प्रेरक मोतीः सन्त फ्राँसिस दे सालेस (1567 -1622 ई.)
वाटिकन सिटी, 24 जनवरी सन् 2013
फ्राँसिस दे सालेस का जन्म फ्राँस के शाटो दे
सालेस में, 21 अगस्त, सन् 1567 ई. को, सालेस कुलीन परिवार में हुआ था। उनके पिता फाँसुआ
दे सालेस बोईसी, सालेस तथा नोवेल के मुखिया थे। छोटी उम्र में ही फ्राँसिस ने प्रभु की
बुलाहट सुनी थी किन्तु उसे अपने परिवार से छिपाये रखा था। पिता ने फ्राँसिस को सैनिक
बनाने के आशय से पेरिस पढ़ाई के लिये भेजा उस समय भी फ्राँसिस कुछ नहीं बोले। सैन्य शिक्षा
प्राप्त करने के उपरान्त वे कानून संहिता में डॉक्टरेड की उपाधि के लिये इटली के पादुआ
चले गये। पिता फाँसुआ, पुत्र की पढ़ाई में, पूर्ण समर्थन दे रहे थे किन्तु, बिना किसी
को बताये, फ्राँसिस कानून के साथ साथ ईश शास्त्र का भी अध्ययन करते गये तथा मनोरंजन एवं
अवकाश के समय प्रार्थना में समय बिताने लगे।
एक बार फ्राँसिस अपने घोड़े पर सवार
कहीं जा रहे थे कि तीन बार कुछ ऐसा हुआ कि वे घोड़े पर से गिर गये। जब-जब वे भूमि पर
गिरते तब-तब तलवार म्यान में से निकल जाती थी तथा धरती पर तलवार तथा म्यान से क्रूस का
चिन्ह बन जाता था। क्रूस का चिन्ह इस तरह उनके सामने प्रकट होता देख फ्राँसिस ने ईश इच्छा
को पहचान कर पुरोहिताई जीवन स्वीकार कर लिया। उन्हें धर्मप्रान्त का सचिव नियुक्त कर
दिया गया। तदोपरान्त फ्राँसिस स्विटज़रलैण्ड चले गये तथा वहीं से अपनी प्रेरिताई का निर्वाह
करते रहे।
प्रॉटेस्टेण्ट सुधारवादी काल के दौरान उन्होंने अपने प्रवचनों से अधिकाधिक
काथलिकों को कलीसिया का परित्याग न करने का परामर्श दिया। स्विटज़रलैण्ड के उन्हीं पहाड़ों
में कैलवानिस्ट ख्रीस्तीय सम्प्रदाय का वर्चस्व था। उन्होंने कम से कम 60,000 कैलवानिस्ट
ख्रीस्तीयों को पुनः काथलिक कलीसिया में लौटाने का भरसर प्रयास किया जिसमें उन्हें खास
सफलता नहीं मिली इसलिये कि उनके इस उद्यम को आर्थिक समर्थन देने से उनके पिता ने इनकार
कर दिया था तथा उनका धर्मप्रान्त, निर्धन होने की वजह से, इसे समर्थन नहीं दे सका। इन
कठिनाईयों के बावजूद फ्राँसिस अध्यवसायता के साथ अपने प्रेरितिक कर्त्तव्यों का निर्वाह
करते रहे। अन्ततः उनके प्रयास फल लाये और लगभग 40,000 लोग पुनः काथलिक कलीसिया में लौटे।
सन् 1602 ई. में फ्रासिस दे सालेस को जिनिवा का धर्माध्यक्ष नियुक्त कर दिया
गया जो कैलवानिस्ट ख्रीस्तीयों का गढ़ माना जाता था। सन् 1604 ई. में फ्राँसिस के जीवन
ने एक महत्वपूर्ण मोड़ ले लिया और वे पवित्रता एवं ईश्वर के साथ रहस्यमय संयोजन हेतु
अग्रसर हो गये। डिजोन में फ्राँसिस की मुलाकात जेन दे शानताल नामक महिला से हो गई जिन्हें
उन्होंने सपने में देखा था। जेन एक धर्मी महिला थी जो ईश्वर के संग रहस्यमय एकता के पथ
