2013-02-28 18:47:13

वाटिकन सिटीः सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें का व्यक्तित्व एवं कृतित्व


वाटिकन सिटा, 28 फरवरी सन् 2013 (सेदोक): सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने, सोमवार, 11 फरवरी सन् 2013 को आश्चर्यचकित कर देनेवाली एक घोषणा से, कह दिया था कि कलीसिया की भलाई के लिये 28 फरवरी सन् 2013 को वे अपना पद त्याग देंगे क्योंकि अब इस महान प्रेरिताई का भार ढोने लिये उनकी शक्ति क्षीण हो चली थी।
बेनेडिक्ट 16 वें की इस घोषणा ने सम्पूर्ण विश्व में हलचल मचा दी थी इसलिये कि काथलिक कलीसिया के परमाध्यक्ष द्वारा पदत्याग एक अति विरल घटना है। सन् 1294 ई. में सन्त पापा सेलेस्टीन ने केवल पाँच माहों तक परमाध्यक्षीय पद सम्भालने के बाद ही अपना पद त्याग दिया था। परमाध्यक्षीय पद त्यागनेवाले सबसे अन्तिम सन्त पापा थे ग्रेगोरी 12 वें जिन्होंने सन् 1415 ई. में अपना पदत्याग दिया था।
कलीसियाई विधान की एक धारा के अनुसार यदि सन्त पापा स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय लें तो उनका पदत्याग वैध माना जा सकता है।
27 वर्षों तक काथलिक कलीसिया के परमाध्यक्ष पद पर बने रहे, धन्य सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय के निधन के बाद, 19 अप्रैल सन् 2005 को जर्मनी के 78 वर्षीय कार्डिनल जोसफ राटसिंगर सन्त पापा नियुक्त किये गये थे जिन्होंने सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें नाम धारण किया था।
16 अप्रैल सन् 1927 ई. को जर्मनी के बवारिया प्रान्त स्थित मार्क्ट्ल अम इन्न के एक पारम्परिक परिवार में जोसफ अलोईस राटसिंगर का जन्म हुआ था। काथलिक कलीसिया के इतिहास में कलीसियाई परमाध्यक्ष का पद ग्रहण करनेवाले वे आठवें जर्मन सन्त पापा थे। मातृभाषा जर्मन के अलावा अनेक भाषाओं के ज्ञाता सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें शास्त्रीय संगीत में भी अभिरुचि रखते हैं। बताया जाता है पाँच वर्ष की कम उम्र में ही म्यूनिख में आनेवाले लाल रंग के वस्त्र धारण किये धर्माध्यक्षों के प्रति आकर्षण को उनमें देखा जा सकता था जिसे वे वाटिकन तक खींच लाये। सन्त पापा पद पर अपनी नियुक्ति के साथ ही उन्होंने परमाध्यक्षीय शीर्ष परिधान एवं कन्धों पर डाले जानेवाले शॉल की पुनर्प्रस्तावना की।
14 वर्ष की आयु में जोसफ राटसिंगर को हिटलर के युवा बल में भर्ती होना पड़ा क्योंकि यह उस समय के जर्मन युवाओं के लिये अनिवार्य था। द्वितीय विश्व युद्ध के कारण ट्राऊन्स्टाईन गुरुकुल में उन्हें अपने अध्ययन को अधूरा छोड़ना पड़ा। युद्धोपरान्त उन्होंने सेना से इस्तीफा ले लिया था जिसके बाद सन् 1945 ई. में कुछ समय तक वे युद्धबन्दी रूप में जेल में भी रहे। अपने संस्मरण में सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें लिखते हैं: "नाजी शासन सत्य एवं नास्तिकता के बीच का छलिया संघर्ष था जिसने मानव एवं ईश्वर दोनों का अपमान किया।"
सन् 1951 ई. में पुरोहित अभिषिक्त होने के बाद जोसफ राटसिंगर 50 एवं साठ के दशकों में ईश शास्त्र के विश्वविद्यालयीन प्राध्यापक रूप में प्रतिष्ठापित हो गये थे। बॉन से ट्यूबिंगन तथा अन्त रेगन्सबुर्ग विश्वविद्यालयों में जोसफ राटसिंगर ईश शास्त्र एवं धर्मतत्व विज्ञान के प्राध्यपक रहे। सन् 60 के स्वच्छंदतावादी दृष्टिकोण एवं मार्क्सवाद के बोलबाले का उन्होंने खुलकर विरोध किया तथा ऐसे युग में जब ईश्वर एवं धर्म को दबाने की कोशिश हो रही थी अपने छात्रों को ईश्वर एवं सत्य पर आलोकित किया। उनकी दृष्टि में धर्म को एक राजनैतिक विचारधारा के अधीन करने का प्रयास किया जा रहा था जो उनके अनुसार, "निरंकुश, अत्याचारी, बर्बर एवं क्रूर था"।
