कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन 29 नवम्बर, 2011 अन्तरधार्मिक वार्ता एवं सद्बाव वार्ता
के मार्ग की बाधायें
सभी धर्मो का लक्ष्य एक है - ईश्वर तक पहुँचना, ईश्वर को प्राप्त करना या ईश्वर में एक
हो जाना। ईश्वर को प्राप्त करना अर्थात् उस सत्य को प्राप्त करना जिससे मानव को सच्ची
शांति मिले। विश्व के सभी धर्मों का दावा है कि उनके संस्थापक या गुरु के वचनों, विचारों,
कर्मों उदाहरणों एवं उस पंथ की अच्छी परंपराओं का ईमानदारी से पालन करने से व्यक्ति को
मुक्ति मिलेगी, व्यक्ति परमात्मा में एक हो जायेगा, व्यक्ति को पूर्ण संतुष्टि या सच्ची
शांति प्राप्त हो जायेगी। राम, बुद्ध, महावीर, मुहम्मद और ईसा मसीह सबों के द्वारा दिखाये
गये धर्मों का आधार - दया, करुणा, क्षमा और अहिंसा की भावना ही है। इस सत्य को कदापि
नकारा नहीं जा सकता है धर्म का प्रासाद सत्य, प्रेम और अहिंसा की नींव पर खड़ा होता है।
महाकवि इकबाल ने ठीक ही कहा है कि " मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।"
इस
तथ्य के बावजूद धर्म के नाम पर होनेवाले संघर्षों, अत्याचारों और हिंसा के जो समाचार
रोज़ अख़बारों में छपते रहते हैं निश्चय ही धर्म शब्द कलंकित हुआ है। धर्म की रक्षा
के नाम पर कट्टर धर्मांधता या कहें धर्म के प्रति चरमपंथी विचारों ने न मालूम कितने निर्दोषों
की जानें लीं हैं, न जाने कितने उपासना गृहों को अपवित्र किया गया है, कितनी पवित्र भूमि
रक्त-रंजित हुई इसका कोई हिसाब नहीं, सब कुछ - बस भगवान के नाम पर, ज़िहाद के नाम पर,
राम के नाम पर धर्मयुद्ध के नाम पर। वैश्वीकरण के इस युग में दुनिया को जिस बुराई ने
ग्रस लिया है उनमे साम्प्रदायिकता का नाम सबसे ऊपर होगा।
‘साम्प्रदायिकता’
का अभिप्राय है किसी समप्रदाय या धार्मिक मतवाद के प्रति इतना विचल आग्रह कि यह असहिष्णुता
को जन्म दे, अन्य धार्मिक मतों को सहन न करे, धर्म की रक्षा के नाम पर उठाये अदूरदर्शी
कदमों एवं धर्म के दिव्य वचनों की गलत या त्रुटिपूर्ण व्याख्या कर इसका औचित्य साबित
करने के लिये इस हद तक तैयार रहे कि बन पड़े तो दूसरे धर्मावलंबियों का मूलच्छेद करने
से न चूके। आज धर्म के नाम पर इतने अधर्म हुए कि की जान कर हैरानी होती है। आयरिस
लेखक जोनाथान स्विफ़्ट ने एक बार कहा था " धर्म घृणा सिखाते हैं, धर्म धर्म क्यों नहीं
कराते।"
साप्रदायिकता की इस महामारी को दूर करने के लिये कई उपाय हो सकते
हैं। हमें धर्म के मूल रहस्य और लक्ष्य को समझना होगा हमें व्यापक मानव धर्म में विश्वास
करना होगा हमें नई आध्यात्मकि दृष्टि को विकसित करनी होगी।
हममें ‘सर्वधर्मसमभाव’
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वाःजनाय हिताय’ की भावना को बढ़ावा देना होगा तब ही मानव
की सही प्रगति और सच्चा कल्याण संभव हो पायेगा। काथलिक कलीसिया ने वर्षो पहले इस बात
को समझते हुए एक धर्म का दूसरे धर्म के साथ संबंध शांति स्थापना में व्यक्ति की भूमिका