पर बढ़ रही थी। उन्होंने फ्राँसिस को अपना आध्यात्मिक गुरु मान लिया और दोनों एक दूसरे
की सहायता करते हुए पवित्रता के पथ पर अग्रसर होते गये। जेन के साथ तीन वर्ष ईश्वर पर
मनन चिन्तन में व्यतीत करने के बाद फ्राँसिस ने एक धर्मसंघ की स्थापना की। एक धनवान व्यक्ति
ने फ्राँसिस को कान्वेन्ट की स्थापना के लिये जगह दे दी। तदोपरान्त, फ्रांसिस जगह-जगह
प्रवचन करते रहे तथा धर्मशिक्षा प्रदान करते रहे। अपनी अनगिनत मिशन यात्राओँ के कारण
वे अक्सर बीमार रहने लगे थे तथा दुर्बल हो गये थे। इसी बीच, उन्होंने ईश्वर एवं पड़ोसी
की सेवा के इच्छुक पुरुषों के लिये भी एक धर्मसमाजी मठ की स्थापना की। अपने मठवासियों
एवं धर्मबहनों को पवित्रता में अग्रसर करना ही अब उनका मिशन बन गया था।
सन् 1608
ई. में उन्होंने "भक्तिमय जीवन की प्रस्तावना" नामक पुस्तक का रचना की। मूलतः ये फ्रांसिस
के पत्रों का संकलन था जो मुद्रण के तुरन्त बाद सम्पूर्ण यूरोप में लोकप्रिय हो गया।
फ्राँसिस के लिये "ईश प्रेम" रोमांचक प्रेम था। वे कहा करते थेः "जिस प्रकार प्रेम करनेवाला
प्रेमी के बारे में सोचते नहीं थकता उसी प्रकार ईश्वर से प्रेम करनेवाले ईश्वर के बारे
में सोचते नहीं थकते, वे उनकी प्रतीक्षा करते, उनकी आकाँक्षा रखते तथा उनके बारे में
लोगों को बताते रहते हैं। यदि उनका बस चले तो वे येसु का नाम सम्पूर्ण मानवजाति के हृदय
पर अंकित कर दें।"
फ्राँसिस का अटल विश्वास था कि प्रार्थना ईश प्रेम को पाने
की कुँजी है। सांसारिक दायित्वों में फँसे व्यस्त लोगों से वे कहा करते थेः "कभी कभी
काम को अलग रखकर अपने हृदय के अकेलेपन में प्रवेश कीजिये तथा ईश्वर से बातचीत कीजिये"।
फ्राँसिस कहते थे व्यक्ति के कर्म उसकी प्रार्थना की परीक्षा हैः "प्रार्थना में स्वर्गदूत
तथा लोगों के साथ जानवर सा व्यवहार, दोनों टाँगों से लँगड़े हो जाने जैसा है।"
वृद्धावस्था
में भी फ्रांसिस ने अपने प्रवचनों को जारी रखा। जीवन के अन्तिम वर्षों में वे एकान्त
में पलायन करना चाहते थे किन्तु सन्त पापा को उनकी ज़रूरत थी। साथ ही एक राजकुमारी तथा
सम्राट लूईस 13 वें ने उन्हें बुला भेजा था। एक धर्मबहन को "विनम्रता" का परामर्श देते
देते 28 दिसम्बर सन् 1622 ई. को फ्राँसिस दे सालेस का देहान्त हो गया। अपने पत्रों, निबन्धों
एवं अनेक कृतियों के कारण सन्त फ्राँसिस दे सालेस पत्रकारों के संरक्षक घोषित किये गये
हैं। सन्त फ्राँसिस दे सालेस का पर्व 24 जनवरी को मनाया जाता है।
चिन्तनः
"मैं प्रभु के कारण आनन्द मनाऊँगा; उसकी सहायता के कारण मैं उल्लसित हो उठूँगा। मेरी
समस्त हड्डियाँ यह कहेंगी: ''प्रभु! तेरे समान कौन है? तू प्रबल अत्याचारी से दरिद्र
की और शोषक से दीन-हीन-की रक्षा करता है" ( स्तोत्र ग्रन्थ 35:9-10)।