियस को कभी भी महत्वपूर्ण पद नहीं मिला। भर्ती होने के 15 वर्षों बाद
तक वे एक जुलाहे की तरह मठवासियों के कपड़े बुनते रहे। तदोपरान्त, चालीस वर्ष तक वे उन
भिक्षुओं के दल में रहे जो घर घर जाकर फ्राँसिसकन भिक्षुओं के लिये अशंदान एवं भोजन की
भिक्षा मांगा करते थे। अपनी इन यात्राओं के दौरान धर्मबन्धु इग्नेशियस ने लोगों को अत्यधिक
प्रभावित किया इसलिये कि वे केवल भिक्षा ही नहीं मांगते थे किन्तु लोगों के लिये प्रार्थना
करते थे, रोगियों को उपचार एवं मरणासन्न लोगों को सान्तवना देते थे। वे शत्रुओं के बीच
मेलमिलाप का प्रयास किया करते, पाप में पड़े लोगों को पश्चाताप का सन्देश देते तथा कठिनाई
में पड़े लोगों को परामर्श दिया करते थे। कुछ ही समय में इग्नेशियस इतने लोकप्रिय हो
गये कि लोग उनके आने की राह देखने लगे थे।
धर्मबन्धु इग्नेशियस को कठिनाईयों
और निराशा की घड़ियों का भी सामना करना पड़ा। अनेक बार लोग उन्हें देखते ही दरवाज़ा बन्द
कर दिया करते थे। कभी कभी मौसम ख़राब रहा करता था और कड़ाके ठण्ड में ठिठुरते इग्नेशियस
मीलों पैदल चलते चले जाते थे। इन सब कठिनाइयों के बावजूद इग्नेशियुस ने हार नहीं मानी
और दृढ़तापूर्वक अपने मिशन की राह पर आगे बढ़ते गये। वे घर-घर जाकर भिक्षा मांगा करते
थे किन्तु लोगों ने भी इस बात पर ग़ौर किया कि एक धनी साहूकार के घर के सामने वे कभी
नहीं रुकते थे इसलिये कि साहूकार निर्धनों को पैसे उधार तो दे देता था किन्तु कई गुना
वापस लेता था, न देने पर उन्हें उत्पीड़ित किया करता था। साहूकार ने जब देखा कि इग्नेशियस
उससे भिक्षा मांगने उसके यहाँ कभी नहीं आते तो उसे बहुत बुरा लगा और उसने उनकी शिकायत
मठाध्यक्ष से कर दी। मठाध्यक्ष साहूकार के विषय में कुछ नहीं जानते थे इसलिये उन्होंने
इग्नेशियस को आदेश दिया कि वे साहूकार के घर जाकर चंदा एकत्र करें। इग्नेशियस कुछ बोले
नहीं, बस आज्ञा का पालन करते हुए साहूकार के यहाँ चल दिये। साहूकार ने उन्हें अनाज का
एक बड़ा सा बोरा दे दिया। इग्नेशियस बोरा मठ तक ले आये किन्तु जब उन्होंने उसे खाली किया
तब अचानक उससे खून बहने लगा इसपर इग्नेशियस बोल उठे, "यह ग़रीबों का खून है, इसीलिये
मैं उस घर में भिक्षा मांगने कभी नहीं जाता था।" तदोपरान्त मठवासियों ने साहूकार के मनपरिवर्तन
हेतु प्रार्थना की जिसने पश्चाताप कर अपना पाप स्वीकार किया।
80 वर्ष की आयु
में 11 मई, सन् 1781 को धर्मबन्धु इग्नेशियस का निधन हो गया था। सन् 1951 ई. में, सन्त
पापा पियुस 12 वें ने उन्हें सन्त घोषित कर कलीसिया में वेदी का सम्मान प्रदान किया था।
लाकोनी के सन्त इग्नेशियस का पर्व 11 मई को मनाया जाता है।
चिन्तनः
"मेरी आँखें जो कुछ चाहती, उस से मैंने परहेज नहीं किया। मैंने अपने हृदय को किसी भी
प्रकार के भोग-विलास से वंचित नहीं रखा। मेरा मन मेरे सब कामों में आनन्द लेता था: यह
मेरे लिए अपने सारे परिश्रम का पुरस्कार था। तब मैंने अपने हाथों के सब कामों पर और उन्हें
सम्पन्न करने के लिए अपने सारे परिश्रम पर विचार किया; मैंने देखा कि यह सब व्यर्थ और
हवा पकड़ने के बराबर है। पृथ्वी पर उससे कोई लाभ नहीं होता" (उपदेशक ग्रन्थ 2: 10-11)।