तथा विवादास्पद मामलों को सुलझाने के लिये विभिन्न दस्तावेज़ों में अनेक उपाय प्रस्तुत
किये हैं। हम चाहते हैं कि वार्ता एवं सद्भाव को बढ़ावा देने के लिये काथलिक कलीसिया
के उन दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करें जिससे एक शांतिपूर्ण विश्व की स्थापना में धर्म का
योगदान अहम हो।
पिछले दिनों हमने अन्तरधार्मिक वार्ता या संबंध पर वाटिकन
द्वितीय का एक दस्तावेज़ ‘नोसतरा अयेताते’ अर्थात् ‘हमारे युग में’ को प्रस्तुत किया।
नोस्तरा आयेताते वाटिकन द्वितीय महासभा का वह दस्तावेज़ है जिसे संत पापा पौल षष्टम्
ने 28 अक्तूबर सन् 1965 में काथलिक कलीसिया के लिये घोषित किया। इसमें इस बात की चर्चा
की गयी है कि काथलिक कलीसिया का गैर काथलिक धर्मों के साथ क्या संबंध हो।
काथलिक
कलीसिया चाहती है कि ईसाई येसु के नाम का प्रचार करें। वे बतायें कि येसु मसीह सत्य,
मार्ग और जीवन हैं और उन्हीं में दुनिया के लोग अपनी परिपूर्णता पाते हैं। इसलिये काथलिक
कलीसिया ने एक और दस्तावेज़ प्रस्तुत किया है जिसे ‘डायलॉग एंड प्रोक्लामेशन’ या वार्ता
एवं प्रचार के नाम से जाना जाता है।इस दस्तावेज़ में वार्ता और सुसमाचार प्रचार के बारे
में बतलाया गया है। इसमें इस बात पर बल दिया गया है कि वार्ता और सुसमाचार प्रचार दोनों
के महत्त्वपूर्ण है।
श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम के अंतर्गत
पिछले सप्ताह हमने जानकारी प्राप्त की अन्तरधार्मिक वार्ता के आवश्यक मनोवृत्ति और परिणाम
के बारे में। हम जानकारी वार्ता के मार्ग में आनेवाली बाधाओं के बारे में 51. श्रोताओ,
हम आपको बतला दें कि विशुद्ध रूप से मानवीय स्तर पर एक-दूसरे से सौहार्दपूर्ण रिश्ता
कायम किये रखना उतना आसान नहीं है। आपसी रिश्ते बिगड़ जाने से पुनः वार्ता के लिये तैयार
होना भी आसान नहीं है। अंतरधार्मिक वार्ता तो और भी कठिन है। इसलिये यह महत्त्वपूर्ण
है कि हम वार्ता के मार्ग में आनेवाले विभिन्न बाधाओं के प्रति सचेत हो जायें और उन्हें
दूर करने के उपाय करें। कई बार ऐसा होता है कि लोग अपनी धार्मिक परंपराओं को दूसरे व्यक्ति
पर समान रूप से लागू करना चाहते हैं जो कि वार्ता के मार्ग में बाधा बन जाती है। कुछ
ऐसे भी हैं जो अपनी धार्मिक परंपराओं को विशेष रूप से लागू करना चाहते हैं और इस तरह
से वार्ता की प्रक्रिया ही मंद हो जाती या वार्ता करना बहुत कठिन हो जाता है। 52.श्रोताओं,
आज हम कुछ महत्त्वपूर्ण बातों की चर्चा करना चाहते हैं जो वार्ता के मार्ग में बाधा बन
कर आयी है। अगर मानव के क्रियाकलापों को लें तो हम पाते हैं जो बात वार्ता के मार्ग में
सबसे बड़ी बाधा बनकर आती है वह है मानव के खुद के विश्वास की कमी। मनुष्य जिस परंपरा
में जीता है यदि वह उसी को ठीक से नहीं जानता, समझता और उसके अपने जीवन में लागू करता
है तो वह अंतरधार्मिक वार्ता में अपना योगदान नहीं दे पायेगा। इतना ही नहीं अगर व्यक्ति
को दूसरों के धार्मिक परंपराओं के बारे में भी जानकारी न हो या कम जानकारी होने से व्यक्ति
