सन्त नॉरबेर्ट का जन्म जर्मनी की राईन नदी के
नकटवर्ती ज़ानतेन में, सन् 1080 ई. में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा भी यहीं पर सम्पन्न
हुई थी। नॉर्बेर्ट के पिता, जेनेप के शाही परिवार में, कोषाध्यक्ष थे। नॉरबेर्ट एक धन
सम्पन्न परिवार से थे अतः उनका बाल्यकाल एवं किशोरावस्था दोनों ही सांसारिक सुख वैभव
में बीते थे।
जर्मन राजदरबार के सभी सुख वैभव का आनन्द लेनेवाले नॉरबेर्ट एक
दिन अपने घोड़े पर सवार किसी गाँव के लिये निकले, रास्ते में अचानक बादलों की गड़गड़ाहट
हुई, बिजली चमकी तथा वर्षा की तेज़ बौछारों ने उन्हें घोड़े से ज़मीन पर पटक दिया। लगभग
एक घण्टे तक नॉरबेर्ट ज़मीन बेहोश पड़े रहे। वर्षा की तेज़ बौछारों एवं बादलों के गर्जन
का उनपर कोई असर नहीं पड़ा। फिर, अचानक वे उठ खड़े हुए और एकाएक उनके मुख से निकलाः "प्रभु
आप मुझसे क्या चाहते हैं?" यही थे वे शब्द जो दमिश्क के रास्ते में सौल ने कहे थे। प्रत्युत्तर
में नॉर्बेर्ट ने मन में सुनाः "बुराई का रास्ता छोड़ दो और भलाई करो। शांति की खोज करो
और उसपर अटल रहो।" इस घटना के बाद नॉरबेर्ट पुनः ज़ानतेन लौटे तथा उन्होंने प्रार्थना
और पश्चाताप में अपना मन लगाया। लोगों की सेवा हेतु उन्होंने पुरोहिताभिषेक हेतु अध्ययन
किया तथा 1115 ई. में पुरोहित अभिषिक्त किये गये।
नॉरबेर्ट के मनपरिवर्तन ने
जर्मन राजदरबार के कई लोगों को प्रभावित किया जिन्होंने संसार के माया मोह का परित्याग
कर ख्रीस्तीय धर्म का आलिंगन कर लिया। नॉरबेर्ट ने कोलोन शहर के निकट सन्त सीगेबुर्ग
के मठ को अपनी सारी सम्पत्ति अर्पित कर दी तथा इसी मठ में भर्ती हो गये। तदोपरान्त उनका
सारा जीवन सुसमाचार प्रचार में बीता। 06 जून सन् 1134 ई. को नॉरबेर्ट का निधन हो गया।
सन्त नॉरबेर्ट का पर्व 06 जून को मनाया जाता है।
चिन्तनः सुसमाचारी
मूल्यों का वरण कर प्रभु ख्रीस्त के साक्षी बनना ही ख्रीस्तीय धर्मानुयायियों का जीवन
है।