2012-10-19 11:34:34

वर्ष ‘ब’ का 29 वाँ रविवार, 21 अक्तूबर, 2012


इसायस का ग्रंथ 53, 10-11
इब्रानियों के नाम पत्र 4, 14-16
संत मारकुस 10, 35-45
जस्टिन तिर्की, ये.स.

गाय और सूअर की कहानी
आज मैं दो जानवरों के बारे में कहानी बताता हूँ । किसी शहर में जोन नामक एक धनी व्यक्ति रहा करता था। उस जानवरों से बहुत प्यार था। उसने अपने घर में कई जानवर पाल रखे थे। उनमें से एक सूअर और एक गाय को वह बहुत प्यार करता था। गाय और सूअर भी बड़े ही प्यार से रहा करते थे। एक दिन की बात है गाय और सूअर आपस में बात कर रहे थे। सूअर ने शिकायत भरे लहजे में गाय से कहा देखो न हम लोगों के कितने काम के हैं फिर भी हमें कोई प्यार से नहीं देखता है। हमारी आँखें कितनी भोली हैं पर लोग इसकी तारीफ़ नहीं करते हैं। दुनिया के लोग हमारे माँस को कितने चाव से खाते हैं पर हमें वे सम्मान नहीं देते हैं। हमारे नाम को कई बार लोग गालियाँ देने के लिये उपयोग में लाते हैँ। तुम गायों को तो लोग भगवान के समान सम्मान देते हैं। तुम तो लोगों को सिर्फ़ दूध ही न प्रदान करती हो। सब कुछ सुनने के बाद गाय ने कहा कि तुम जो कह रहे हो वह सही है। लोग हमें बहुत सम्मान देते हैं। मैं सोचती हूँ शायद यह इसलिये है कि तुम लोगों के काम तब आते हो जब तुम इस दुनिया से चले जाते हो। पर हम गायें मनुष्य को अपनी सेवायें प्रदान करते हैं जब हम उनके साथ जीते रहते हैं। तुम सूअरों के मांस का उपयोग तो मरने के बाद किया जाता है पर हम गायें दुनिया के लोगों के लिये अपनी दूध देते हुए अपना जीवन बिता देती हैं। मित्रो, जीवन में लोगों के काम आना और अपनी सेवा से दूसरों का कल्याण करना ही सफल जीवन हैं। अपने छोटे कार्यों से लोगों की सेवा करने से ही हम ईश्वर की नज़र में बड़े बनते हैं।

सुसमाचार, मारकुस 10, 35-45

मित्रो, रविवारीय आराधना विधि चिन्तन कार्यक्रम के अंतर्गत पूजन विधि पंचांग के वर्ष के उनत्तीसवें रविवार के लिये प्रस्तावि पाठों के आधार पर हम मनन चिंतन कर रहें हैं। आज प्रभु हमें बताना चाहते हैं कि ईश्वर की नज़रों में बड़ा कौन हैं पद या सेवा। मित्रो, आइये हम आज के सुसमाचार के पाठों को सुने जिसे संत मारकुस रचित सुसमाचार के 10वें अध्याय के 35 से 45 पदों से लिया गया है।

जेबेदी के पुत्र याकूब और योहन येसु के पास आकर बोले, "गुरुवर ! हम अपने लिये एक निवेदन कर रहे हैं। आप उसे पूरा करें।" येसु ने उत्तर दिया, "क्या चाहते हो? मै तुम्हारे लिये क्या करुँ?" उन्होंने कहा, "अपने राज्य की महिमा में हम दोनों को अपने साथ बैठने दीजिये, एक को अपने दायें और एक को अपने बायें।" येसु ने उन से कहा, "तुम नहीं जानते कि क्या माँग रहे हो। जो प्याला मुझे पीना है, क्या तुम उसे पी सकते हो, और जो बपतिस्मा मुझे लेना है, क्या तुम उसे ले सकते हो?" उन्होंने उत्तर दिया, "हम यह कर सकते हैं"। इस पर येसु ने कहा, "जो प्याला मुझे पीना है, उसे तुम पीयोगे और जो बपतिस्मा मुझ लेना है, उसे तुम लोगे, किन्तु तुम्हें अपने दायें या बायें बैठने देने का अधिकार मेरा नहीं है, वे स्थान उन लोग के लिये हैं, जिनके लिये वे तैयार किये गये हैं।"जब दस प्रेरितों को यह मालूम हुआ तो वे याकूब और योहन पर क्रुद्ध हो गये। येसु ने उन्हें अनपे पास बुला कर कहा, "तुम जानते हो कि जो संसार के अधिपति माने जाते है, वे अपनी प्रजा पर निरंकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी लोगों पर अधिकार जताते हैं। तुम में ऐसी बात नहीं होगी। जो तुम लोगों में बड़ा होना चाहे, वह तुम्हारा सेवक बने और जो तुम मे प्रधान होना चाहे, वह सबका दास बने। क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने और बहुतों के उद्धार के लिये अपने प्राण देने आया है।

