2011-10-27 12:54:07

असीसीः "ईश्वर की अनुपस्थिति मानव एवं मानवता के ह्रास तक ले जाती है", सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें


असीसी, 27 अक्टूबर सन् 2011 (सेदोक): इटली के असीसी नगर स्थित स्वर्गदूतों की रानी मरियम को समर्पित महागिरजाघर में, गुरुवार 27 अक्टूबर को, विभिन्न धर्मों के नेताओं ने विश्व शांति हेतु मिलकर प्रार्थना की तथा शांति निर्माण में सहायक अपने अपने दृष्टिकोणों को प्रस्तुत किया।

सार्वभौमिक काथलिक कलीसिया द्वारा आयोजित इस अन्तरधार्मिक सम्मेलन का नेतृत्व कलीसिया के परमाध्यक्ष सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें द्वारा किया गया जिन्होंने इस अवसर पर अपना प्रवचन इन शब्दों से आरम्भ किया, उन्होंने कहाः ...................

"प्रिय भाइयो एवं बहनो,
विभिन्न चर्चों, कलीसियाई समुदायों व विश्व धर्मों के गणमान्य अध्यक्षो तथा प्रतिनिधियो,
प्रिय मित्रो,

25 वर्ष पूर्व धन्य सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय ने शांति के लिये प्रार्थना हेतु विश्व के धर्मों के नेताओं और प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया था। इस बीच क्या हुआ है? आज शांति की स्थिति क्या है? उस समय विश्व शांति पर बना सबसे बड़ा ख़तरा दो परस्पर विरोधी गुटों में पृथ्वी के विभाजन से था। इस विभाजन का एक विशिष्ट प्रतीक बर्लिन की दीवार थी जिसने शहर के बीचोबीच से दो दुनियाओं की सीमा खींच रखा था। असीसी के प्रथम अन्तरधार्मिक सम्मेलन के ठीक तीन साल बाद बिना रक्तपात के यह दीवार ध्वस्त हो गई। दीवार के पीछे जुटे विशाल हथियारों ने एकाएक अपना महत्व ही खो दिया। उन्होंने अपना आतंक खो दिया क्योंकि स्वतंत्रता के लिये लोगों की अभिलाषा हिंसा के उन हथियारों से कहीं अधिक मज़बूत थी। विश्वपटल पर आया यह नाटकीय परिवर्तन अत्यन्त जटिल है तथा जिसका उत्तर सरल फार्मुलों से नहीं दिया जा सकता। आर्थिक एवं राजनैतिक कारकों के अलावा उक्त घटना का एक गहन आध्यात्मिक कारण था। कारण यह कि भौतिक सत्ताओं के पीछे किसी प्रकार की आध्यात्मिक प्रतिबद्धता नहीं थी। अन्ततः स्वतंत्रता की अभिलाषा हिंसा के भय से कहीं अधिक मज़बूत थी। स्वतंत्रता की इस विजय के लिये, जो शांति की भी विजय थी, हम प्रभु ईश्वर धन्यवाद देते हैं।"

सन्त पापा ने कहा कि बर्लिन की दीवार के ध्वस्त होने के बाद मिली स्वतंत्रता और शांति स्थाई नहीं हो सकी क्योंकि यह निर्देशनहीन रही है। इस स्वतंत्रता और शांति को स्थाई बनाने के लिये लोगों को मार्गदर्शन नहीं मिला और उन्होंने अपनी तरह से उसकी व्याख्या कर इसका दुरुपयोग भी किया है। उन्होंने कहा कि दुर्भाग्यवश अनेक दलों ने इस स्वतंत्रता में हिंसा को भी शामिल कर लिया तथा झगड़ों और वैमनस्यता को प्रश्रय दिया।

सभी को सन्त पापा ने आमंत्रित किया कि वे आपसी मनमुटाव और हिंसा को पहचानें तथा उसे विश्व से दूर करने में योगदान दें।

