2012-03-05 09:47:54

प्रेरक मोतीः क्रूस के सन्त जॉन जोसफ (1654 ई. - 1734 ई.)
(05 मार्च)


इटली के, नेपल्स शहर के निकटवर्ती सुन्दर द्वीप, "इस्किया" में, क्रूस के सन्त जॉन जोसफ का जन्म, सन् 1654 ई. में, हुआ था। काथलिक घराने में पोषित जॉन जोसफ बाल्यकाल से ही सदगुणों के आदर्श रहे थे। 16 वर्ष की आयु में उन्होंने आलकानतारा के सन्त पेत्रुस द्वारा सुधारित फ्राँसिसकन धर्मसमाज में प्रवेश किया। धर्मसमाजी जीवन के प्रति वे इस क़दर समर्पित थे कि प्रवेश के तीन वर्ष बाद ही उन्हें उत्तरी इटली के पीडमोन्ट प्रान्त में एक नये मठ की स्थापना हेतु प्रेषित कर दिया गया था।

आलकानतारा के फ्राँसिसकन धर्मसमाज ने इटली में अपने मठों का समस्त कार्यभार मठवासी जॉन जोसफ पर डाल दिया था जिसे जॉन जोसफ ने कड़ी मेहनत एवं यथार्थ समर्पण के साथ बखूबी निभाया। इस उद्यम में उन्हें अपयश का भी सामना करना पड़ा किन्तु उन्होंने हार नहीं। बाईबिल पाठ, ध्यान, मनन चिन्तन तथा सतत् प्रार्थनाओं द्वारा जॉन जोसफ धर्मसमाज के मिशन को आगे बढ़ाते रहे। विनम्रता एवं आज्ञाकारिता के सदगुणों पर अमल कर उन्होंने धर्मसमाज के नवदीक्षार्थियों को भी रास्ता दिखाया।

जॉन जोसफ एक धर्मी पुरुष थे जिन्हें भविष्यवाणियों एवं चमत्कारों का वरदान प्राप्त था। जीवन भर कड़ी मेहनत करनेवाले अथक परिश्रमी एवं समर्पित मठवासी जॉन जोसफ मिरगी रोग से ग्रस्त थे। इसी बीमारी के चलते उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया तथा अस्सी वर्ष की आयु में नेपल्स के मठ में, 05 मार्च सन् 1734 ई. को, उनका निधन हो गया। उनकी मध्यस्थता से सम्पन्न कई चमत्कारों को मान्यता प्रदान कर, सन् 1839 ई. में, क्रूस के सन्त जॉन जोसफ को सन्त घोषित कर कलीसिया में वेदी का सम्मान प्रदान किया गया था। इटली के सान्ता लूसिया आल मोन्ते स्थित धर्मसमाजी मठ में आज भी उनके पवित्र अवशेष सुरक्षित हैं।

चिन्तनः अपने मिशन के प्रति हमारा समर्पण इतना दृढ़ होना चाहिये कि कठिनाईयों एवं अपयश के बावजूद हम, प्रभु येसु के क्रूस से प्रेरणा पाकर, आगे बढ़ते रहें।








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