कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन 27 सितंबर, 2011 अन्तरधार्मिक वार्ता एवं सद्बाव ईसाई
धर्म एवं अन्य धार्मिक परंपरायें
श्रोताओ, सभी धर्मो का लक्ष्य एक है - ईश्वर तक पहुँचना, ईश्वर को प्राप्त करना या ईश्वर
में एक हो जाना। ईश्वर को प्राप्त करना अर्थात् उस सत्य को प्राप्त करना जिससे मानव को
सच्ची शांति मिले। विश्व के सभी धर्मों का दावा है कि उनके संस्थापक या गुरु के वचनों,
विचारों, कर्मों उदाहरणों एवं उस पंथ की अच्छी परंपराओं का ईमानदारी से पालन करने से
व्यक्ति को मुक्ति मिलेगी, व्यक्ति परमात्मा में एक हो जायेगा, व्यक्ति को पूर्ण संतुष्टि
या सच्ची शांति प्राप्त हो जायेगी।
राम, बुद्ध, महावीर, मुहम्मद और ईसा मसीह
सबों के द्वारा दिखाये गये धर्मों का आधार - दया, करुणा, क्षमा और अहिंसा की भावना ही
है। इस सत्य को कदापि नकारा नहीं जा सकता है धर्म का प्रासाद सत्य, प्रेम और अहिंसा की
नींव पर खड़ा होता है। महाकवि इकबाल ने ठीक ही कहा है कि " मज़हब नहीं सिखाता आपस में
बैर रखना।"
इस तथ्य के बावजूद धर्म के नाम पर होनेवाले संघर्षों, अत्याचारों
और हिंसा के जो समाचार रोज़ अख़बारों में छपते रहते हैं निश्चय ही धर्म शब्द कलंकित हुआ
है। धर्म की रक्षा के नाम पर कट्टर धर्मांधता या कहें धर्म के प्रति चरमपंथी विचारों
ने न मालूम कितने निर्दोषों की जानें लीं हैं, न जाने कितने उपासना गृहों को अपवित्र
किया गया है, कितनी पवित्र भूमि रक्त-रंजित हुई इसका कोई हिसाब नहीं, सब कुछ - बस भगवान
के नाम पर, ज़िहाद के नाम पर, राम के नाम पर धर्मयुद्ध के नाम पर। वैश्वीकरण के
इस युग में दुनिया को जिस बुराई ने ग्रस लिया है उनमे साम्प्रदायिकता का नाम सबसे ऊपर
होगा।
साम्प्रदायिकता का अभिप्राय है किसी समप्रदाय या धार्मिक मतवाद के प्रति
इतना विचल आग्रह कि यह असहिष्णुता को जन्म दे, अन्य धार्मिक मतों को सहन न करे, धर्म
की रक्षा के नाम पर उठाये अदूरदर्शी कदमों एवं धर्म के दिव्य वचनों की गलत या त्रुटिपूर्ण
व्याख्या कर इसका औचित्य साबित करने के लिये इस हद तक तैयार रहे कि बन पड़े तो दूसरे
धर्मावलंबियों का मूलच्छेद करने से न चूके।
आज धर्म के नाम पर इतने अधर्म हुए
कि की जान कर हैरानी होती है। आयरिस लेखक जोनाथान स्विफ़्ट ने एक बार कहा था " धर्म घृणा
सिखाते हैं, धर्म धर्म क्यों नहीं कराते।"
साप्रदायिकता की इस महामारी को दूर
करने के लिये कई उपाय हो सकते हैं। हमें धर्म के मूल रहस्य और लक्ष्य को समझना होगा हमें
व्यापक मानव धर्म में विश्वास करना होगा हमें नई आध्यात्मकि दृष्टि को विकसित करनी होगी।
हममें ‘सर्वधर्मसमभाव’ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वाःजनाय हिताय’ की भावना को
बढ़ावा देना होगा तब ही मानव की सही प्रगति और सच्चा कल्याण संभव हो पायेगा।
काथलिक
कलीसिया ने वर्षो पहले इस बात को समझते हुए एक धर्म का दूसरे धर्म के साथ संबंध शांति