उन्होंने कहाः.......................... "हमें हिंसा और कलह के नये चेहरों को पहचानने की कोशिश करना चाहिये। हिंसा के नये रूपों में हम दो प्रकारों की हिंसा को देख सकते हैं। सर्वप्रथम, आतंकवाद है जिसमें, निर्दोष मानव प्राणियों की परवाह किये बिना, युद्धों की जगह प्रतिद्वंदी के महत्वपूर्ण स्थलों को विध्वंसक आक्रमण का निशाना बनाया जाता है। अपराधियों की दृष्टि में विरोधियों का नुकसान किसी भी प्रकार की क्रूरता को उचित ठहराता है। इसमें अन्तरराष्ट्रीय कानून द्वारा रखी गई सीमाओं को भी तोड़ डाला जाता है।

हम जानते हैं कि आतंकवाद अक्सर धार्मिक तौर पर प्रेरित रहता है और यह कि हमलों की विशिष्ट धार्मिक प्रकृति को क्रूरता का औचित्य ठहराने के लिये किया जाता है। इसमें अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये नैतिकता के सभी मापदण्डों का बहिष्कार कर दिया जाता है। इस मामले में, धर्म शांति की सेवा नहीं करता अपितु हिंसा का औचित्य ठहराने के लिये धर्म का दुरुपयोग किया जाता है।"

सन्त पापा ने कहा, ................ "धर्म के आलोचकों ने बारम्बार कहा है कि धर्म हिंसा का कारण है और ऐसा कर उन्होंने धर्म के प्रति शत्रुता को प्रश्रय दिया है। धार्मिक व्यक्तियों के रूप में हमें इस तथ्य से गहन परेशानी होनी चाहिये। सच तो यह है कि किसी एक धर्म के रक्षकों द्वारा अन्य धर्मों के लोगों को दबाने के लिये भी धर्म का दुरुपयोग किया जाता है। सन् 1986 के अन्तरधार्मिक सम्मेलन में एकत्र प्रतिनिधियों ने कहा था तथा अब हम इस तथ्य को दुहराते हैं कि यह धर्म की असली प्रकृति या धर्म का सच्चा स्वरूप नहीं है।"

इस तथ्य के प्रति सन्त पापा ने गहन दुख व्यक्त किया कि अतीत में ख्रीस्तीयों द्वारा भी धर्म के नाम पर हिंसा ढाई गई, उन्होंने कहाः "ख्रीस्तीय होने के नाते इस बिन्दु पर मैं कहना चाहता हूँ कि यह सच है कि इतिहास के अन्तराल में ख्रीस्तीय धर्म के नाम पर भी हिंसा का उपयोग किया गया जिसे हम लज्जा के साथ स्वीकार करते हैं। तथापि, यह स्पष्ट है कि वह ख्रीस्तीय धर्म का दुरुपयोग था जो ख्रीस्तीय धर्म की प्रकृति के बिलकुल विपरीत है।"

सन्त पापा ने आगे कहा, "ईश्वर की अनुपस्थिति मनुष्य और मानवता को पतन की ओर ले जाती है किन्तु ईश्वर के साथ जिया गया सही सम्बन्ध मनुष्य को शांति की ओर अग्रसर करता है।" इस सन्दर्भ में, विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच सम्वाद को नितान्त आवश्यक निरूपित कर सन्त पापा ने इस बात पर बल दिया कि ईश्वर का बहिष्कार मानव को भ्रष्ट करता, उससे उसके मापदण्ड छीन लेता तथा उसे हिंसा के लिये उकसाता है। दूसरी ओर नास्तिक लोग हैं जो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते। सन्त पापा ने कहा कि इन सब लोगों से आज हम आग्रह करते हैं कि मानवजाति के कल्याण हेतु वे सत्य एवं शांति के तीर्थयात्री बनें। सभी विनाशक शक्तियों के विरुद्ध हम एक साथ मिलकर खड़ें होवें तथा हिंसा के विरुद्ध संघर्ष का प्रण करें। उन्होंने कहा कि काथलिक कलीसिया हिंसा के विरुद्ध अपने संघर्ष को जारी रखेगी तथा विश्व शांति हेतु अपने समर्पण को मज़बूत करेगी। उन्होंने कहा हम सब सत्य के तीर्थयात्री, शांति के तीर्थयात्रा स्वरूप शांति की सामान्य इच्छा से अनुप्राणित हैं।








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