सन्त जेरमेन या जेरमाना फ्राँस की एक सन्त हैं।
जेरमेन का जन्म फ्राँस के टोलूज़ शहर के निकटवर्ती पीब्राक गाँव के एक साधारण परिवार
में सन् 1579 ई. में हुआ था। जेरमेन का जीवन दुखों से भरा हुआ था। शैशवकाल में ही उनकी
माता का देहान्त हो गया, पिता ने दूसरा विवाह रचा लिया तथा यहीं से जेरमेन का उत्पीड़न
शुरु हो गया।
जन्म से ही जेरमेन शारीरिक विकृति के साथ पैदा हुई थीं तथा स्क्रोफुला
रोग से ग्रस्त थीं। उनकी विकृति सौतेली माँ के लिये उन्हें उत्पीड़ित करने का बहाना बन
गई। सौतेली माँ जेरमेन को घर से बाहर घुड़साल में सोने के लिये कहती तथा दिन भर भेड़ों
को चराने भेजा करती थीं। रोटी और पानी उनका भोजन था किन्तु इसमें से भी वह ज़रूरतमन्दों
को दे दिया करती थीं। इस कठिन ज़िन्दगी ने जेरमेन को विनम्रता एवं धैर्य का पाठ सिखाया।
अपने दायित्वों को निभाने के अतिरिक्त, जेरमेन प्रार्थना में मन लगाया करती थीं।
वे प्रतिदिन ख्रीस्तयाग में शामिल होती तथा येसु एवं माता मरियम पर घण्टों मनन किया करती
थीं। मध्यान्ह देवदूत प्रार्थना के अवसरों पर, गिरजाघर के घण्टों की आवाज़ सुनते ही,
वे घुटनों के बल गिर पड़ती तथा प्रार्थना में लीन हो जाया करती थीं। पहले-पहल लोग उनकी
इन हरकतों का मज़ाक उड़ाया करते थे किन्तु बाद में उन्हें जेरमेन की पवित्रता का एहसास
हुआ। बताया जाता है कि भेड़ों को चराने के बाद जब घर लौटती थीं तब नदी में एकाएक सूखा
रास्ता बन जाता था तथा उन्हें पार करने में मदद मिल जाती थी। जेरमेन की प्रार्थना से
कई लोगों ने चंगाई भी प्राप्त की थी इसलिये वे सम्पूर्ण गाँव में विख्यात हो गई थीं।
उनकी ख़्याति के बारे में सुनकर जेरमेन के पिता का भी ध्यान उनके प्रति आकर्षित हुआ और
उन्होंने अपनी पत्नी से कहकर जेरमेन के लिये घर मे जगह मांगी किन्तु जेरमेन ने वहीं रहना
पसन्द किया जहाँ उसे बाल्यकाल से रखा गया था। 22 वर्ष की उम्र में घुड़साल में सोते समय
ही उनकी मृत्यु हो गई।
07 मई सन् 1854 ई. को सन्त पापा पियुस नवम् ने जेरमेन को
धन्य घोषित किया था। 29 जून सन् 1867 ई. में वे सन्त घोषित की गई थीं। सन्त जेरमेन, उत्पीड़न
के शिकार बच्चों की, संरक्षिका हैं। उनका पर्व 15 जून को मनाया जाता है।
चिन्तनः
अन्यों की मदद हेतु सन्त जेरमेन हमारी प्रेरणा स्रोत बनें ताकि हमारी ख़ामियाँ हमारी
अक्षमता का कारण न बने।