स्थापना में व्यक्ति की भूमिका तथा विवादास्पद मामलों को सुलझाने के लिये विभिन्न दस्तावेज़ों
में अनेक उपाय प्रस्तुत किये हैं।
हम चाहते हैं कि वार्ता एवं सद्भाव को बढ़ावा
देने के लिये काथलिक कलीसिया के उन दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करें जिससे एक शांतिपूर्ण
विश्व की स्थापना में धर्म का योगदान अहम हो।
पिछले दिनों हमने अन्तरधार्मिक
वार्ता या संबंध पर वाटिकन द्वितीय का एक दस्तावेज़ ‘नोसतरा अयेताते’ अर्थात् ‘हमारे
युग में’ को प्रस्तुत किया। नोस्तरा आयेताते वाटिकन द्वितीय महासभा का वह दस्तावेज़ है
जिसे संत पापा पौल षष्टम् ने 28 अक्तूबर सन् 1965 में काथलिक कलीसिया के लिये घोषित किया।
इसमें इस बात की चर्चा की गयी है कि काथलिक कलीसिया का गैर काथलिक धर्मों के साथ क्या
संबंध हो।
काथलिक कलीसिया चाहती है कि ईसाई येसु के नाम का प्रचार करें। वे बतायें
कि येसु मसीह सत्य, मार्ग और जीवन हैं और उन्हीं में दुनिया के लोग अपनी परिपूर्णता पाते
हैं। इसलिये काथलिक कलीसिया ने एक और दस्तावेज़ प्रस्तुत किया है जिसे ‘डायलॉग एंड प्रोक्लामेशन’
या वार्ता एवं प्रचार के नाम से जाना जाता है। इस दस्तावेज़ में वार्ता और सुसमाचार
प्रचार के बारे में बतलाया गया है। इसमें इस बात पर बल दिया गया है कि वार्ता और सुसमाचार
प्रचार दोनों के महत्त्वपूर्ण है।
श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम
के अंतर्गत पिछले सप्ताह हमने सुना वार्ता, उद्धोषणा और मन परिवर्तन के बारे में आज हम
सुनेंगे अन्य धर्मों के बारे में ख्रीस्तीय विचारों को। श्रोताओ, हम आपको बता दें
कि दूसरे धर्मों की सराहना करने का अर्थ है उनके साथ निकट का संबंध बनाने का प्रयास करना।
इसका अर्थ यह है भी है उनके बारे में न केवल सैद्धांतिक ज्ञान रखना लेकिन उनके साथ अन्तरधार्मिक
वार्ता के प्रयास भी जारी रखना। जब हम अन्तरधार्मिक वार्ता की बात करते हैं तो हम
इस बात को भी नहीं भूल सकते हैं कि हम इनका ईशशास्त्रीय मूल्यांकन सही तरीके से करें।
जब हम अन्य धार्मिक परंपराओं के साथ वार्ता करने को तैयार हैं तो हमें चाहिये कि बड़े
ही सावधानी से उनके मानवीय और आध्यात्मिक मूल्यों का अध्ययन करें। हम उनका सम्मान
करें क्योंकि सदियों से उन्होंने मानव इतिहास के गहरे रहस्यों का जवाब देने का प्रयास
किया है और लोगों के धार्मिक अनुभवों की अर्थपूर्ण बनाया है। द्वितीय वाटिकन की महासभा
ने इन सब बातों के सकारात्मक आकलन करने का प्रयास किया है। आज यह ज़रूरी है कि वाटिकन
कौंसिल की उन बातों के अर्थ को ठीक से समझने का प्रयास हो। वाटिकन कौंसिल काथलिक
कलीसिया के परंपरागत सिद्धांत पर बल देते हुए कहती है कि येसु में हमारी मुक्ति है और
रहस्यात्मक तरीके से यह उन लोगों के लिये भी है जो दिल के भले हैं। वाटिकन महासभा
धर्म के बारे में जो बातें बताना चाहती है वह इसके संविधान ‘गौदियुम एत स्पेस’ में मिलता
