2012-08-21 07:26:54

प्रेरक मोतीः सन्त पियुस दसवें (1835-1914 ई.)


वाटिकन सिटी, 21 अगस्त सन् 2012:

जोसफ मेलखियोर सार्तो का जन्म, इटली के वेनिस प्रान्त के रियेसे नगर में, 02 जून, सन् 1835 ई. को हुआ था। सन् 1903 ई. में जोसफ मेलखियोर सार्तो सन्त पापा पियुस दसवें के नाम से काथलिक कलीसिया के 257 वें परमाध्यक्ष यानि सन्त पापा नियुक्त किये गये थे।

एक निर्धन एवं साधारण परिवार में जोसफ सार्तो का जन्म हुआ था किन्तु उनके माता पिता विश्वास के धनी थे तथा बाल्यकाल से ही उन्होंने जोसफ में नैतिकता के बीज बो दिये थे। मरियम के प्रति उनकी भक्ति प्रगाढ़ थी तथा रोज़री विनती का पाठ उनके घर की दिनचर्या का प्रमुख अंग था। धर्मनिष्ठ होने के साथ-साथ जोसफ सार्तो एक विवेकी एवं बुद्धिमान व्यक्ति थे तथा अपने विद्यार्थी जीवन में उन्होंने स्कॉलरशिप्स द्वारा अपनी पढ़ाई पूरी की थी। विद्यार्थियों और बाद में गुरुकुल छात्रों के बीच वे सादगी से भरी अपनी जीवन शैली के लिये विख्यात हो गये थे। पुरोहिताभिषेक के बाद वेनिस प्रान्त में ही वे पल्ली पुरोहित रहे और उसके बाद मानतोवा के धर्माध्यक्ष और फिर वेनिस के कार्डिनल एवं प्राधिधर्माध्यक्ष नियुक्त किये गये थे। सन् 1903 ई. से सन् 1914 ई. तक सन्त पियुस दसवें काथलिक कलीसिया के परमाध्यक्ष थे।

"ख्रीस्त में सब बातों की बहाली" सन्त पापा पियुस दसवें के परमाध्यक्षीय काल का आदर्श वाक्य बन गया था। पूजन पद्धति एवं धर्मविधिक प्रार्थनाओं का नवीकरण उनकी प्रमुख उपलब्धियों में से एक है। बच्चों के लिये धर्म शिक्षा एवं पवित्र परमप्रसाद के महत्व को प्रकाशित करनेवाले सन्त पापा पियुस दसवें ही थे। गुरुकुलों में छात्रों को ठोस नैतिक प्रशिक्षण दिये जाने पर भी उन्होंने अत्यधिक बल दिया था तथा लोगों में व्याप्त अन्धविश्वास एवं अज्ञान को दूर करने के लिये बच्चों, युवाओं एवं वयस्कों को धर्मशिक्षा प्रदान करने हेतु नवीन पहलों को आरम्भ करने का धर्माध्यक्षों को परामर्श दिया था। काथलिक विश्वास एवं धर्मसिद्धान्तों की आधुनिकतावादी व्याख्या का उन्होंने बहिष्कार किया तथा परम्परागत भक्तिमय प्रार्थनाओं एवं साधनाओं को प्रोत्साहन दिया। उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण सुधार था प्रथम कलीसियाई विधान संहिता का प्रकाशन जिसमें, पहली बार, कलीसिया के समस्त नियम और कानून एक ही पुस्तक में लिपिबद्ध किये जा सके। वैयक्तिक धर्मपरायणता, सादगी एवं ख्रीस्तीय मूल्यों को प्रतिबिम्बित करनेवाली जीवन शैली को वे प्रोत्साहित करते रहे थे जिसके आदर्श वे स्वयं बने।

मरियम के प्रति सन्त पापा पियुस दसवें की भक्ति प्रगाढ़ थी; उनके विश्व पत्र "Ad Diem Illum” में मरियम के द्वारा ख्रीस्त में सबकुछ को नया करने की उनकी इच्छा साफ़ ज़ाहिर हुई है। सन्त पापा पियुस दसवें का विश्वास था कि इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कुँवारी मरियम से अधिक सीधा एवं निश्चित्त रास्ता और कोई नहीं हो सकता। सन्त पापा पियुस दसवें, 20 वीं शताब्दी के, एकमात्र सन्त पापा थे जिन्होंने पल्ली पुरोहित रहकर व्यापक प्रेरितिक अनुभव हासिल किया था इसीलिये अपने सम्पूर्ण परमाध्यक्षीय काल के दौरान वे लोगों की प्रेरितिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिये उत्कंठित रहे। 20 अगस्त, सन् 1914 ई. को सन्त पापा पियुस का निधन हो गया था। 29 मई, सन् 1954 ई. को सन्त पापा पियुस दसवें को सन्त घोषित कर वेदी का सम्मान प्रदान किया गया था।

उनकी आख़िरी वसीयत इस असाधारण एवं आश्चर्यजनक वाक्य से समाप्त होती हैः "मैं निर्धन पैदा हुआ था, निर्धनता में मैंने जीवन यापन किया, और मैं निर्धन ही मर जाना चाहता हूँ।" सन्त पियुस दसवें का पर्व 21 अगस्त को मनाया जाता है।


चिन्तनः सादगी से परिपूर्ण जीवन शैली का वरण कर, प्रार्थना, बाईबिल पाठ एवं मनन चिन्तन में समय बिताकर हम भी ईश कृपा के धनी बनने हेतु प्रयासरत रहें।









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