सेवा करने की इच्छा
मित्रो, मेरा पूरा विश्वास है कि आपने प्रभु के दिव्य वचनों को ध्यान से सुना है और इससे आपको परिवार के प्रत्येक सदस्यों और आपके मित्रों का आध्यात्मिक लाभ हुए हैँ। मित्रो, आज के सुसमाचार पर आपने अवश्य ही गौर किया होगा कि इसमें दो तरह के लोगों का चित्रण किया गया है। एक ओर प्रभु के दो शिष्य हैं जो आज की दुनिया के प्रतिनिधि हैं। दोनों भाइयों ने बहुत ही साहस का परिचय देते हुए प्रभु से निवेदन करते हैं। मित्रो, आप लोगों ने ध्यान से सुना ही होगा। जबेदी के पुत्र याकूब और योहन प्रभु की सेवा करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि वे येसु के साथ रहें और येसु के कार्यों को आगे बढ़ायें। वे चाहते हैं कि येसु की संगति में लोगों के लिये कार्य करें। मित्रो, सेवा की बातों को सुन कर हम अवश्य ही प्रभावित होते हैं। आज भी कई नेता जब हमसे वोट माँगने आते हैं तो हमसे यही कहते हैं कि हमें सेवा करने का अवसर प्रदान कीजिये। वे कहते हैं जनता की सेवा के लिये अपना जीवन समर्पित करना चाहते हैं। मेरा तो यह मानना है कि हर एक व्यक्ति के दिल में येसु ने सेवा की भावना भर दी है। हम एक-दूसरे की मदद करना चाहते हैं। येसु के चेलों का दिल भी सेवा भावना से ओत-प्रोत थे और वे लोगों की मदद करना चाहते हैं। तो मित्रो, तो आखिर समस्या है? जब हम ईश्वर से मिलने के लिये अपना आगे कदम उठाते हैं तो हमारा समर्पण कितना पूर्ण होता है। हम कितने उत्साहित रहते हैं। हम सब कुछ छोड़ कर येसु के समान ही जीना चाहते हैं। आज के सुसमाचार पाठों पर ही गौ़र कीजिये न । एक ही बाप के दो बेटे येसु के साथ रहने उसके वचन को सुनने और लोगों की सेवा के लिये अपने घर छोड़ चुके हैं। उन्होंने येसु के प्रभाव को करीब से देखा है। पर मित्रो, अब सुनिये वे क्या चाहते हैं येसु से। वे चाहते हैं कि वे येसु के दायें और बाँये बैठें। वे ‘पावर’ या शक्ति चाहते हैं। सम्मान पाने की भावना उनमें हावी होने लगी है। वे चाहते हैं कि वे बैठ कर खायें। वे चाहते हैं कि वे हुक्म चलायें और उनका जीवन आसान हो जाये। काम करें दूसरे और मान-सम्मान आराम मिले उन्हें। मित्र, यही है मानव की कमजोरी। आज के युग में यही है मानव का प्रलोभन। वह आराम चाहता है, वह बड़ा होना चाहता है, काम और सेवा के द्वारा नहीं पर पद और आराम के द्वारा।