है। इसके द्वारा महासभा इस बात की शिक्षा देती है कि येसु नये आदम, अपने देहधारण, मृत्यु
और पुनरुत्थान के द्वारा हर मानव में क्रियाशील हैं ताकि मानव आन्तरिक रूप से नया बन
सके। यह तथ्य न केवल ईसाइयों के लागू होता है पर उन सब लोगों के लिये भी जिनके दिल
भलें हैं जिनके दिल में ईश्वर की कृपा अदृश्य रूप से कार्यरत है। उदाहरण के लिये हम जानते
हैं कि येसु दुनिया के सब लोगों के लिये मरे और तब से दुनिया के सब लोग एक लक्ष्य की
प्राप्ति के लिये बुलाये गये हैं। यह लक्ष्य ईश्वरीय है और पवित्र आत्मा प्रत्येक व्यक्ति
को यह अवसर और संभावना प्रदान करता है कि वह इस पास्का रहस्य का अभिन्न अंग बने। वाटिकन
महासभा ने आरंभिक धर्म शास्त्रियों के विचारो को आगे बढ़ाते हुए कहता है ‘नोस्तरा आयेताते’
(हमारे युग में) नामक कलीसियाई दस्तावेज़ में इस बात की व्याख्या करता है कि दुनिया की
विभिन्न परंपराओं में " उसी एक सत्य की एक किरण है जो सबों को आलोकित करती है"। एक
दूसरा दस्तावेज़ ‘अद जेन्तेस’ इस बात को स्वीकार करती है कि ‘शब्द के बीज’ को ईश्वर ने
अपनी उदारता के कारण राष्ट्रों के बीच बाँट दिया है। ‘लूमेन जेनसियुम’ में इस बात को
बतलाया गया है कि अच्छाई का बीच को न केवल लोगों के मन दिल में रोपा हुआ पाया गया पर
लोगों की धर्मविधि और परंपराओं में भी इसकी उपस्थिति देखी गयी। हमने अभी जिन बातों
की चर्चा की है वे उसके द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि वाटिकन द्वितीय महासभा इस बात
को स्वीकार करने के लिये तैयार थी कि सकारात्मक मूल्यों की उपस्थिति न केवल विश्वासियों
के व्यक्तिगत धार्मिक जीवन में है पर दूसरे धार्मिक परंपराओं में भी है। महासभा ने
इस बात की ओर लोगों का ध्यान खींचा है कि इन मूल्यों एवं ईशवर की सक्रिय उपस्थिति उन
परंपराओं में शब्द और पवित्र आत्मा की सक्रियता के कारण है। ‘अद जेन्तेस’ इस बात की पुष्टि
करता है कि पवित्र आत्मा उसी समय से सक्रिय रहे जब प्रभु येसु मसीह महिमान्वित नहीं हुए
थे। इन बातों को समझने से यह स्पष्ट होता है वे बातें जो अन्य परंपराओं में घटीं
मुक्ति के इतिहास में सुसमाचार को स्वीकार कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कीं। जब हम
अन्य परंपराओं की भूमिका को इस तरह से स्वीकार करते हैं तो यह निश्चय ही हमें वार्ता
और सहयोग के लिये आमंत्रित करता है। इस लिये आज ईसाइयों से यह आशा की जाती है कि
वे अपने जीवन से विश्वास का साक्ष्य तो दें ही दूसरे अख्रीस्तीयों के आध्यात्मिक और नैतिक
मूल्यों के साथ उनके सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को स्वीकारें, संरक्षित करें और इसका
प्रसार करें। श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम के अंतर्गत हमने
जानकारी प्राप्त की अन्य धर्मों के बारे में ख्रीस्तीय विचारों को अगले सप्ताह हम जानकारी
प्राप्त करेंगे अन्तर धार्मिक वार्ता के क्षेत्र में काथलिक कलीसिया की भूमिका और येसु
के मिशन के बारे।