कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन 15 नवम्बर, 2011 अन्तरधार्मिक वार्ता एवं सद्बाव वार्ता
मानव मुक्ति और संस्कृति
सभी धर्मो का लक्ष्य एक है - ईश्वर तक पहुँचना, ईश्वर को प्राप्त करना या ईश्वर में एक
हो जाना। ईश्वर को प्राप्त करना अर्थात् उस सत्य को प्राप्त करना जिससे मानव को सच्ची
शांति मिले। विश्व के सभी धर्मों का दावा है कि उनके संस्थापक या गुरु के वचनों, विचारों,
कर्मों उदाहरणों एवं उस पंथ की अच्छी परंपराओं का ईमानदारी से पालन करने से व्यक्ति को
मुक्ति मिलेगी, व्यक्ति परमात्मा में एक हो जायेगा, व्यक्ति को पूर्ण संतुष्टि या सच्ची
शांति प्राप्त हो जायेगी। राम, बुद्ध, महावीर, मुहम्मद और ईसा मसीह सबों के द्वारा दिखाये
गये धर्मों का आधार - दया, करुणा, क्षमा और अहिंसा की भावना ही है। इस सत्य को कदापि
नकारा नहीं जा सकता है धर्म का प्रासाद सत्य, प्रेम और अहिंसा की नींव पर खड़ा होता है।
महाकवि इकबाल ने ठीक ही कहा है कि " मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।"
इस
तथ्य के बावजूद धर्म के नाम पर होनेवाले संघर्षों, अत्याचारों और हिंसा के जो समाचार
रोज़ अख़बारों में छपते रहते हैं निश्चय ही धर्म शब्द कलंकित हुआ है। धर्म की रक्षा
के नाम पर कट्टर धर्मांधता या कहें धर्म के प्रति चरमपंथी विचारों ने न मालूम कितने निर्दोषों
की जानें लीं हैं, न जाने कितने उपासना गृहों को अपवित्र किया गया है, कितनी पवित्र भूमि
रक्त-रंजित हुई इसका कोई हिसाब नहीं, सब कुछ - बस भगवान के नाम पर, ज़िहाद के नाम पर,
राम के नाम पर धर्मयुद्ध के नाम पर। वैश्वीकरण के इस युग में दुनिया को जिस बुराई ने
ग्रस लिया है उनमे साम्प्रदायिकता का नाम सबसे ऊपर होगा।
‘साम्प्रदायिकता’
का अभिप्राय है किसी समप्रदाय या धार्मिक मतवाद के प्रति इतना विचल आग्रह कि यह असहिष्णुता
को जन्म दे, अन्य धार्मिक मतों को सहन न करे, धर्म की रक्षा के नाम पर उठाये अदूरदर्शी
कदमों एवं धर्म के दिव्य वचनों की गलत या त्रुटिपूर्ण व्याख्या कर इसका औचित्य साबित
करने के लिये इस हद तक तैयार रहे कि बन पड़े तो दूसरे धर्मावलंबियों का मूलच्छेद करने
से न चूके। आज धर्म के नाम पर इतने अधर्म हुए कि की जान कर हैरानी होती है। आयरिस
लेखक जोनाथान स्विफ़्ट ने एक बार कहा था " धर्म घृणा सिखाते हैं, धर्म धर्म क्यों नहीं
कराते।"
साप्रदायिकता की इस महामारी को दूर करने के लिये कई उपाय हो सकते
हैं। हमें धर्म के मूल रहस्य और लक्ष्य को समझना होगा हमें व्यापक मानव धर्म में विश्वास
करना होगा हमें नई आध्यात्मकि दृष्टि को विकसित करनी होगी।
हममें ‘सर्वधर्मसमभाव’
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वाःजनाय हिताय’ की भावना को बढ़ावा देना होगा तब ही मानव
की सही प्रगति और सच्चा कल्याण संभव हो पायेगा। काथलिक कलीसिया ने वर्षो पहले इस बात
को समझते हुए एक धर्म का दूसरे धर्म के साथ संबंध शांति स्थापना में व्यक्ति की भूमिका
तथा विवादास्पद मामलों को सुलझाने के लिये विभिन्न दस्तावेज़ों में अनेक उपाय प्रस्तुत
किये हैं। हम चाहते हैं कि वार्ता एवं सद्भाव को बढ़ावा देने के लिये काथलिक कलीसिया
के उन दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करें जिससे एक शांतिपूर्ण विश्व की स्थापना में धर्म का
योगदान अहम हो।
पिछले दिनों हमने अन्तरधार्मिक वार्ता या संबंध पर वाटिकन
द्वितीय का एक दस्तावेज़ ‘नोसतरा अयेताते’ अर्थात् ‘हमारे युग में’ को प्रस्तुत किया।
नोस्तरा आयेताते वाटिकन द्वितीय महासभा का वह दस्तावेज़ है जिसे संत पापा पौल षष्टम्
ने 28 अक्तूबर सन् 1965 में काथलिक कलीसिया के लिये घोषित किया। इसमें इस बात की चर्चा
की गयी है कि काथलिक कलीसिया का गैर काथलिक धर्मों के साथ क्या संबंध हो।
काथलिक
कलीसिया चाहती है कि ईसाई येसु के नाम का प्रचार करें। वे बतायें कि येसु मसीह सत्य,
मार्ग और जीवन हैं और उन्हीं में दुनिया के लोग अपनी परिपूर्णता पाते हैं। इसलिये काथलिक
कलीसिया ने एक और दस्तावेज़ प्रस्तुत किया है जिसे ‘डायलॉग एंड प्रोक्लामेशन’ या वार्ता
