2013-04-02 09:02:38

प्रेरक मोतीः पाओला के सन्त फ्राँसिस (15वीं शताब्दी)


वाटिकन सिटी 02 अप्रैल सन् 2013
फ्राँसिस का जन्म इटली के पाओला नगर में हुआ था। पाओला स्थित फ्राँसिसी शिक्षण संस्थान, सन्त मार्को में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई थी। जब वे 15 वर्ष के हुए तब उन्होंने पाओला नगर के निकट ही एक गुफा में एकान्त जीवन यापन आरम्भ कर दिया था। सन् 1436 ई. में उन्होंने अपने दो सहयोगियों के साथ मिलकर एक भिक्षु समाज की स्थापना की। भिक्षुओं के लिये उन्होंने पाओला में ही एक मठ बनवाया तथा भिक्षु जीवन के नियमों की प्रस्तावना की जिनमें अकिंचनता, ब्रह्मचर्य एवं आज्ञाकारिता की सुसमाचारी शपथों के साथ साथ उन्होंने विनम्रता, उदारता एवं पश्चाताप पर भी बल दिया। कुछ समय बाद भिक्षुओं के लिये उपवास एवं माँसहारी भोजन से परहेज़ को भी प्रस्तावित कर दिया गया।

बाईबिल पाठ तथा ईश्वर में ध्यान लगाना पाओला के फ्राँसिस की दिनचर्या हो गई थी किन्तु इसके साथ साथ वे परोपकार एवं उदारता के कार्यों में भी जुटे रहते थे। फ्राँसिस को अनेक चमत्कारों एवं चंगाई का श्रेय दिया जाता है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि उन्हें भविष्यवाणी करने तथा मनुष्यों के अन्तरमन में झाँकने का विशेष वरदान प्राप्त था।

पाओला के फ्राँसिस द्वारा स्थापित भिक्षु समाज को सन् 1474 ई. में सन्त पापा सिक्सटुस चौथे ने मान्यता देकर इसे "असीसी के सन्त फ्राँसिस के भिक्षु" नाम दे दिया था। सन् 1492 ई. में इसी भिक्षु समाज का नाम "मिनिम फ्रायर्स" धर्मसमाज पड़ा। सिसली द्वीप तथा सम्पूर्ण इटली के दक्षिणी भाग में असीसी के सन्त फ्राँसिस के भिक्षुओं के कई मठ खुल गये।

भिक्षुओं की प्रेरिताई इतनी विख्यात हो गई कि फ्राँस के मरणासन्न सम्राट लूईस 11 वें ने, सन्त पापा से अनुमति लेकर, चंगाई प्राप्त करने की आशा से, भिक्षु पाओला के फ्राँसिस को अपने यहाँ बुलवाया। सम्राट स्वस्थ तो नहीं हो पाये किन्तु फ्राँसिस की उपस्थिति से उन्हें रोगावस्था में बहुत सान्तवना मिली। उनके सुपुत्र चार्ल्स अष्टम भी फ्राँसिस से अत्यधिक प्रभावित हुए तथा उनके मित्र बन गये। चार्ल्स अष्टम ने फ्राँस में जगह जगह "मिनिम भिक्षुओं" के लिये मठ खुलवा दिये। पाओला के फ्राँसिस ने फ्राँस के प्लेसिस स्थित एक मठ में ही अपने जीवन के अन्तिम दिन व्यतीत किये। दो अप्रैल को वहीं उनका निधन हो गया। सन् 1519 ई. को पाओला के फ्राँसिस को सन्त घोषित किया गया था। उनका पर्व 02 अप्रैल को मनाया जाता है।

चिन्तनः अनुशासन, संयम एवं सतत् प्रार्थना ईश मार्ग की ओर ले जाती है।








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