दूसरे धर्म की सराहना नहीं कर पाता है और न ही उनके रीति रिवाजों का सम्मान करता है।
और अगर व्यक्ति के दिल में दूसरे के प्रति सम्मान की भावना न हो तो वार्ता के मार्ग में
बाधक बनेगी ही। कई बार दूसरे धर्म के बारे में ग़लतबयानी से भी वार्ता का मार्ग अवरुद्ध
हो जाता है। कई बार लोगों का अनुभव यह भी रहा है कि अगर हमारा किसी धार्मिक परंपराओं
के साथ कुछ बुरा अनुभव रहा हो या किसी तरह के बुरी बातों को हम अपने मन में बनाये रखते
हैं तो हम ऐसे समय में वार्ता के लिये तैयार नहीं हो सकते हैं। अनुभव यह भी बताते
हैं कि यदि किसी धर्मविशेष द्वारा प्रयोग किये जाने वाले शब्द का गलत अर्थ निकालने लगें
तो भी यह वार्ता के हित में नहीं होता। शब्द जैसे- धर्मपरिवर्तन बपतिस्मा और वार्ता
आदि। अन्तरधार्मिक वार्ता के मार्ग में एक और बात बाधा बन कर आती है वह है कि लोगों
का मनोभव। कई लोगों की यह धारणा है कि अन्तरधार्मिक वार्ता सिर्फ़ विशेषज्ञों के लिये
है और दूसरे या तो कमजोर हैं विश्वास का विश्वासघात कर देते हैं। इन सबके बाद और
एक बड़ी बात है कि वार्ता के लक्ष्यों के प्रति संदेह करना और विवाद-संबंधी बातों पर
बल दे। राजनीतिक आर्थिक, जातीय और वंशसंबंधी बातों से उत्तेजित सहिष्णुता और आपसी वार्तालाप
की इच्छा का अभाव भी वार्ता के मार्ग में बाधक बन जाती है। और कई बार निराशा का कारण
बन जाती है। श्रोताओ, ये तो रहे कुछ तत्व जो वार्ता के मार्ग में बाधक हो सकते हैं
या वार्ता की सफलता को अवरुद्ध करते हैं। इनक साथ ही साथ आज के युग में समाज में जो धार्मिक
वातावरण है वह भी अंतरधार्मिक वार्ता के मार्ग में बाधा बन जाती है। इनमें मुख्यतः उपभोक्तावाद,
धार्मिक तटस्थता और अनेक छोटे-छोटे धार्मिक पंथों या सप्रदायों को विद्यमान होना प्रमुख
है जो लोगों के मन को भ्रमित कर देते हैं और नयी समस्याओं को जन्म देते हैं। 53.श्रोताओं
इसलिये अंतरधार्मिक वार्ता के लिये चाहिये धैर्य जो ईश्वर की पहल से हमारे जीवन में आती
है जैसा कि ईश्वर ने येसु मसीह को दुनिया में भेज कर किया जिन्होंने हमारे लिये अपना
जीवन दिया और क्रूस पर मर कर सबों के साथ हमारा मेल कराया है। हाल के दिनों में अंतरधार्मिक
वार्ता की दिशा में प्रगति हुई है, आपसी समझदारी बढ़ी है। और कलीसिया के अंतरधार्मिक
वार्ता के प्रयासों से दूसरे धार्मिक परंपराओं के अनुयायी भी वार्ता के प्रति उत्साहित
और सह्रदयता का प्रदर्शन किया है। 54.इसीलिये कई चुनौतियों के बावजूद कलीसिया भी
अंतरधार्मिक वार्ता के प्रति दृढ़, अचल और सदा समर्पित है और आशा करती है कि इससे शांति
पूर्ण सहअस्तित्व का मार्ग प्रशस्त हो पायेगा। श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन
कार्यक्रम के अन्तर्गत हमने आज जानकारी प्राप्त की अन्तरधार्मिक वार्ता के आवश्यक मनोवृत्ति
और परिणाम के बारे में। अगले सप्ताह हम जानकारी प्राप्त करेंगे जानकारी प्राप्त करेंगे
वार्ता के बाधक तत्वों के बारे में।