शहीद जस्टिन का जन्म फिलिस्तीन के एक ग़ैरविश्वासी
परिवार में, लगभग सन् 120 ई. में हुआ था। प्लेटो, अरस्तु तथा अन्य महान यूनानी विचारकों
एवं दार्शनिकों की कृतियों का अध्ययन कर वे ख़ुद एक महान दार्शनिक बन गये थे। एक दिन,
समुद्र के किनारे जब वे दर्शन की एक किताब पढ़ रहे थे तब वहाँ से एक वृद्ध महाशय गुज़रे।
दोनों में बातचीत शुरु हो गई जो दर्शन एवं धर्म जैसे गूढ़ विषयों पर वार्तालाप में सम्पन्न
हुई। बुजुर्ग सज्जन एक ख्रीस्तीय धर्मानुयायी थे जिन्होंने जस्टीन के समक्ष अपने विश्वास
का साक्ष्य देते हुए उन्हें येसु मसीह के बारे में बताया। उन्होंने उन्हें बताया कि कैसे
यहूदी पवित्रग्रन्थों की सारी भविष्यवाणियाँ प्रभु येसु मसीह में पूरी हुई थीं। बुजुर्ग
सज्जन की बातें सुनने के बाद जस्टीन ने दार्शनिक जाँच पड़ताल की और उस विवेक एवं प्रज्ञा
को मिलते पाया जिसकी खोज वे अपने जीवन में करते रहे थे।
इस घटना के बाद जस्टीन
ने ख्रीस्तीय धर्म का आलिंगन कर लिया तथा एफेसुस के विख्यात ख्रीस्तीय धर्मशिक्षक बन
गये। यहाँ से उन्होंने रोम का रुख़ किया। रोम में उन्होंने स्वतंत्र और मुक्त रूप से
ख्रीस्तीय विश्वास का प्रचार-प्रसार किया। ख्रीस्तीय धर्म के समर्थन एवं बचाव में उन्होंने
रोमी सम्राट को सम्बोधित दो "अपोलोजीज़" लिखी और इस प्रकार दूसरी शताब्दी के सर्वाधिक
प्रभावशाली धर्मशिक्षक सिद्ध हुए। यद्यपि, तत्कालीन लेखकों के अनुसार, जस्टीन ने कई विषयों
पर पुस्तकें लिखीं, उनके द्वारा रचित दो "अपोलोजीज़" तथा यहूदी धर्मानुयायी ट्राईपो
के साथ उनके वार्तालाप पर आधारित कृतियाँ ही आज उपलब्ध और विख्यात हैं।
जस्टीन
के सहपाठियों को उनसे ईर्ष्या थी जिसके चलते उनके ही एक साथी दार्शनिक ने उनके विरुद्ध
शिकायत कर दी थी। सन् 165 ई. में रोमी अधिकारियों के हाथों जस्टीन को कड़ी यातनाएँ दी
गई और मार डाला गया। सन्त जस्टीन की शहादत का स्मृति पर्व पहली जून को मनाया जाता है।
चिन्तनः प्रभु ईश्वर में ध्यान लगाकर ही यथार्थ विवेक एवं प्रज्ञा का वरदान
पाया जा सकता है।