सन् 1977 ई. में सन्त पापा पौल षष्टम ने जोसफ राटसिंगर को म्यूनिख एवं फ्राईज़िग का महाधर्माध्यक्ष नियुक्त कर दिया था। सन् 1981 में सन्त पापा जॉन पौल के निमंत्रण पर जोसफ राटसिंगर रोम आये थे। ईश शास्त्र के विद्धान जोसफ राटसिंगर को सन्त पापा ने विश्वास एवं धर्मसिद्धान्त सम्बन्धी परमधर्मपीठीय परिषद का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया था। सन्त पापा नियुक्त किये जाने से पूर्व भी लगभग 25 वर्षों तक जोसफ राटसिंगर परमधर्मपीठ एवं काथलिक कलीसिया में एक महत्वपूर्ण विद्धान एवं सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय के निकट सहयोगी रहे थे।
विश्वास एवं धर्मसिद्धान्त सम्बन्धी परमधर्मपीठीय परिषद के अध्यक्ष पद पर रहते हुए तथा सन् 2005 से काथलिक कलीसिया के परमाध्यक्ष पद पर रहते उन्होंने सदैव काथलिक विश्वास के मूलभूत तत्वों की रखवाली की। विरोधों के बावजूद उन्होंने समलिंगकाम, महिलाओं के पुरोहिताभिषेक, गर्भपात, अप्राकृतिक संतति निग्रह आदि पर कभी समझौता नहीं किया। यौन दुराचार में संलग्न पुरोहितों को उन्होंने फटकार बताई तथा इस बात पर बल दिया कि कलीसियाई धर्माधिकारी अपनी ज़िम्मेदारी वहन करें तथा अनुचित व्यवहार करनेवाले पुरोहितों को बाहर का रास्ता दिखायें। विश्व तथा यूरोप में आये नैतिक ह्रास की पृष्ठभूमि में, मूलभूत ख्रीस्तीय मूल्यों की सुरक्षा उनके परमाध्यक्षीय काल का केन्द्रभूत विषय बन गया।
ख्रीस्तीय दयाभाव के वे अग्रणी रहे तथा अपने सन्देशों, विश्वपत्रों एवं कृतियों के माध्यम से मानवाधिकार, पर्यावरण की सुरक्षा, निर्धनता एवं अन्याय के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करते रहे। सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें के निकट सहयोगी एवं मित्र उनके मज़बूत नैतिक मूल्यों से वाकिफ़ होने के साथ साथ उनके विनम्र, मृदुल एवं दयालु व्यक्तित्व से भी परिचित हैं।
काथलिक कलीसिया के महत्व को प्रकाशित करने के साथ साथ सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने ईश्वर के मुक्तिदायी प्रेम का मर्म भी समझाया। धर्म के प्रति उदासीनता एवं क्रियाशीलता की अति के आगे उन्होंने प्रार्थना के महत्व पर बल दिया। ख्रीस्त के अनुयायियों के बीच पूर्ण एकता की उन्होंने बारम्बार अपील की है तथा न्याय एवं शांतिपूर्ण समाज के निर्माण के लिये विभिन्न धर्मों के मध्य वार्ताओं को प्रोत्साहन दिया। इस्तामबुल स्थित नील मस्जिद, जैरूसालेम स्थित डोम ऑफ द रॉक एवं पश्चिमी दीवार पर शांति हेतु उनकी प्रार्थना इस बात के प्रमाण हैं। उन्होंने काथलिक कलीसिया एवं कला के बीच सम्बन्ध को नवीकृत किया तथा सृष्टि के सौन्दर्य को पवित्रता की ओर बढ़ते मार्ग पर ले जानेवाला माध्यम बताया। 19 अप्रैल सन् 2005 से 28 फरवरी सन् 2013 तक विवेक एवं सूझबूझ के साथ विश्वव्यापी काथलिक कलीसिया की बागडोर सम्भालने वाले पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने विश्व इतिहास के सुनहरे पन्नों पर ही नहीं अपितु हममें से प्रत्येक के हृदय पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी है।








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