बड़ा होना की इच्छा
मित्रो, अब आइये हम सुने प्रभु बड़ा होने के बारे में क्या बोलते हैं। प्रभु कहते हैं कि यदि तुम बड़ा होना चाहते हो तो सबका सेवक बनो। मित्रो, हर व्यक्ति की चाह होती है कि वह बड़ा बने, हर माता-पिता की चाहत होती है कि उनकी संतान एक दिन बड़ा बने और उनका नाम हो। मित्रो, हमें इस बात को बार-बार याद करना चाहिये कि यदि हम चाहते हैं कि सही में बड़ा बनें तो हम दूसरों की सेवा करें। दूसरों को अपनी सेवा से प्रसन्न करें। अपने बलिदान से दूसरों के जीवन में रंग लायें खुशी लायें, उनमें आशा का संचार करें। मित्रो, यह जगज़ाहिर है कि आज लोग बड़े होने के रेस में अपनी ईमानदारी गंवा देते हैं। वे झूठ का सहारा लेते हैं - पैसे को अत्यधिक महत्व देने लगते हैं या फिर उन दुनियावी साधनों का उपयोग करते हैं जिससे वे बड़े तो दिखते हैं पर उनसे कुछ फल प्राप्त नहीं होता है। इस संबंध में आपने कबीर कवि की कविता अवश्य ही पढ़ी होगी। उन्होंने एक बार कहा था, "बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर पंथी को छाया नहीं फल गलगे अति दुर।" मित्रो, यह कथन भी कितना सटीक। बड़ा दिखना, उँचे सिंहासन पर बैठना या ज्यादा रुपया कमाने से ही मानव का कल्याण नहीं हो जाता है। हमें तो चाहिये कि हम अपने कर्म से अपनी सुमधुर बातों से और अपनी सुसंगति से लोगों का कल्याण करें तब ही हम सही अर्थ में ‘बड़े’ कहलायेंगे।

बड़ा और नम्र होना
मैंने आज खजूर के पेड़ का उदाहरण दिया। जो बड़े होते हैं, वे उस आम के पेड़ के सदृश्य हैं जो गुण सम्पन्न होता है, फल से लदे होता है फिर भी झुके हुए रहता है ताकि लोगों को उसका फल खाने के लिये ज़्यादा प्रयास न करना पड़े। हमने ऐसे भी वृक्षों को देखें हैं जिन पर फल लगता है और जब लोग उनपर पत्थर फेकते हैं और तब भी पेड़ उनका अकल्याण नहीं करते हैं । वे चुपचाप दुःख उठा लेते हैं और लोगों को अपना फल दे ही देते हैं। मित्रो, अगर हम येसु के जीवन पर ही गौ़र करेंगे तो हम पायेंगे कि येसु तो सेवामय जीवन के आदर्श हैं। उन्होंने खुले रूप में कहा कि वे सेवा कराने नहीं वरन सेवा करने आये हैं। और जैसा उन्होंने कहा वैसी उन्होंने जीवन भर कार्य किया। प्रभु के सोच, कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। उन्होंने अपने मृ्त्यु के द्वारा इस बात को भी सिद्ध कर दिया कि सेवा का मार्ग आसान नहीं है। सच पूछा जाये तो यह मार्ग काँटों का है, यह मार्ग दुःख है यह मार्ग छोटा बनने का है यह मार्ग है लोगों की प्रगति को देख कर प्रसन्न होने का है। यही मार्ग हैं सच्चे नेतृत्व का।

सच्चा, भला और आशावादी बनें
मित्रो, आज प्रभु का निमंत्रण है कि हम बड़ा बनने की इच्छा तो अवश्य रखें पर याद रखें कि बड़ा हो जाने से हम बड़े नहीं बनते हैं। जब हम अपने को नम्र बना कर दूसरों के जीवन को अच्छा सुन्दर, भला और आशावादी बनने में मदद देते हैं तब ही हमारा जीवन सचमुच में बड़ा होगा। हम बड़े और महान् तब होंगे जब हम इसी जीवन में लोगों के काम आते हैं उन गायों की तरह जो अपना सर्वश्रेष्ठ दान लोगों को देतीं है इसी लिये लोगों के बीच उनका सम्मान है। प्रभु येसु ने भी अपना सर्वोंत्तम उपहार दुनिया को दिया और बड़ा और योग्य होने का वह रास्ता चुना जिससे न केवल दुनिया के लोगों का उस समय कल्याण हुआ ही पर जो भी व्यक्ति आज भी येसु की ओर आँखे उठाकर देखते या देखेंग वे सेवा की वही प्रेरणा पायेंगे जिससे उनका जीवन तो सफ़ल होगा ही उनके साथ जीने वाले भी बेहतर जीवन जी पायेंगे।







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