एवं प्रचार के नाम से जाना जाता है।इस दस्तावेज़ में वार्ता और सुसमाचार प्रचार के बारे
में बतलाया गया है। इसमें इस बात पर बल दिया गया है कि वार्ता और सुसमाचार प्रचार दोनों
के महत्त्वपूर्ण है।
श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम के अंतर्गत
पिछले सप्ताह हमने जानकारी प्राप्त की मानव मुक्ति और संस्कृति के संबंध के बारे में।आज
हम जानकारी प्राप्त करेंगे अन्तरधार्मिक वार्ता के आवश्यक मनोवृत्ति और परिणाम के बारे
में।
47.श्रोताओ वार्ता की मनोवृत्ति एवं परिणाम के बारे में बातें करते हुए
हम आपको ये बता दें कि वार्ता के लिये एक संतुलित मनोवृत्ति का होना अति आवश्यक है।यह
बात न सिर्फ़ ईसाइयों के लिये लागू होती है पर उनके लिये भी जो अन्य धर्म या परंपराओं
के अनुयायी हैं। वार्ता न ही निष्कपट और न ही अति आलोचनात्मक हो लेकिन खुला और स्वीकारात्मक,
निःस्वार्थ और निष्पक्षीय हो। किसी भी वार्ता के लिये एक-दूसरे की भिन्नताओं और संभवित
विरोधाभाषों को स्वीकार करने की इच्छा पर सदा बल दिया जाता रहा है। इसके साथ इस बात पर
भी ध्यान देना चाहिये कि व्यक्ति के दिल में सत्य को पाने की तीव्र इच्छा हो और वह इस
बात को स्वीकार करने के लिये भी तैयार रहे की वार्ता से उसके जीवन में बदलाव भी आ सकता
है। 48. श्रोताओ इसका मतलब यह नहीं है कि वार्ता में हिस्सा लेनेवाले व्यक्ति
अपने-अपने धार्मिक संकल्पों का त्याग करें। सत्य इसके ठीक विपरीत है; अन्तरधार्मिक वार्ता
की विश्वसनीयता इस बात पर निर्भर करती है कि वार्ता में सहभागी होने वाला हर व्यक्ति
अपने विश्वास को ही लेकर बातचीत के लिये सामने आये। ख्रीस्तीय इस विश्वास में कि येसु
मसीह ही ईश्वर और मानव के बीच एकमात्र मध्यस्थ हैं दिव्य प्रकाशना की पूर्णता हैं। इसके
साथ ख्रीस्तीय इस बात को कदापि न भूलें कि ईश्वर ने अपने आपको अन्य धार्मिक परंपराओं
के अनुयायियों को भी प्रकट किया है। इसका अर्थ यह है कि हर व्यक्ति जो वार्ता के लिये
सामने आता है उनमें इस बात की दृढ़ता हो कि हर दूसरे व्यक्ति के विश्वास और मूल्यों को
खुले मन से ग्रहण करे। 49. श्रोताओ, हम आपको यह भी बता दें कि येसु मसीह के द्वारा
सत्य को प्राप्त करने के बाद भी ख्रीस्तीय को इस बात की गारंटी नहीं मिल जाती है कि उसने
सत्य को पूर्ण रूप से समझ लिया है। सच बात तो यह है कि जब हम सत्य का विश्लेषण करते हैं
तो हम पाते हैं कि यह एक कोई वस्तु नहीं है जिसे एक व्यक्ति पूर्ण रूप से पाने का दावा
कर सके। सत्य को पाने का प्रयास एक अनन्त प्रक्रिया है। इसलिये एक ओर अपनी पहचान को बरकरार
रखते हुए ख्रीस्तीय को इस बात के लिये तैयार रहना चाहिये कि वह दूसरी धार्मिक परंपराओं
से सत्य के बारे में सीखे और उसे ग्रहण करे। वार्ता के द्वारा व्यक्ति दूसरे व्यक्ति
के प्रति जमा किये गये पूर्वाग्रहों से मुक्त हो, पूर्वकल्पित विचारों पर पुनर्विचार
करे और कई बार तो अपने विश्वास के समझदारी को भी विशुद्ध करने को तत्पर रहे। 50.
अगर ख्रीस्तीय इस तरह की सह्रदयता दिखलायें और स्वयं को दूसरों के सम्मुख प्रस्तुत करें
ताकि दूसरे उन्हें परख सकें तो निश्चय ही वार्ता फलदायक सिद्ध होगी। वे इस बात का गहरा
अनुभव कर पायेंगे कि ईश्वर ने येसु ख्रीस्त के द्वारा पवित्र आत्मा में कई भले करता और
पूरी दुनिया में मानव जाति के लिये करना जारी रखता है। ऐसा होने से विश्वास कमजोर तो
होगा नहीं बल्कि और ही अधिक गहरा होगा और वार्ता भी सफल होगी। ख्रीस्तीय अपने ख्रीस्तीय
पहचान के प्रति और अधिक जागरुक होंगे और ईसाई मूल्यों और संदेशों और गहराई से समझ पायेंगे।
और ऐसा होने से उनके विश्वास का दायरा बढ़ेगा वे इस बात का पता लगा पायेंगे कि येसु मसीह
के जीवन का रहस्य दृश्य कलीसियाई और ख्रीस्तीय अनुयायियों की सीमारेखा से कहीँ बढ़कर
है। श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम के अन्तर्गत हमने आज जानकारी
प्राप्त की अन्तरधार्मिक वार्ता के आवश्यक मनोवृत्ति और परिणाम के बारे में। अगले सप्ताह
हम जानकारी प्राप्त करेंगे जानकारी प्राप्त करेंगे वार्ता के बाधक तत्वों के बारे में।